गरम हवा के थपेड़ों से गाँव जूझता है
एक थका हारा मनुष्य
आधी धूप - आधी छाँव में
नीम के पेड़ के नीचे सोता है
सपना आया है
कि धान के खेत का पानी
सूरज ने यकायक सोख लिया है,
होगा,
अब उठा नहीं जाता है।

प्यास से परेशान एक पंछी
बढ़ता है नदी के किनारे की तरफ
आँच से झुलसी, सिमटी-सी नदी
पालती है सूखी भैंस-बकरियों का पेट
भूख से बौखलाया हुआ
एक घड़ियाल घात लगाकर बैठा है
आने वाले पंछी के लिये
भूख-प्यास-आँच का यह खेल
यहाँ हर दिन खेला जाता है
सूरज बुझे तो शायद यहाँ
युद्धविराम की घोषणा हो।

निरखू मछलियाँ पकड़ लाया है
दिन भर तपकर
जश्न की कोई बात मिली है आज
आज दावत होगी
हाँ, थोड़ा बुखार है उसे,
नहीं, ठीक हो जायेगा
ज्यादा चिंता की बात नहीं है
हाँ, दावत तो आज है ही
और हाँ, पण्डत से पूँछना
कि बारिश का कोई जोग बन रहा है क्या।


4 Comments

  1. बहुत खूब ... यहाँ वहां भटकती ... हकीकत की कठोर धरातल पे खड़ी लाजवाब रचना ...

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  2. कड़वा सच, नंगे शब्द और लाल हकीकत. जितनी सराहना की जाय कम है.

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  3. सुन्दर अभिव्यक्ति ,आभार।

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  4. बहुत ही खूबसूरत रचना ! बहुत खूब आदरणीय ।

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