फागुन के किसी एक दिन
खेत में खड़ी अनगिनत
गेहूँ की बालियों में से
गेहूँ की एक बाली
अपनी सृजन क्षमता को जान बैठी
उसने जाना कि वह एक सर्जक है
सैकड़ों नए पौधों की
सैकड़ों नयी पीढ़ियों की
बस फिर क्या था
गेहूँ की उस बाली ने
सूखकर पकने से
साफ़ इंकार कर दिया
खेत में वो अकेली बाली
अभी तक हरी खड़ी थी।

सबकी समझ से बाहर
यह एक नयी समस्या थी
गाँव के कुछ समझदार लोगों को बुलाया गया
खेत के खेत
एक साथ पकने देख के आदी
उनकी समझ में भी नहीं आया
कि यह अकेली बाली
विद्रोह पर क्यों उतारू है
खाद मिटटी पानी हवा
कमी किस चीज में हुई आखिर
इस डर से
कि कहीं अन्य बालियाँ भी
इसी रास्ते पर न चल उठें
उस बाली को बाकी बालियों के साथ
काटने का आदेश दे दिया गया।

हंसिया चलती रही
गेहूँ की वह बाली चिल्लाती रही -
मैं सर्जक हूँ
मैं सृजन का कारक हूँ
मैं सकल विश्व की रचना का
एक क्षुद्र मापक हूँ
मैं ब्रह्मा हूँ
एक छोटी भावी सृष्टि का
मैं अधिनायक हूँ
मैं जीव मात्र में जीवन का संचालक हूँ
मैं जीवन का संचायक हूँ;
अंत में वह बाली भी
कट कर धरती पर आ गिरी
और झोंक दी गई
किन्हीं जरूरतों में
चुपचाप खप जाने के लिए।


बहुत वर्ष पहले विविध भारती के एक कार्यक्रम में प्रस्तोता ने गुलज़ार की तारीफ करते हुए उनके बारे में कहा था कि गुलज़ार की कविताओं में बहुत सारे शब्द ऐसे हैं जो कि एकदम काव्यात्मक नहीं लगते हैं, अगर पारम्परिक दृष्टि से देखा जाये तो, लेकिन उन शब्दों को भी गुलज़ार ने क्या खूबी से कविताओं में पिरोया है। इस घटना के बहुत दिनों बाद जब गुलज़ार की लिखा हुआ नज़्मों का संग्रह पुखराज पढ़ने का मिला तो वो विविध भारती के पुराने दिन फिर से ताज़ा हो गए जब ‘गीला मन शायद, बिस्तर के पास पडा हो … एक सौ सोलह चाँद की रातें’, ‘दिल ढूंढता है फिर वही फ़ुर्सत के रात दिन’ या ‘तुझसे नाराज़ नहीं ज़िन्दगी’ जैसे सदाबहार गाने सुने जाते थे। वैसे तो गुलज़ार की बहुमुखी प्रतिभा को सिर्फ अकाव्यात्मक शब्दों का प्रयोग करने के लिए ही नहीं जाना जाता, फिर भी यह उनकी विशेष कला है। और प्रस्तुतकर्ता ने उदारहरण के लिए जो गाना सुनाया था वो आँधी फिल्म का किशोर कुमार और लता मंगेशकर का गाया हुआ गाना था -
इस मोड़ से जाते हैं कुछ सुस्त-क़दम रस्ते, कुछ तेज़-क़दम राहें
पत्थर की हवेली को, शीशे के घरौंदों में, तिनकों के नशेमन तक
इस मोड़ से जाते हैं कुछ सुस्त-क़दम रस्ते, कुछ तेज़-क़दम राहें

'pukhraj' by gulzar
गुलज़ार की नज़्मों में एक बात महत्वपूर्ण रूप से उभर कर आती है और वो है उनका प्रकृति के विभिन्न किरदारों का प्रयोग। रात, सुबह, शाम, दरख़्त, चाँद, धूप, सूरज, मौसम, घर और आँख इत्यादि का नज़्मों में जमकर प्रयोग किया गया है। जैसे इन सभी किरदारों को विभिन्न तरह से कुछ पेश करने को कहा गया हो और यह ज़िम्मेदारी इन्होंने सहर्ष स्वीकार की हो। और प्रकृति के इन आयामों की खूबियों या कमियों का इस्तेमाल करके मानसिक परिस्थितियों को अभिव्यक्त किया गया है । मिसाल के लिए एक नज़्म का टुकड़ा पेश करता हूँ-
एक और सफ्हे पे यूं लिखा है :
"कभी कभी रात की सियाही,
कुछ ऐसी चेहरे पे जम सी जाती हैं
लाख रगड़ूं,
सहर के पानी से लाख धोऊं
मगर वो कालख नहीं उतरती !
मिलोगी जब तुम पता चलेगा
मैं और भी काला हो गया हूँ"
ये हाशिए में लिखा हुआ है :
"मैं धूप में जल के इतना काला नहीं हुआ था
कि जितना इस रात में सुलग के सियाह हुआ हूँ"

मानवीय रिश्तों में एक दुसरे की महत्ता को गुलज़ार ने स्वीकारा है। कई नज़्मों में उन्होंने अपनी नज़्मों को ही अपना सहारा माना है या नज़्मों को शायर का सहारा मांगते हुए दिखाया है। शायद एक दूसरे के साथ बहुत दिनों तक समय व्यतीत करते हुए दोनों एक दूसरे के सुख दुःख के साथी हो गए हैं। रिश्तों पर लिखते हुए गुलज़ार ने प्रेमी-प्रेमिका पर तो लिखा ही है , साथ ही साथ बेटी, माँ पर भी लिखा है। घर के किसी भुला दिए गए सदस्य की याद में गुलज़ार लिखते हैं -
और कई साल के बाद
मेरे माली ने उसे खोद निकाला है ज़मीन से
सारे बगीचे में फैली हुई निकली हैं जड़ें,
बरसों पाले हुए रिश्ते की तरह
जिसकी शाखें तो हरी रहतीं हैं,लेकिन
उस पर,फूल फल आते नहीं

गुलज़ार की नज़्में आदमी के अकेलेपन की साथी होती हैं। और शायद ये नज़्में महफ़िलों में सुनाने के लिए नहीं हैं। रात को जब तन्हा चाँद को देखते हुए कुछ समय गुज़र जाता है तो अनायास ही गुलज़ार की चाँद पर लिखी गयी अनगिनत नज़्मों में से कोई एक याद आ जाती है। ऐसा होना भी चाहिए क्योंकि चाँद गुलज़ार के पसंदीदा प्रतीकों में से एक रहा है । और जब चाँद की बात हुई तो रात की बात होना भी लाज़मी है क्योंकि दोनों एक दूसरे के साथ ही रहते हैं और एक दूसरे के बिना शायद दोनों के गुण उभर कर सामने न आ सकें।
खिड़कियाँ बंद है दीवारों के सीने तंडे
पीठ फेरे हुए दरवाज़ों के चेहरे चुप हैं
मेज कुर्सी हैं कि खामोशी के धब्बे जैसे
फर्श मे दफ़्न हैं सब आहटें सारे दिन की
सारे माहौल पे ताले-से पड़े हैं चुप के

तेरी आवाज़ की इक बूँद जो मिल जाए कहीं
आख़िरी साँसों पे है रात- ये बच जायेगी

गुलज़ार ने सरल उर्दू का प्रयोग किया है। कुछ शब्द मुश्किल लग सकते हैं जिनके मानी एक बार में शायद समझ में न आएं जिसके लिए पुस्तक के अंत में शब्दार्थ का कोना दिया गया है। शब्दों से ज्यादा गुलज़ार का ज़ोर विचारों पर रहा है और नज़्मों की आखिरी पंक्तियों में गुलज़ार गहरी बातें कह जाते हैं। उदाहरण के लिए -
साँस की कँपकंपी नहीं जाती
जख्म भरते नहीं आँखों के
दर्द के एक-एक रेशे को
खींच कर यूँ उधेड़ता है दिल
जिस्म की एडियों से छोटी तक
तार-सा इक निकलता जाता है
चीख़ भींचे हुए हूँ दाँतों में

तुमने भेजा तो है सहेली को
जिस्म के ज़ख़्म देख जाएगी
रूह का दर्द कौन देखेगा?