Anthem is a dystopian novella which describes a future society characterized by irrationality and collectivism. Dystopian fiction can be broadly defined as the creation of an utterly horrible or degraded society that is generally headed to an irreversible oblivion. Dystopia is defined as a society characterized by a focus on mass poverty, squalor, suffering, or oppression, that society has most often brought upon itself. (according to : "Apocalyptic Literature". Bloomsbury Publishing Ltd. 1993.) Collectivism emphasizes on the interdependence of human race on each other and supremacy of collective will rather than individual thoughts or ideas. To give a loose example of collectivism, let us take the example of representative democracy. In any parliamentary democracy, that party is selected to govern a country which has got majority votes. For all those who did not vote for that party, even they have to accept the government thus selected. So the individual support or opposition is not given importance but collective will of people decides the government.

Anthem by Ayn Rand
Anthem was written by Ayn Rand before her masterpieces 'The Fountainhead' and 'Atlas Shrugged'. Anthem was not a commercial success compared to her later works which established Ayn Rand as one of the leading flag bearers of objectivism and capitalism. Written in the background of communist Russia in which she grew and later left, this novella portrays her intense dislike for the collectivism and communism. This pattern can be seen in her other works too. In particular, this work was assumed too much reactionary by leftist intellectuals. Anthem is a miniature version of Rand’s philosophy.

The whole story of Anthem revolves around two characters, Equality 7-2521 and Liberty 5-3000. The two were raised in government(or whatever the existing regime may be called) homes and after their education, they were assigned by Council of Vocations to different jobs, Equality 7-2521 to Home of the Street Sweepers. One fine day, he finds a secret entrance to a subway tunnel and in that tunnel, he starts doing scientific experiments. He discovers electricity which did not exist in the society in which Anthem was set up. When he shows his work, Council disapproves of it because they think that it may endanger the equilibrium. Dejected, Equality 7-2521 leaves for the Uncharted Forests and is followed by Liberty 5-3000. There they discover the true potential of an individual and live with what they call freedom.

The set up of society in Anthem is simplistic compared to other dystopian novels such as '1984' by George Orwell. One can easily think that author tried to draw a parallel with communist regimes and exaggerate things a little bit to give her message loud and clear, that individualism, not collectivism, is the only feasible social system. The use of words like "I", "Me", "Ego" were punishable by death. In fact, doing anything not in knowledge of The Council was a sin. All things like the type of education and jobs were decided by a council, which took decisions based on the larger interest of society, again questionable because there were no fixed criteria to decide that.

The main characters were voices of rebellion against the system. It is not clear how far they could take the opposition but what author successfully showed is the desire of a person to live life in his own way. The way author describes the discovery of electricity in her work is a good description of how something new is looked down with scepticism in the society. The author did a nice job in keeping the story short and to the point.
Overall not a book to start and finish. It is recommended for those who like to know the philosophical school of thoughts and those who want to know about life in closed and isolated countries. 

Quotes from Anthem:
  1. "I know not if this earth on which I stand is the core of the universe or if it is but a speck of dust lost in eternity. I know not and I care not. For I know what happiness is possible to me on earth. And my happiness needs no higher aim to vindicate it. My happiness is not the means to any end. It is the end. It is its own goal. It is its own purpose."
  2. "The secrets of this earth are not for all men to see, but only for those who will seek them (page. 52)."
  3. "I stand here on the summit of the mountain. I lift my head and I spread my arms. This, my body and spirit, this is the end of the quest. I wished to know the meaning of all things. I am the meaning. I wished to find a warrant for being. I need no warrant for being and no word of sanction upon my being. I am the warrant and the sanction. Neither am I the means to any end others may wish to accomplish. I am not a tool for their use. I am not a servant of their needs. I am not a sacrifice on their altars."
  4. "I am neither foe nor friend to my brothers, but such as each of them shall deserve of me. And to earn my love, my brothers must do more than to have been born. I do not grant my love without reason, nor to any chance passer-by who may wish to claim it. I honor men with my love. But honor is a thing to be earned."


अगर भारतीय राजनीति में कोई ऐसा व्यक्ति हुआ है जिसके स्वभाव, भाषण शैली के लोग दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कायल रहे हैं तो एक ही नाम याद आता है - अटल बिहारी वाजपेयी। भारतीय राजनीति के वट वृक्ष के नाम से जाने जाने वाले अटलजी ने अपना पूरा जीवन देश की सेवा में समर्पित कर दिया था। एक राजनैतिक दल को छोटी सी पार्टी से द्विध्रुवीय परिदृश्य में एक मुख्य धुरी के रूप में स्थापित किया और जब समय आया तो उन्होंने देश का नेतृत्व भी किया। नैसर्गिक प्रतिभा के धनी अटलजी की कवितायें और उनके भाषण बहुत जोशीले हुआ करते थे। हालाँकि राजनैतिक जीवन की व्यस्तता में उनका कविता लेखन और कविता पाठ दोनों ही कम हो गया था लेकिन जब भी अवसर मिला उन्होंने सस्वर कविता पाठ किया। ऐसी ही उनकी एक कविता थी, 'एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते, पर स्वतंत्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा', जिसका सस्वर पाठ अविस्मरणीय रहेगा। 

किसी भी परिस्थिति से इतनी आसानी से हार मान लेना उनका स्वभाव नहीं था। उनके जीवन की ऐसी ही एक घटना याद आती है। जब दिल्ली में नया बाँस में नयी म्यूनिसीपल कॉर्पोरेशन बनी थी और उसके उपचुनाव हुए थे तो उसमें अटल जी और आडवाणी जी ने बहुत मेहनत की थी। यह अजमेरी गेट के भाजपा कार्यालय के पास में स्थित था। और इतना काम करने के बाद जब चुनाव के परिणाम आए तो उसमें उनकी पार्टी म्यूनिसीपालिटी का चुनाव भी हार गयी। तो वो ऐसा परेशान हुए, ऐसा दुखी हुए कि उन्होंने कहा कि ये ठीक नहीं हुआ भाई, चलो अब तो हम ग़लत कर आए, चलो कोई पिक्चर देख के आते हैं। पिक्चर देखने का फ़ैसला हुआ तो पास होने के कारण पहाड़गंज में इंपीरीयल थियेटर में बिना पिक्चर का नाम देखे अंदर चले गये। और जब पिक्चर शुरू हुई तो पता चला कि पिक्चर का नाम 'फिर सुबह होगी' है। 'फ्योदोर डॉस्टोव्स्की' के प्रसिद्ध उपन्यास 'क्राइम आंड पनिशमेंट' पर आधारित यह फिल्म अटल जी के जीवन में एक विशेष स्थान रखती है। और बहुत साल बाद सुबह हुई, जब अटल जी का परिश्रम और उनका विश्वास रंग लाया और उन्होने प्रधानमंत्री पद की कुर्सी संभाली। आडवाणी जी ने ये किस्सा तब सुनाया था, जब 1998 में जब सरकार ने शपथ ले ली थी।

संसद में जोशीले और चुटीले अंदाज में उनके भाषण हमेशा याद किए जाएँगे। उनकी वाक्पटुता देखने के लिए सद्स्य संसद भवन में अपना नाश्ता खाना छोड़ के संसद कक्ष में चले जाते थे। उनके कुछ किस्से जो हमेशा याद रहेंगे, उनका जिक्र करता हूँ। पाकिस्तान से दोस्ती के सन्दर्भ में एक बार जब उनसे पूछा गया तो उन्होने कहा, "पडोसी कहते हैं कि एक हाथ से ताली नहीं बज सकती, हम कहते हैं कि चुटकी तो बज सकती है।" एक बार किसी चुनावी रैली में जब उनको फूलों का हार पहनाया गया तो उन्होंने कहा कि, " मैं यहाँ 'हार' नहीं, जीत लेने आया हूँ।" एक बार चर्चा के समय इंदिरा जी ने अटल जी के बारे में कहा कि वो हिटलर की तरह भाषण देते हैं और हाथ लहरा-लहरा कर अपनी बात रखते हैं। हाजिर जवाब अटल जी ने तुरंत कहा, "इंदिरा जी हाथ हिलाकर तो सभी भाषण देते हैं , क्या कभी आपने किसी को पैर हिलाकर भाषण देते हुए सुना है?" ऐसे ही एक बार सदन में चर्चा के समय रामविलास पासवान ने कहा, "ये भाजपा राम राम की बहुत बातें करती है, पर उनमें कोई राम नहीं है, मेरा तो नाम ही राम है।" अटल जी ने तुरंत चुटकी ली, "रामविलास पासवान जी, हराम में भी राम आता है।" यूरिया घोटाले पर बोलते हुए अटल जी ने सरकारी संस्थाओं की भूमिकाओं पर ऊँगली उठाते हुए कहा था, "अगर पहरा देने वाला कुत्ता नहीं भौंकता है, तो यह मान लेना चाहिए कि वह कुत्ता भी चोरी में शामिल है।"

अटल जी का प्रधानमंत्री बनना भी कम रोचक घटना नहीं है। बात भारतीय जनता पार्टी के मुम्बई महाधिवेशन (11-13 नवम्बर, 1995) की है। यह वो समय था जब अडवाणी अयोध्या आंदोलन के फलस्वरूप अपने लोकप्रियता के चरम पर थे। अडवाणी ने अध्यक्षीय अभिभाषण देते हुए कहा, "हम लोग अगला चुनाव श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के नेतृत्व में लड़ेंगे और वे हमारी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। पिछले कई सालों से आम जनता कहती आ रही है, 'अगली बारी, अटल बिहारी।' मुझे पूरा भरोसा है कि अगली सरकार अटल जी के नेतृत्व में भाजपा की ही बनेगी।" उसके बाद मंच पर क्या हुआ, इसके लिए कंचन गुप्ता का 'द पायनियर' के लिए लिखा गया कॉलम उद्धृत करना उचित रहेगा -
"एक क्षण के वहाँ स्तब्ध मौन था। उसके बाद पूरा मंच तालियों कि गड़गड़ाहट से गूँज उठा। यह घोषणा अडवाणी के भाषण के अंत में हुई थी। यह सोचा समझा निर्णय नहीं था बल्कि एक भावनात्मक निर्णय था। उन्होंने बाद में मुझे बताया कि यह एक ऐतिहासिक क्षण था और जिसे घोषित करने के लिए वो कई वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे थे..... इसके पहले कि अडवाणी, जिनका भावनाओं में गला रुंध आया था , मंच में अपने स्थान पे पहुँच पाते, वाजपेयी उठे, माइक हाथ में लिया और अपने जाने पहचाने अंदाज में लम्बे अंतराल लेते हुए कहा, "बी जे पी चुनाव जीतेगी, हम सरकार बनाएंगे और अडवाणी जी प्रधानमंत्री बनेंगे।" अडवाणी ने कहा, "घोषणा हो चुकी है।" वाजपेयी ने हँसते हुए कहा, "तो फिर मैं भी घोषणा करता हूँ कि प्रधान मंत्री..... "  अडवाणी बीच में ही बोल उठे ,"अटलजी ही बनेंगे।" वाजपेयी ने कहा, "ये तो लखनवी अंदाज में पहले आप पहले आप हो रहा है।" एक पल के लिए दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा, दो पुराने सहकर्मी और नजदीकी दोस्त, जिन्होंने जन संघ को उसके बनने के बाद से और फिर बी जे पी को पाला पोसा, उनकी आँखों में आँसू आ गए थे। 1996 की ग्रीष्म ऋतु में अडवाणी की घोषणा सच साबित हुई। बी जे पी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। वाजपेयी को प्रधान मंत्री पद कि शपथ दिलाई गई.… इसके बाद सब इतिहास है। "
बाद में अटलजी ने अडवाणी से कहा भी, "क्या घोषणा कर दी आपने? कम से कम मुझसे तो बात करते।" इस पर अडवाणी ने उनसे कहा, "क्या आप मानते अगर हमने आपसे पूछा होता?" 

अटल बिहारी वाजपेयी
कविता पाठ करते हुए 

जब भी अटलजी के जीवन कि चर्चा की जायेगी तो उसमें पाकिस्तान के साथ की गयी उनकी वार्ता की कोशिशों का ज़िक्र ज़रूर आयेगा। उन्होंने पहली बार दिल्ली-लाहौर बस सेवा के साथ दोस्ती का सन्देश दिया। लेकिन उसके बाद छिड़े कारगिल युद्ध ने सारी कोशिशों पर पानी फेर दिया। अटलजी को यह बात थोडा अखर गयी थी। उन्होंने नवाज़ शरीफ को फ़ोन करके कहा भी था, "मिस्टर प्राइम मिनिस्टर, ये क्या हो रहा है ?" नवाज़ शरीफ ने ऐसी किसी भी घटना की जानकारी होने से मना कर दिया। उसके बाद जो हुआ उससे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत की साख और बढ़ गयी। भारत की नियंत्रण रेखा पार न करने के फैसले को सराहा गया। अटलजी ने एक बार फिर 2001 में कोशिश की थी जब उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ को वार्ता के लिए आगरा बुलाया था, जिसे आगरा शिखर सम्मलेन के नाम से जाना गया। कुछ कारणों से ये कोशिश भी परवान न चढ़ सकी। अटलजी की एक खास बात थी। वो गम्भीर परिस्थितियों में भी चुटीले संवादों के लिए जाने जाते थे। आगरा शिखर सम्मलेन की विफलता के बाद उन्होंने अडवाणी से कहा था ,"क्या करें। अतिथि भी अपने कर्मों से ही मिलता है।  हमारे कर्म ही ऐसे थे जो हमें ऐसे अतिथि मिले।"

आज अटलजी का स्वस्थ उतना अच्छा नहीं है। वो सक्रिय राजनीति में नहीं हैं। भारत की राजनैतिक क्षेत्र में उनकी कमी खलती है। उनकी कवितायेँ, उनके जोशीले भाषण आज मीडिया में सुनाई नहीं पड़ते, अख़बारों में नहीं छपते। लेकिन भारतीय राजनीति का ज़िक्र उनके बिना सदैव अधूरा रहेगा। 


बंद कमरे की हवा भी
बहुत अजीब होती है
इसके पास दुनिया की
आख़िर कौन सी
सुख-सुविधा नहीं है
आयातित खुश्बुओं से
इसे सुगंधित किया जाता है
वातानुकूलक से इसे शीतल रखा जाता है
दिन रात चलते पंखे
इसके अकेलेपन को चीरते रहते हैं
ये बाहर की सर्दी, गर्मी,
बारिश, लू के थपेड़ों से,
आवारा आँधी तूफ़ानों से
बच के रहती है।

फिर भी ना जाने
क्या कमी सी रह गयी है
बंद कमरे की हवा का
बंद कमरे में मन लगता ही नहीं;
पारदर्शी खिड़कियों से
जब देखो तब
बाहर निहारा करती है,
बार बार पर्दे खोलकर
कमरे के बाहर के नज़ारे लिया करती है,
अफवाहें तो कुछ ऐसी भी थी कि
बंद कमरे की हवा
बाहर की खुली हवा से
दरवाजे के नीचे से छुप छुप के
बातें भी करती थी।

कमरे का माहौल ही कुछ ऐसा था,
दीवारों पर टँगे हुए मूक चित्रों से,
या नीरस जलते हुए बिजली के लट्टुओं से;
गंभीरता की हदें पार करते झाड़-फानूसों से,
या मेज के एकटक घूरते हुए नकली फूलों से;
बंद कमरे की हवा बात करे भी तो किससे
आख़िर कमरे के अन्य निवासियों में
बाहर की दुनिया देखी भी थी तो किसने?

जब कभी दरवाजा ज़रा भी खुलता था
तो बंद कमरे की हवा
लपक कर निकल उठती थी;
दोगुने उत्साह से
बाहर की खुली हवा से
गले मिलती थी
ऐसे लगता था जैसे
इसकी सदियों की मुराद
आज पूरी हो गयी हो
और मन बरबस कह उठता था
पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।


Swami Vivekananda in Cossipore (Varanasi), 1886
Swami Vivekananda in Cossipore in 1886.
A sannyasin understands no boundaries. No boundaries of land, religion, language or age, for a sannyasin has to live for the humanity and his message is to be heard across all man-made boundaries. Swami Vivekananda was one such sannyasin, who proved to be a prodigy in his childhood. 

In 1890, Narendra started the long journey. He traveled throughout India. He went to Cassipore (later Varanasi), Ayodhya, Agra, Vrindavan and Alwar to name a few places. At Mount Abu, he met Raja Ajit Singh of Khetri who became his supporter and follower. It is believed Raja of Khetri gave him the name Vivekananda. Swami Tathagatananda, a senior monk of the Ramakrishna Order, wrote of their relationship:
"... Vivekananda's friendship with Maharaja Ajit Singh of Khetri was enacted against the backdrop of Khetri, a sanctified town in Northern Rajasthan, characterized by its long heroic history and independent spirit. Destiny brought Swamiji and Ajit Singh together on 4 June 1891 at Mount Abu, where their friendship gradually developed through their mutual interest in significant spiritual and secular topics. The friendship intensified when they travelled to Khetri and it became clear that theirs was the most sacred friendship, that of a Guru and his disciple."
Swamiji traveled India intensively. Swamiji tasted the riches and poor of India. He saw a great social imbalance and menace of casteism. During these wanderings, he came to know that the weak points of the nation were poverty, casteism, neglect of the masses, oppression of women and a faulty system of education. How was India to be regenerated? He came to the conclusion:
"We have to give back to the nation its lost individuality and raise the masses. [. . .] Again, the force to raise them must come from inside." ('Complete Works', vol. VI, p. 255).
In principle, it can be said that four major factors influenced Swamiji's life:
1. India was being ruled by Britain at that time and was undergoing cultural revival. Swamiji said about that "A few hundred, modernized, half-educated, and denationalized men are all that there is to show of modern English India – nothing else" ('Complete Works', vol. VIII, p. 476). He wanted modern education to be given to Indian children.


2. Ramakrishna had a deep influence on him. In Swami Vivekananda’s estimation, his Master fully harmonized the intellectual, emotional, ethical and spiritual elements of a human being and was the role model for the future.


3. Swami Vivekananda’s family also provided a strong moral and cultural foundation to his life. Due in great part to his upbringing, his tastes were eclectic and his interests wide. 
4. Equally important, if not more so, was the Swami’s knowledge of India based on his first-hand experiences acquired during his wanderings throughout the country. These pilgrimages transformed him. (by 'Swami Prabhananda')


See other posts in this series:
  1. Swami Vivekananda's Childhood : The Stories 
  2. Swami Vivekananda's Childhood : With His Guru Ramakrishna Paramahamsa
Also read:


Ramakrishna Paramahamsa of Dakshineswar
Swami Vivekananda



(Image Ramakrishna Paramahamsa and Swami Vivekananda.)


Narendra (Vivekananda's childhood name) was greatly influenced by Herbert Spencer and translated his book Education (1861) into Bengali. When Narendra joined Scottish Church College, Dr. William Hastie, Principal of the college said about him, "Narendra is really a genius. I have traveled far and wide but I have never come across a lad of his talents and possibilities, even in German universities, among philosophical students." Narendra first heard about Ramakrishna Paramahamsa, the sage of Dakshineswar, from Dr. William Hastie, who told him, "Such an experience is the result of purity of mind and concentration on some particular object, and is rare indeed, particularly in these days. I have seen only one person who has experienced that blessed state of mind, and he is Ramakrishna Paramahamsa of Dakshineswar. You can understand if you go there and see for yourself."

This meeting with Ramakrishna proved a turning point in his life. Later Swamiji remembered his first meeting with Ramakrishna:
"He [Sri Ramakrishna] looked just like an ordinary man, with nothing remarkable about him. He used the most simple language and I thought 'Can this man be a great teacher?' – I crept near to him and asked him the question which I had been asking others all my life: 'Do you believe in God, Sir?' 'Yes,' he replied. 'Can you prove it, Sir?' 'Yes.' 'How?' 'Because I see Him just as I see you here, only in a much intenser sense.' That impressed me at once. [. . .] I began to go to that man, day after day, and I actually saw that religion could be given. One touch, one glance, can change a whole life." ('Complete Works', vol. IV, p. 179)

Later Ramakrishna recounted his experience with Narendra:
"I put several questions to him while he was in that state. I asked him about his antecedents, and where he lived, his mission in this world and the duration of his mortal life. He gave fitting answers after diving deep into himself. The answers only confirmed what I had seen and inferred about him, These things shall remain a secret, but I came to know that he was a sage who had attained perfection, a past master in meditation, and the day he know his real nature, he will give up the body by an act of will, through Yoga."
Ramakrishna’s life was one of spiritual experience and achievement. He also discovered some truths of great social significance. About that Ramakrishna said:
"I have practiced all religions – Hinduism, Islam, Christianity – and I have also followed the paths of the different Hindu sects. I have found that it is the same God toward whom all are directing their steps, though along different paths." ('Gospel', 35)

Ramakrishna was not very educated and spoke in a rural dialect but he had tremendous spiritual knowledge. Once he said:
"No one believes in God. If anyone believes in God, then he does not believe in omnipresence, omnipotence and pricelessness of God. Imagine what happens when you come to know that the adjoining room has few kilograms of gold. You become restless. You start planning ways to get that gold. You do that because you know that the gold has huge power. Then you say that God is present everywhere, He has enormous power and still you do not try to reach him. Why?"

Narendra's life became very difficult after his father died in 1884. He family was suffering from poverty and the sole earning person passed away. Difficulties struck down on Narendra. Even during these times, he believed in God and his divine mercy. One day his mother overheard him doing prayers and said, "You fool! you pray every day, but your God has done nothing." Taken aback by this, Narendra began doubting God's existence. One day, when he was returning home after an exhausting day, he stopped due to rain at a roadside shelter. Too many thoughts crossed his mind. Then he felt that the layers of his soul are being removed one by one. All his doubts, regarding the existence of most benevolent and merciful One, were fading away. In that moment, he decided that he will renounce the materialist world and become a monk. He told the same to Ramakrishna. Ramakrishna knew that this was going to happen and he would not be able to stop him, but Ramakrishna persuaded Narendra not to leave the material world until he himself lived. Sri Ramakrishna passed away in 1886 and anointed Narendra as his successor. After his death Narendra and a core group of Ramakrishna's disciples took vows to become monks and renounce everything and started living in a supposedly haunted house in Baranagore.


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