क्रीमिया को रूस में शामिल करने के बाद पुतिन के हौसले बुलंद हैं। कल शाम रुसी राष्ट्रपति के आधिकारिक आवास क्रेमलिन में बुलाई गई सुरक्षा अधिकारियों की बैठक में पुतिन का एक अलग ही रूप देखने को मिला। सामान्यतः अपने कड़क मिज़ाज के लिए पहचाने जाने वाले पुतिन आज बहुत भावुक थे। कमरे में लगी हुई ज़ार पीटर महान की फोटो को निहारते हुए कहा कि अगर आज पीटर जी जीवित होते तो कितने खुश और गर्वान्वित होते। हमने उनकी मेहनत से बनाए गये रूसी साम्राज्य को फिर से जोड़ने की तरफ पहला कदम बढ़ाया है। निकिता ख्रुसचेव ने क्रीमिया को यूक्रेन को देकर बहुत बड़ी ग़लती की थी, आज हमने उस ग़लती को सुधार लिया है। किसी अधिकारी ने कहा, "लेकिन सर आपने रूसी लोगों के हितों वाला दाँव बहुत मस्त चला था।" पुतिन ने हल्की मुस्कराहट के साथ स्वीकार किया। अधिकारियों से मुखातिब होते हुए कहा कि अब हमारा अगला लक्ष्य अलास्का है। हमारे पूर्वजों ने इसे अमेरिका को औने पौने दाम पर बेच कर जो ग़लती की है, उसको भी सुधारना पड़ेगा। इस बार हम अलास्का चीन को बाज़ार भाव पर देंगे। 

इधर संयुक्त राज्य अमेरिका दादागिरी में रूस से पिछड़ने पर बहुत शर्मिंदा है। राष्ट्रपति ओबामा ने जर्मन चांसलर मर्कल को फोन करके कहा कि अब आप ही पुतिन से बात कीजिये और रूस को समझाइये। ओबमा के स्टाफ ने पूर्व में ना जाने कितनी बार की गई दादागिरी का उदाहरण दिया मसलन विएतनाम, इराक़, अफ़ग़ानिस्तान, लीबिया इत्यादि इत्यादि लेकिन ओबामा इस बार पिछड़ने पर अब तक सदमे से बाहर नहीं आ पा रहे हैं। ओबामा ने आदेश दिया कि संयुक्त राष्ट्र में अमेरिका के राजदूत को बुलाया जाए। दूत हाज़िर हुआ। दूत से कहा गया कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में क़ानून पारित करवाया जाए कि जनमत संग्रह दादागिरी का उचित आधार नहीं है और आज के बाद से किसी भी दादागिरी पर उचित अनुचित का अंतिम फ़ैसला अमेरिका का ही रहेगा। जब राजदूत ने कहा कि इस प्रस्ताव को रूस वीटो कर देगा तो ओबामा ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने की धमकी दी। अर्जेंटीना ने ऐसे किसी प्रस्ताव की भनक लगते ही कहा कि क्रीमिया और फाल्कन द्वीप समूह के लिए अलग अलग मानक क्यूँ। आखिर फाल्कन द्वीप समूह पर कब्ज़ा करने का अधिकार भी तो एक जनमत संग्रह के द्वारा ही सही ठहराया गया था। जवाब में ओबामा ने अर्जेंटीना की राष्ट्रपति (या राष्ट्रपत्नी ) किर्चनेर से कहा, "आपके पास एटम बम है?"
किर्चनेर ने कहा, "नहीं।"
ओबामा ने कहा , "सख्त आर्थिक प्रतिबन्ध झेलने लायक अर्थव्यवस्था है?"
किर्चनेर ने कहा, "नहीं।"
ओबामा ने कहा, "तो जाइये, हम आपकी बात नहीं सुनेंगे।"

यूक्रेन के सत्तापलट करने वाले राष्ट्रपति अपने सलाहकारों के बीच बैठे रुसी वोडका के शॉट पे शॉट लगा रहे हैं। साथ ही सबको चेताया भी रुसी वोडका वाली बात बाहर नहीं जानी चाहिए। अबसे जनता को जैक डेनियल और क्राउन रॉयल व्हिस्की के साथ अन्य पश्चिमी पेयों के लिए प्रोत्साहित किया जायेगा। किसी ने शराब के नशे में अपने दिल की बात कह दी, "सर, चुनाव जीत कर राष्ट्रपति बनना ज्यादा मुश्किल होता। अच्छा किया जो विरोध प्रदर्शन के जरिये ही राष्ट्रपति बन बैठे। वैसे आपने सोचा है कि अगर दो महीने बाद चुनावों में जीत नहीं मिली तो क्या किया जायेगा?"  राष्ट्रपति ने हँसते हुए कहा ,"तो हम रूस पर हस्तक्षेप का आरोप लगाकर दोबारा विरोध प्रदर्शन शुरू कर देंगे। आखिर इजिप्ट में भी तो प्रदर्शनकारियों की भीड़ ने चुनी हुई सरकार बदल के दिखा दिया है कि ऐसा करना सम्भव है। इस बारे में अमेरिका और यूरोपीय यूनियन से बात हो गई है और उन्होंने पूरे समर्थन का वादा किया है।"

इस बीच अपने देश में जनमत संग्रह के आधार पर देश बदलने की नयी अर्जियां आयी हैं। नेपाल ने दार्जीलिंग में नेपाली भाषा बोलने वाले लोगों को दोबारा सहायता का भरोसा दिलाया है। फिजी और मॉरिशस की भोजपुरी भाषी जनता ने जनमत संग्रह की मांग की है और कहा है कि उस जनमत संग्रह के आधार पर भारत में उनके विलय का फैसला होना चाहिए। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस मुद्दे पर जोर शोर से बोलते हुए कहा है कि केंद्र सरकार को वहाँ के लोगों की सहायता करनी चाहिये। विलय में देरी के लिए हमेशा की तरह केंद्र सरकार को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि यदि हमारी सरकार बनेगी तो हम सौ दिन के अंदर उन देशों को भारत का भाग बना देंगे। इधर इस मुद्दे पर खुद को नीतीश से पिछड़ता हुआ देखकर लालू ने भोजपुरी भाषी लोगों के लिए समर्थन जुटाने के उद्देश्य से अगले रविवार को पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में महा रैला की घोषणा की है।


(आपने हरिशंकर परसाई जी की रचना भेड़ और भेड़िये अवश्य पढ़ी होगी। अगर नहीं पढ़ी तो जरुर पढ़ें। प्रस्तुत कहानी उसी जंगल में चालीस साल बाद घटे घटनाक्रम पर आधारित है और परसाई जी की रचना के पात्रों ने प्रस्तुत कहानी में अपना योगदान देने से मना नहीं किया जिसके लिए हम उनके आभारी हैं। )

चालीस साल बाद जब भेड़ों को दिखने लगा कि भेड़ियों का जीवन दिन प्रतिदिन सुविधाओं से भरपूर होता जा रहा है और उनको बिना कुछ किये रोज आहार के लिए पौष्टिक भेड़ें मिल रही हैं, तो उन्हें लगा कि जिस उद्देश्य से जंगल में पशुतंत्र की स्थापना हुई थी, वो रास्ते से भटक गया है। भेड़ियों को जंगल की सबसे अच्छी गुफाओं में रहने को मिल रहा है, जबकि भेड़ें अभी भी जंगल में सर्दी, गर्मी, बरसात से लड़ती रहती हैं। भेड़िये सामान्य दिनों में अपनी गुफाओं से बाहर निकलते ही नहीं थे, भेड़ों को ही अपनी समस्याओं को लेकर उनकी आलीशान गुफाओं में जाना पड़ता था। उन गुफाओं की साज-सजावट देखकर और वहाँ सेवा के लिए लगी हुई अनेक भेड़ों को देखकर उनकी आँखें आश्चर्यचकित रह जाती थीं। जबकि चुनाव आते ही ये भेड़िये भी पेड़ों के इर्द-गिर्द दस भेड़ों को सम्बोधित करते हुए दिख जाते थे।

चालीस साल तक ऐसा होता रहा और किसी भेड़ ने आवाज नहीं उठाई और अगर उठाई भी तो उसे ठिकाने लगा दिया गया। भेड़ों में असंतोष बढ़ता गया। बहुत दिनों के बाद जंगल के दूर दराज़ के इलाकों में खबर गई कि बूढ़े पीपल के पास एक भेड़, जो किसी दूर के जंगल से उच्च-शिक्षा ग्रहण करके आया है, भेड़ों को भेड़ियों के खिलाफ जागरूक कर रहा है। बूढ़ा पीपल एक तरह से जंगल की राजधानी हुआ करता था। जंगल के सारे बुद्धिजीवी पशु यहीं पर इकठ्ठा होकर सम-सामायिक विषयों पर चर्चा किया करते थे। उस पढ़े लिखे भेड़, जिसका नाम बुधई था, ने पूरे जंगल में घूम घूमकर भेड़ियों के खिलाफ भेड़ों को बताना शुरू किया और देखते ही देखते ही जंगल में एक लहर सी व्याप्त हो गई। इस अभियान में भेड़ों का नेतृत्व करने के लिए बुधई की अगुवाई में एक समिति का गठन किया गया जिसमें जंगल के विभिन्न क्षेत्रों के भेड़ों को प्रतिनिधित्व मिला। 

नियत समय पर समिति ने बूढ़े पीपल के पास एक विशाल विरोध प्रदर्शन का आयोजन किया, जिसमें भेड़ों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। भेड़ों से मिले समर्थन को देखकर अभिभूत होते हुए बुधई ने भेड़ों को सम्बोधित करना शुरू किया, "मित्रों! आज हमारे लिए बहुत बड़ा दिन है। आज हर एक भेड़ अपने अधिकारों के लिए जाग चुकी है। हम इन भेड़ियों को भेड़ों की असली ताकत दिखाकर रहेंगे। आज तक भेड़ियों ने जो भी सुविधाएं ली हैं उसके लिए जांचपाल नाम की एक संस्था बनाई जाये जो कि यह फैसला करेगी कि ये सुविधाएं वैध हैं या अवैध। बस यही हमारी मांग हैं। और हम यह मांग मनवाकर रहेंगे।"  भेड़ों ने एक स्वर में क्रन्तिकारी नारे लगाकर अपनी हामी भरी। 

लेकिन इतना प्रयास करने के बाद भी भेड़ियों ने सिर्फ आश्वासन दिया और कोई ठोस प्रगति नहीं हुई। इससे समिति के सदस्यों में रोष व्याप्त हो गया और उन्होंने दोबारा विरोध प्रदर्शन का आयोजन करने की घोषणा की। इस बार भी पहले की तरह भेड़ों का व्यापक समर्थन मिला लेकिन इस बार भी भेड़िये टस से मस नहीं हुए। जब समिति को लगा कि बार बार के विरोध प्रदर्शनों से कुछ नहीं होगा तो उन्होंने अगला चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी। बुधई ने भेड़ों से कहा, "एक आम भेड़ की आवाज कोई नहीं सुनता। इस जंगल की सारी समस्याओं की जड़ दो मुख्य भेड़िया दल, जंगलदेश और जंगल भेड़ पार्टी ('जे बी पी' ) हैं। हमें इनको उखाड़ फेंकना है। भेड़ियों को लगता है कि जांचपाल के आने के बाद उनके कारनामों की पोल खुल जायेगी इसीलिए वो यह मांग मानने को तैयार नहीं हैं लेकिन मित्रों जब जंगल की हर एक आम भेड़ जाग जायेगी तो हमें कोई रोक नहीं सकता। इस जंगल की समस्याएं तभी दूर होंगी जब एक ईमानदार भेड़ चुन कर जायेगी। आप हमें अपना बहुमूल्य मत दीजिये और हम आपको जांचपाल और भेड़राज देंगे।" बुधई ने जंगल के लिए जो नयी व्यवस्था सोची थी उसका नाम भेड़राज था और उसको विस्तार से बताने के लिए 'भेड़राज' नामक एक पुस्तक भी लिखी थी। जब नया दल बनाया गया तो उसका नाम रखा गया : 'आम भेड़ दल', जिसको संछेप में 'अभेद' नाम से जाना गया। जब किसी ने इंगित किया कि संछेप में उसे 'अभेद' नहीं बल्कि 'आभेद' नाम से जाना जायेगा तो उसे 'जे बी पी' का एजेंट बताकर चुप करा दिया गया। 

जैसे जैसे चुनाव नजदीक आता गया, अपने प्रचार के लिए समिति ने नए नए तरीके खोजने शुरू किये। सबसे पहले यह फैसला किया गया कि हर एक भेड़ अपने गले में एक पट्टा बांधेगी जिसपे लिखा होगा - "मैं हूँ आम भेड़।" जंगल के पशुओं को जंगल के हर एक कोने में 'अभेद' का सन्देश पहुंचाने का काम दिया गया। और स्वयं बुधई अपने समर्थकों और स्वयंसेवकों के साथ हर भेड़ के इलाके में पहुंचे और उनसे 'अभेद' के लिए मतदान करने का आग्रह किया। चुनाव हुआ और चुनाव में 'अभेद' थोड़े से अंतर से दूसरा सबसे बड़ा दल बनके उभरी। सबसे बड़े दल के सरकार बनाने से मना करने के बाद 'अभेद' से सरकार बनाने की अपेक्षा की जाने लगी। 'अभेद' की समिति ने सोचा कि चूँकि उन्होंने भेड़ों से पूँछकर ही सब काम करने का वादा किया था अतः उनकी राय ली जानी चाहिए। उन्होंने फैसला किया कि कल सुबह बूढ़े पीपल के आगे इस प्रस्ताव पर भेड़मत संग्रह किया जायेगा। जो भेड़ इससे सहमत हैं वो गुलाब का फूल लेकर आएंगी और जो इससे असहमत हैं वो चमेली का फूल लेकर आएंगी। उनका मानना था भेड़ें भेड़ियों से बहुत त्रस्त हैं इसलिए कभी उनके साथ जाने का समर्थन नहीं करेंगी। लेकिन परिणाम इससे ठीक विपरीत निकला। गुलाब के फूलों की संख्या चमेली के फूलों से कहीं ज्यादा निकली। 

इसके बाद बुधई ने मुख्य शाषक की शपथ ली। बुधई ने आते ही अपने लिए एक बड़ी गुफा की मांग की। जैसे ही भेड़ों को ये पता चला, हाहाकार मच गया। भेड़ों ने चुनाव के पहले और चुनाव के बाद के बुधई में काफी अंतर पाया। इतना होने के बाद बुधई ने कहा ,"मुझे पुरे जंगल का सञ्चालन करने के लिए एक गुफा तो चाहिए ही लेकिन आम भेड़ अगर इससे सहमत नहीं हैं तो मैं गुफा नहीं लूंगा, यहीं आपके बीच में रहूँगा।" बुधई के पद सँभालते ही लोग अपनी मांगो का पुलिंदा लेकर उसके पास पहुँचने लगे। बुधई ने घोषणा की भेड़ों को सप्ताह के पहले तीन दिन चारा मुफ्त में दिया जायेगा। भेड़ों को सरकारी तालाब से पीने के लिए कर चुकाना पड़ता है, अब से उन्हें दिन में सात लीटर पानी मुफ्त दिया जायेगा। चूँकि भेड़ों के बालों को काटने से उन्हें ठण्ड लगने की सम्भावना अधिक रहती है अतः आज के बाद से उनके बालों को काटने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया जायेगा।

ऐसे ही रोज रोज नयी शिकायतों और मांगो का अम्बार बुधई और उसकी सरकार के आगे आने लग गया। इसमें कुछ मांगे मान ली गई और कुछ पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने का आश्वासन दिया गया। इस बीच कुछ अप्रिय घटनाएं घटी जिससे भेड़ों में 'आम भेड़ दल' के बारे में गलत सन्देश गया। समिति ने फैसला किया इस जंगल में शाषन करते हुए बाकी जंगलों में हो रहे चुनावों में हिस्सा ले पाना सम्भव नहीं है। अतः सरकार छोड़ने का कोई तरीका खोजा जाए। यहाँ पर फिर जांचपाल 'आम भेड़ दल' के काम आया। सरकार में इतने दिन रहने के बाद भी भेड़ों को 'जांचपाल अधिनियम' के बारे में विस्तारपूर्वक नहीं बताया गया।  समिति ने फैसला किया जांचपाल के नाम से फिर से भेड़ों से मत माँगा जायेगा और इसी के नाम पर सरकार की बलि दे दी जाये। और 'अभेद' ने ठीक वैसा ही किया भी। भेड़ों ने जो एक बदलाव की उम्मीद देखी थी, वह उम्मीद धूमिल हो गयी। भेड़िये अपनी गुफाओं में जमे रहे। 

(लेखकीय टिप्पणी : भेड़ और भेड़ियों के संघर्ष की कहानी आगे भी जारी रहेगी। इस कहानी का वर्तमान राजनीतिक स्थिति से कोई सम्बन्ध नहीं है। अगर किसी को कोई सम्बन्ध लगता है तो उसे 'जे बी पी' का एजेंट कहा जायेगा। ) 


नदी तो चिरकाल से बह रही थी। न जाने कितनी पीढ़ियों को जीवन दिया है और न जाने आगे कितनी पीढ़ियाँ लाभान्वित होँगी। जब कभी नदी के पास जाकर कुछ देर बैठता हूँ तो ऐसा लगता है कि जैसे इसके पास बहुत सी कहानियाँ हों सुनाने के लिए, लेकिन सुने तो कौन? नदी को तो अकेले ही ऐसे बहना था। जैसे कई बार अपना भी मन बहुत सारी बातें करने का करता है, लेकिन कहें तो किससे कहें? इस मामले में हम और नदी एक दूसरे के साथी थे। नदी के किनारे इसके साथ साथ एकांत में कुछ दूर चलने पर ऐसा लगता था कि जैसे हम एक दूसरे के साथ सुख-दुख बाँट रहे हों। ऐसी कितनी ही यादें थी जो कि मैंने आज तक संजो कर रखी हुई हैं। इस नदी ने समय के साथ बहुत सारे बदलाव देखे हैं। और इस नदी की कहानी इसके किनारे बसे एक छोटे से गाँव के बारे में बताये बिना अधूरी रहेगी।

हाईवे की भागदौड़ भरी जिन्दगी से बहुत दूर यह एक ऐसी जगह थी जहाँ प्रवेश करते समय उबड़-खाबड़, ऊँची-नीची ज़मीन देखकर एक पल के लिए विश्वास ही नहीं होगा कि ये जगह उत्तर भारत के विशाल मैदानी भागों में स्थित है। अगल-बगल ऊसर क्षेत्र हैं, जहाँ वन विभाग के अथक प्रयासों के बाद भी कोई पेड़ सात-आठ फीट से ज्यादा नहीं बढ़ पाया और एक-दो इंच से ज्यादा चौड़ा नहीं हो पाया। लेकिन ये जगह भी स्थानीय झाड़ियों से भरी हुई थी जिनके लाल-पीले फूल काफी आकर्षित करते हैं। कुछ और ऊँची-नीची सडकों पर चलने के बाद पेड़ों के बीच में बसे हुए कुछ घर नजर आते हैं। ये घर उसी छोटे से गाँव का भाग हैं- एक ऐसा गाँव जो आज भी जीवन की तथाकथित मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है। दो तरफ से खेत इस गाँव को घेरे हुए हैं और ये खेत इस गाँव की दिनचर्या का अभिन्न अंग हैं। और इसी गाँव में कुछ दशक पहले मेरा जन्म हुआ था।

Gomti River

नदी के साथ मेरा पहला परिचय कब हुआ ये तो अच्छी तरह नहीं पता लेकिन इतना जरुर है कि बचपन में मेरा नदी के आसपास फटकना भी मना था। कुछ बड़े होने पर नदी के आसपास जाने लगा लेकिन नदी को स्पर्श कर पाने के लिए अभी और इंतज़ार करना था। और तब दूर से ही अथाह पानी को बहते हुए देखकर आश्चर्य होता था कि इतना पानी आता कहाँ से है और निरुद्येश्य बहते हुए कहाँ जायेगा। पर शायद उसे  निरुद्येश्य कहना मेरा बचकानापन था। बड़े होने पर पता चला था कि नदी तो जीवनदायिनी थी और लोगों का इस नदी के साथ अटूट सम्बन्ध है। गाँव के छप्पर बनाने से लेकर शादी-विवाह की रीतियाँ निभाने में नदी की महती भूमिका थी। किसी की भी शादी के पहले महिलाओं का समूह लोक संगीत गाते हुए नदी के किनारे जाता था, मानो नये वर-वधू के सुखमय जीवन के लिए नदी का आशीर्वाद लेना इतना जरुरी था। जब पहली बार नदी में उतरने का मौका मिला था तब मैं कितनी देर तक उछल-कूद करता रहा था। पहले दिन ही कितनी डुबकियाँ लगायी थी। मैं खूब तेज दौड़कर आता था और किनारे की खड़ी खाईं के ऊपर से नदी में कूदता था। कभी थकान का अनुभव हुआ हो ऐसा याद नहीं है। नदी की लहरें भी हमारे साथ खेलती थीं। आखिर कुछ देर के लिए ही सही लेकिन हम लोग की टोली नदी का एकांकीपन तो दूर कर ही देती थी। हमारा कभी भी नदी से निकलने का मन शायद ही करता था लेकिन अपने से बड़ों की ज़िद के आगे हमें झुकना पड़ता और नदी फिर अपने रास्ते बह चलती।

आज भी मुझे वो दृश्य अच्छी तरह से याद है जब दादी माँ ने हाथ से नदी की तरफ इशारा करते हुए कहा था, "ये गोमती माता हैं, इन्हें प्रणाम करो।" और मैंने दोनों हाथ जोड़कर गोमती नदी को प्रणाम किया था। जैसे जैसे हम लोग बड़े होते गये, नदी के साथ हमारा परिचय बढ़ता गया। अब तो हर दूसरे तीसरे दिन घर से इज़ाज़त मिल जाती थी नदी में नहाने के लिये। गाँव में एक ऊँचे स्थान पर एक मंदिर बना हुआ था। इस मंदिर से नदी की तरफ देखने पर सूर्य की किरणें आँखों को बेधने सी लगती। लेकिन चलती हुई नदी में परावर्तित किरणें ऐसे लगती थी जैसे कोई नवजात पालने में झूल रहा हो। नदी को ऐसे मंथर गति से बहते हुए देखकर एक क्षण के लिए ये भूल हो सकती है कि ये हमेशा से ऐसे ही बहती आई है। पर नदी हमेशा से ऐसे ही थोड़े रही है। कई बार नदी को गुस्सा भी आया है। आखिर नदी का स्वाभाव मनुष्य से बहुत अधिक अलग थोड़े ही है। इस क्रोध में नदी ने गाँव के निचले इलाकों में जीवन को बाधित भी किया है लेकिन ऐसा बहुत दिन तक न रहता और नदी अपने शान्तस्वरूप में जल्दी ही आ जाती थी।

नदी और मेरे जीवन में समानता यहीं समाप्त नहीं होती। नदी के स्रोत से समुद्र तक के सफ़र में और मानव जीवन में एक रुचिकर समानता दिखाई देती है। नदी अपने स्रोत से निकलने के बाद पहाड़ों के बीच ऐसे वेग से निकलती है और इसकी लहरें ऐसे हिलोरें लेती हैं जैसे कोई छोटा शरारती बच्चा दौड़-भाग कर रहा हो। मासूमियत से भरपूर इस दौर में भविष्य की चिंता नहीं होती। उसके बाद जब नदी मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती है तो उसके प्रवाह में कुछ कमी आ जाती है, जैसे बच्चों में बड़े होने पर कुछ गंभीरता आ जाती है। बचपन की तरह उछल-कूद अब नहीं होती। थोडा और सफ़र तय करने के बाद नदी की धारा और भी मंद पद जाती है, जैसे किसी वयस्क को जिम्मेदारियों के बोझ तले लाद दिया गया हो। और समुद्र से मिलने से पहले तो प्रवाह इतना मंद हो जाता है, कि उसकी धारा कई छोटे छोटे भागों में बँट जाती है, जैसे वृद्धावस्था में कोई मनुष्य अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा हो। और यह लड़ाई लड़ते लड़ते आखिरकार अस्तित्व समाप्त हो ही जाता है।

धीरे धीरे समय बीतता गया और मुझे आगे पढने के लिए शहर आना पड़ा। और इस नए जीवन में व्यस्तता में कुछ इतना बढ़ गयी कि नदी के साथ मेरी मुलाकात ख़त्म सी हो गयी। मिलना तो दूर अब नदी को याद किये गए भी कई दिन बीत जाते थे। जब कभी अचानक से नदी की याद आती थी मैं ख्यालों में खो जाता था कि नदी में अब भी पानी वैसे ही बहता होगा। लेकिन यह भी सोचता था कि नदी मेरे बिना कितना अकेला महसूस कर रही होगी। शहर की तेज रफ़्तार जिंदगी से दूर जाकर नदी के किनारे बैठकर लहरों को निहारने का मन करता था। एक साल के बाद जब गर्मी की छुट्टियाँ हुई तो मैं गाँव गया। शाम को वहाँ पहुँचते ही मैं नदी के पास पहुँच गया। लेकिन वहाँ जाकर दूसरा ही दृश्य देखने को मिलता है। नदी का जल-स्तर कम हो गया था और बीच-बीच में रेत के टीले बन गये थे। तब याद आया कि कुछ दिन पहले अख़बार में पढ़ा था कि नदी का पानी रोक कर लखनऊ में जलापूर्ति होती है। नदी में कम होती जल की मात्रा और बढ़ती जनसँख्या के साथ लोगों की बढ़ती जरूरतें नदी के लिए गले का फांस बन गई थी। मुझसे नदी की ये हालत देखी नहीं जा रही थी। हृदय विदीर्ण हो गया था। मैं वहां से चला आया। कुछ दिन और गाँव में रहने के बाद मैं वापस शहर आ गया।

उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए मुझे और दूर जाना पड़ा। नयी जगह और नए दोस्तों में मन कुछ ऐसा रम गया था कि और कुछ याद ही नहीं रहा। देर रात तक जगे रहना और सुबह देर से उठना अब आदत सी हो गई थी। इस दौरान दोस्तों के साथ बहुत सी नयी जगहों पर घूमने गया। इस सामाजिक जिंदगी का भी अपना ही मजा था। कॉलेज में ये साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। पढाई पूरी होने के बाद जब नौकरी लग गयी तो व्यस्तता अचानक से ही कुछ इतनी अधिक हो गई कि कुछ और करने के लिए समय ही नही मिलता था। घर से ऑफिस और ऑफिस से घर बस इतना सा जीवन रह गया था। घर में कुछ देर समय मिलने पर बुद्धू बक्से (कंप्यूटर) के आगे बैठ जाता था और उसी में समय बीत जाता था। सब कुछ इतना नीरस सा हो जायेगा ये नहीं सोचा था। चार-पाँच साल तक जिंदगी ऐसे ही चलती रही। बहुत दिन से इस माहौल से थोड़े समय के लिए निकलने का मन था और आखिरकार मैंने घर जाने के लिए छुट्टी ली।

छुट्टी मिलने पर कुछ दिन के लिए गाँव गया। इस बार बहुत दिन के बाद गाँव आना हुआ था। जब नदी को देखने को गया तो देखा कि जो पहले रेत के टीले कहीं कहीं पर थे वो अब बड़े होकर नदी के एक किनारे से लेकर नदी के बीच तक फैल गए थे। नदी दूसरे आधे हिस्से में सिमट कर रह गई गई थी। नदी के बीचों-बीच जहाँ पहले जहाँ पहले सीने तक पानी हुआ करता था वहाँ आज बिलकुल पानी नहीं था, सिर्फ बालू था। वहाँ  से कुछ दूर नदी सकुची-सिमटी सी बह रही थी। नदी का दम घुट रहा था। लोगों की उम्मीदों का बोझ उससे और नहीं सहा जा रह था। जैसे मेरे जीवन में नयेपन का अभाव था वैसे ही नदी भी बस चुपचाप जी रही थी। उस पल ऐसा लगा जैसे कि मेरे जीवन और नदी, दोनों का प्रवाह थम सा गया है।