आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के लिखे हुए ललित निबंधों का यह पहला संकलन है। बाद में चिन्तामणि का भाग 2 भी निकाला गया था जो आज शायद दुर्लभ पुस्तकों की श्रेणी में आ गया है। कहीं न कहीं इसके पीछे ललित निबंधों से सामान्य जनमानस की रूचि समाप्त सी हो जाना रहा है। मैं रामचन्द्र शुक्ल के ज़माने के बारे में प्रामाणिकता के साथ नहीं कह सकता लेकिन आज के समय में हिंदी ललित निबंध, समालोचना को समर्पित पत्रिकाओं में या फिर हिंदी समाचार पत्रों के साहित्यिक परिशिष्ट के किसी कोने में शोभायमान होते हैं। और जब इन सब कारणों के साथ शुक्ल जी के गहन मनोवैज्ञानिक निबंध पाठक का पूर्ण समर्पण माँगे तो ऐसे निबंध संकलनों के लिए पाठक मिलना मुश्किल हो जाता है। शायद इसीलिए चिन्तामणि-2 का मिल पाना आज थोड़ा मुश्किल हो गया है।
चिन्तामणि - 1 में पुस्तक के शुरूआती भाग में शुक्ल जी ने गंभीर मनोवैज्ञानिक विषयों पर निबन्ध लिखे हैं जैसे उत्साह, श्रद्धा, भक्ति, करुणा, लज्जा, ग्लानि, लोभ, प्रीति, घृणा, ईर्ष्या, भय, क्रोध आदि। इन निबंधों में शुक्ल जी की सूक्ष्म दृष्टि पहचानी जा सकती है जो उन्होंने मनुष्यों के कार्यों का निरीक्षण करने में प्रयोग किया है। इन निबंधों में शुक्ल जी ने पहले भावों या मनोविकारों को परिभाषित किया है, फिर उनकी अनेक श्रेणियाँ बताई हैं और अंत में यह भी लिखा है कैसे कोई भाव अन्य भावों से अलग है। उदाहरण के लिए किसी को श्रद्धा और करुणा में भेद प्रत्यक्ष नजर न आये, ऐसा हो सकता है। लेकिन शुक्ल जी ने कहा है कि श्रद्धा की भावना में हम किसी के व्यापक महत्व को स्वीकार करते हैं, जबकि करुणा में हम किसी की स्थिति से सहानुभूति अनुभव करते हैं। श्रद्धा सामाजिक भावना है जबकि करुणा एक व्यक्तिगत भावना है। इसी प्रकार शुक्ल जी ने अन्य भावों की व्याख्या की है। अपनी बात पर बल देने के लिए उन्होंने जगह-जगह पर कविताओं और शास्त्रों को उद्धृत किया है ताकि इस बात की पुष्टि की जा सके सामने क्या देखने पर किस प्रकार के भाव मन में उत्पन्न होते हैं।
मनोवैज्ञानिक भावों की व्याख्या के बाद में शुक्ल जी ने ‘कविता क्या है’ इस विषय की गहराई में जाने की कोशिश की है और सचमुच इस लम्बे निबंध में उन्होंने कविता के अनेक आयामों की समीक्षा की है जैसे - सभ्यता, प्रसार, मर्म, व्यवहार, सौंदर्य, भाषा और चमत्कारवाद। इस निबंध में उन्होंने इस बात की चर्चा की है कि मनुष्य को कविता की जरुरत क्यों पड़ी। साथ ही साथ पश्चिम के विचारकों का उल्लेख करते हुए उन्होंने इस बात को भी जताने का प्रयास किया है कि सिर्फ नायिका के सौन्दर्य की तारीफ करने को या शब्दों में अनावश्यक चमत्कार लाने को कविता नहीं कहा जा सकता है। यहाँ एक बात और कहता चलूँ। संयोग से जब मैं इस पुस्तक को पढ़ रहा था, उसी समय मैं रॉबर्ट पिर्सिग की प्रसिद्ध रचना 'जेन एंड द आर्ट ऑफ़ मोटरसाइकिल मेंटेनेंस' भी पढ़ रहा था। जिस विषय को शुक्ल जी ने इतनी सूक्ष्मता से बयान किया था उसके के बारे में रॉबर्ट पिर्सिग का कहना था कि कला की गुणवत्ता को परिभाषित ही नहीं किया जा सकता, विश्लेषण करना तो बहुत दूर की बात है। दोनों की बातों को पढ़ने के बाद यह कहा जा सकता है कि कला किसी पूर्व निर्धारित ढर्रे पर नहीं चल सकती। किसी कृति के बन जाने के बाद उसका विश्लेषण किया जा सकता है लेकिन किन्हीं नियमों का पालन करते हुए कृति के बनने के बारे में निश्चित नहीं हुआ जा सकता।
पुस्तक के अन्य निबंधों में शुक्ल जी ने भारतेंदु हरिश्चन्द्र की कविताओं का विश्लेषण किया है। हिंदी जगत के साहित्यकारों के मन में भारतेंदु जी एक अलग ही स्थान रखते हैं जैसा कि हमने धर्मवीर भारती की पुस्तक 'ठेले पर हिमालय' में भी देखा था। एक अन्य निबंध में शुक्ल जी ने रामायण की धार्मिक पृष्ठभूमि की चर्चा की है कि किस प्रकार से तुलसी के राम उस समय के समाज के लिए सर्वथा उपयुक्त थे। एक अन्य निबंध में शुक्ल जी कहा है कि वृहद् रूप में साहित्य और विशेष रूप से काव्य को समाज के एक साधारण को प्रस्तुत करना होता है। एक वह रूप जिससे साहित्य को ग्रहण करने वाला व्यक्ति अपने साथ जोड़कर देख सके। इसके साथ ही उन्होंने साहित्य में घुस आये विभिन्न वादों की आलोचना की है। लॉरा रायडिंग और रॉबर्ट ग्रेव्स के ‘अ सर्वे ऑफ़ मॉडर्निस्ट पोएट्री’ का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा है कि विभिन्न वादों से भरे हुए साहित्य बहुत दिन चलते नहीं हैं और अंत में लोग ‘फिर साफ़ हवा में आना चाहते हैं।’ पुस्तक की भाषा संस्कृतनिष्ठ है जो कि शायद उस समय के हिंदी साहित्य का मानक था।