नदी तो चिरकाल से बह रही थी। न जाने कितनी पीढ़ियों को जीवन दिया है और न जाने आगे कितनी पीढ़ियाँ लाभान्वित होँगी। जब कभी नदी के पास जाकर कुछ देर बैठता हूँ तो ऐसा लगता है कि जैसे इसके पास बहुत सी कहानियाँ हों सुनाने के लिए, लेकिन सुने तो कौन? नदी को तो अकेले ही ऐसे बहना था। जैसे कई बार अपना भी मन बहुत सारी बातें करने का करता है, लेकिन कहें तो किससे कहें? इस मामले में हम और नदी एक दूसरे के साथी थे। नदी के किनारे इसके साथ साथ एकांत में कुछ दूर चलने पर ऐसा लगता था कि जैसे हम एक दूसरे के साथ सुख-दुख बाँट रहे हों। ऐसी कितनी ही यादें थी जो कि मैंने आज तक संजो कर रखी हुई हैं। इस नदी ने समय के साथ बहुत सारे बदलाव देखे हैं। और इस नदी की कहानी इसके किनारे बसे एक छोटे से गाँव के बारे में बताये बिना अधूरी रहेगी।
हाईवे की भागदौड़ भरी जिन्दगी से बहुत दूर यह एक ऐसी जगह थी जहाँ प्रवेश करते समय उबड़-खाबड़, ऊँची-नीची ज़मीन देखकर एक पल के लिए विश्वास ही नहीं होगा कि ये जगह उत्तर भारत के विशाल मैदानी भागों में स्थित है। अगल-बगल ऊसर क्षेत्र हैं, जहाँ वन विभाग के अथक प्रयासों के बाद भी कोई पेड़ सात-आठ फीट से ज्यादा नहीं बढ़ पाया और एक-दो इंच से ज्यादा चौड़ा नहीं हो पाया। लेकिन ये जगह भी स्थानीय झाड़ियों से भरी हुई थी जिनके लाल-पीले फूल काफी आकर्षित करते हैं। कुछ और ऊँची-नीची सडकों पर चलने के बाद पेड़ों के बीच में बसे हुए कुछ घर नजर आते हैं। ये घर उसी छोटे से गाँव का भाग हैं- एक ऐसा गाँव जो आज भी जीवन की तथाकथित मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है। दो तरफ से खेत इस गाँव को घेरे हुए हैं और ये खेत इस गाँव की दिनचर्या का अभिन्न अंग हैं। और इसी गाँव में कुछ दशक पहले मेरा जन्म हुआ था।
नदी के साथ मेरा पहला परिचय कब हुआ ये तो अच्छी तरह नहीं पता लेकिन इतना जरुर है कि बचपन में मेरा नदी के आसपास फटकना भी मना था। कुछ बड़े होने पर नदी के आसपास जाने लगा लेकिन नदी को स्पर्श कर पाने के लिए अभी और इंतज़ार करना था। और तब दूर से ही अथाह पानी को बहते हुए देखकर आश्चर्य होता था कि इतना पानी आता कहाँ से है और निरुद्येश्य बहते हुए कहाँ जायेगा। पर शायद उसे निरुद्येश्य कहना मेरा बचकानापन था। बड़े होने पर पता चला था कि नदी तो जीवनदायिनी थी और लोगों का इस नदी के साथ अटूट सम्बन्ध है। गाँव के छप्पर बनाने से लेकर शादी-विवाह की रीतियाँ निभाने में नदी की महती भूमिका थी। किसी की भी शादी के पहले महिलाओं का समूह लोक संगीत गाते हुए नदी के किनारे जाता था, मानो नये वर-वधू के सुखमय जीवन के लिए नदी का आशीर्वाद लेना इतना जरुरी था। जब पहली बार नदी में उतरने का मौका मिला था तब मैं कितनी देर तक उछल-कूद करता रहा था। पहले दिन ही कितनी डुबकियाँ लगायी थी। मैं खूब तेज दौड़कर आता था और किनारे की खड़ी खाईं के ऊपर से नदी में कूदता था। कभी थकान का अनुभव हुआ हो ऐसा याद नहीं है। नदी की लहरें भी हमारे साथ खेलती थीं। आखिर कुछ देर के लिए ही सही लेकिन हम लोग की टोली नदी का एकांकीपन तो दूर कर ही देती थी। हमारा कभी भी नदी से निकलने का मन शायद ही करता था लेकिन अपने से बड़ों की ज़िद के आगे हमें झुकना पड़ता और नदी फिर अपने रास्ते बह चलती।
आज भी मुझे वो दृश्य अच्छी तरह से याद है जब दादी माँ ने हाथ से नदी की तरफ इशारा करते हुए कहा था, "ये गोमती माता हैं, इन्हें प्रणाम करो।" और मैंने दोनों हाथ जोड़कर गोमती नदी को प्रणाम किया था। जैसे जैसे हम लोग बड़े होते गये, नदी के साथ हमारा परिचय बढ़ता गया। अब तो हर दूसरे तीसरे दिन घर से इज़ाज़त मिल जाती थी नदी में नहाने के लिये। गाँव में एक ऊँचे स्थान पर एक मंदिर बना हुआ था। इस मंदिर से नदी की तरफ देखने पर सूर्य की किरणें आँखों को बेधने सी लगती। लेकिन चलती हुई नदी में परावर्तित किरणें ऐसे लगती थी जैसे कोई नवजात पालने में झूल रहा हो। नदी को ऐसे मंथर गति से बहते हुए देखकर एक क्षण के लिए ये भूल हो सकती है कि ये हमेशा से ऐसे ही बहती आई है। पर नदी हमेशा से ऐसे ही थोड़े रही है। कई बार नदी को गुस्सा भी आया है। आखिर नदी का स्वाभाव मनुष्य से बहुत अधिक अलग थोड़े ही है। इस क्रोध में नदी ने गाँव के निचले इलाकों में जीवन को बाधित भी किया है लेकिन ऐसा बहुत दिन तक न रहता और नदी अपने शान्तस्वरूप में जल्दी ही आ जाती थी।
नदी और मेरे जीवन में समानता यहीं समाप्त नहीं होती। नदी के स्रोत से समुद्र तक के सफ़र में और मानव जीवन में एक रुचिकर समानता दिखाई देती है। नदी अपने स्रोत से निकलने के बाद पहाड़ों के बीच ऐसे वेग से निकलती है और इसकी लहरें ऐसे हिलोरें लेती हैं जैसे कोई छोटा शरारती बच्चा दौड़-भाग कर रहा हो। मासूमियत से भरपूर इस दौर में भविष्य की चिंता नहीं होती। उसके बाद जब नदी मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती है तो उसके प्रवाह में कुछ कमी आ जाती है, जैसे बच्चों में बड़े होने पर कुछ गंभीरता आ जाती है। बचपन की तरह उछल-कूद अब नहीं होती। थोडा और सफ़र तय करने के बाद नदी की धारा और भी मंद पद जाती है, जैसे किसी वयस्क को जिम्मेदारियों के बोझ तले लाद दिया गया हो। और समुद्र से मिलने से पहले तो प्रवाह इतना मंद हो जाता है, कि उसकी धारा कई छोटे छोटे भागों में बँट जाती है, जैसे वृद्धावस्था में कोई मनुष्य अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा हो। और यह लड़ाई लड़ते लड़ते आखिरकार अस्तित्व समाप्त हो ही जाता है।
धीरे धीरे समय बीतता गया और मुझे आगे पढने के लिए शहर आना पड़ा। और इस नए जीवन में व्यस्तता में कुछ इतना बढ़ गयी कि नदी के साथ मेरी मुलाकात ख़त्म सी हो गयी। मिलना तो दूर अब नदी को याद किये गए भी कई दिन बीत जाते थे। जब कभी अचानक से नदी की याद आती थी मैं ख्यालों में खो जाता था कि नदी में अब भी पानी वैसे ही बहता होगा। लेकिन यह भी सोचता था कि नदी मेरे बिना कितना अकेला महसूस कर रही होगी। शहर की तेज रफ़्तार जिंदगी से दूर जाकर नदी के किनारे बैठकर लहरों को निहारने का मन करता था। एक साल के बाद जब गर्मी की छुट्टियाँ हुई तो मैं गाँव गया। शाम को वहाँ पहुँचते ही मैं नदी के पास पहुँच गया। लेकिन वहाँ जाकर दूसरा ही दृश्य देखने को मिलता है। नदी का जल-स्तर कम हो गया था और बीच-बीच में रेत के टीले बन गये थे। तब याद आया कि कुछ दिन पहले अख़बार में पढ़ा था कि नदी का पानी रोक कर लखनऊ में जलापूर्ति होती है। नदी में कम होती जल की मात्रा और बढ़ती जनसँख्या के साथ लोगों की बढ़ती जरूरतें नदी के लिए गले का फांस बन गई थी। मुझसे नदी की ये हालत देखी नहीं जा रही थी। हृदय विदीर्ण हो गया था। मैं वहां से चला आया। कुछ दिन और गाँव में रहने के बाद मैं वापस शहर आ गया।
उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए मुझे और दूर जाना पड़ा। नयी जगह और नए दोस्तों में मन कुछ ऐसा रम गया था कि और कुछ याद ही नहीं रहा। देर रात तक जगे रहना और सुबह देर से उठना अब आदत सी हो गई थी। इस दौरान दोस्तों के साथ बहुत सी नयी जगहों पर घूमने गया। इस सामाजिक जिंदगी का भी अपना ही मजा था। कॉलेज में ये साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। पढाई पूरी होने के बाद जब नौकरी लग गयी तो व्यस्तता अचानक से ही कुछ इतनी अधिक हो गई कि कुछ और करने के लिए समय ही नही मिलता था। घर से ऑफिस और ऑफिस से घर बस इतना सा जीवन रह गया था। घर में कुछ देर समय मिलने पर बुद्धू बक्से (कंप्यूटर) के आगे बैठ जाता था और उसी में समय बीत जाता था। सब कुछ इतना नीरस सा हो जायेगा ये नहीं सोचा था। चार-पाँच साल तक जिंदगी ऐसे ही चलती रही। बहुत दिन से इस माहौल से थोड़े समय के लिए निकलने का मन था और आखिरकार मैंने घर जाने के लिए छुट्टी ली।
छुट्टी मिलने पर कुछ दिन के लिए गाँव गया। इस बार बहुत दिन के बाद गाँव आना हुआ था। जब नदी को देखने को गया तो देखा कि जो पहले रेत के टीले कहीं कहीं पर थे वो अब बड़े होकर नदी के एक किनारे से लेकर नदी के बीच तक फैल गए थे। नदी दूसरे आधे हिस्से में सिमट कर रह गई गई थी। नदी के बीचों-बीच जहाँ पहले जहाँ पहले सीने तक पानी हुआ करता था वहाँ आज बिलकुल पानी नहीं था, सिर्फ बालू था। वहाँ से कुछ दूर नदी सकुची-सिमटी सी बह रही थी। नदी का दम घुट रहा था। लोगों की उम्मीदों का बोझ उससे और नहीं सहा जा रह था। जैसे मेरे जीवन में नयेपन का अभाव था वैसे ही नदी भी बस चुपचाप जी रही थी। उस पल ऐसा लगा जैसे कि मेरे जीवन और नदी, दोनों का प्रवाह थम सा गया है।
छुट्टी मिलने पर कुछ दिन के लिए गाँव गया। इस बार बहुत दिन के बाद गाँव आना हुआ था। जब नदी को देखने को गया तो देखा कि जो पहले रेत के टीले कहीं कहीं पर थे वो अब बड़े होकर नदी के एक किनारे से लेकर नदी के बीच तक फैल गए थे। नदी दूसरे आधे हिस्से में सिमट कर रह गई गई थी। नदी के बीचों-बीच जहाँ पहले जहाँ पहले सीने तक पानी हुआ करता था वहाँ आज बिलकुल पानी नहीं था, सिर्फ बालू था। वहाँ से कुछ दूर नदी सकुची-सिमटी सी बह रही थी। नदी का दम घुट रहा था। लोगों की उम्मीदों का बोझ उससे और नहीं सहा जा रह था। जैसे मेरे जीवन में नयेपन का अभाव था वैसे ही नदी भी बस चुपचाप जी रही थी। उस पल ऐसा लगा जैसे कि मेरे जीवन और नदी, दोनों का प्रवाह थम सा गया है।