(1)
दीप जल उठे थे
घर आँगन में,
मैं एक बार नभ में देखता
फिर एक बार
दीपों की पंक्तियों को
फिर सोचता टिम-टिम करते
तारों को लेकर,
जैसे
आकाश उतर आया हो धरा पर,
शायद इस बार चाँद तारों ने ही
बीड़ा उठा लिया हो,
धरती के हर कोने में
उजियारा करने का,

और
पंडित जी ने कहा था,
दीप शुद्ध देसी घी के ही जलेंगे,
ठीक है
कुपोषण के शिकार बच्चे
ऐसे ही रहेंगे,
चाँद तारों को
इतनी जल्दी
धरती पर आया हुआ
मान लेना
शायद मेरा भ्रम था,
क्यूंकि चाँद तारे पक्षपात नहीं करते।

(2)
हमने दीवाली को
घर के कोने कोने में
दरवाजों खिडकियों पर
बिजली की लड़ियों में
रख दिया था-
हर बार की तरह,
लेकिन ऐसा लग रहा था
जैसे यह मेरी दीवाली नहीं है,
फिर छत पर जाकर देखा
कि बहती बयार से
जूझता हुआ
घी की आखिरी बूँद तक
आखिरी बाती तक
एक नन्हा सा दिया
तिमिर से संघर्ष कर रहा था,
मैंने पटाखों के शोर से दूर
उस दिये के साथ
समय व्यतीत करना अच्छा समझा,
मन आह्लादित हो गया था
उस दिये के प्रकाश में ही
मेरी दीवाली थी।