'एक बूँद सहसा उछली' अज्ञेय का लिखा हुआ दूसरा यात्रा-विवरण संग्रह है। इसके पहले उनका सन् 1953 में प्रकाशित हुआ 'अरे यायावर रहेगा याद?' आया था, जिसमें अज्ञेय जी ने अपने भारत भ्रमण के बारे में लिखा है। इसकी तुलना में 'एक बूँद सहसा उछली' थोड़ा अलग है क्योंकि इसमें लेखक ने यूरोप के लगभग एक वर्ष के प्रवास के बारे में लिखा है। अज्ञेय जी यूनेस्को द्वारा प्रायोजित यात्रा में यूरोप गए थे और जब वहाँ चले ही गए थे तो सोचा कि इस यात्रा को सार्थक बनाया जाये। प्रस्तुत पुस्तक में अज्ञेय जी ने इटली, स्विट्ज़रलैंड, फ्रांस, नीदरलैंड, इंग्लैंड, स्कॉटलैंड, वेल्श, स्वीडन आदि देशों की अपनी यात्रा के बारे में लिखा है। भिन्न भिन्न देशों में उनके अनुभव भी भिन्न ही रहे हैं।

सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' द्वारा रचित 'एक बूँद सहसा उछली'
इस पुस्तक की भूमिका में ही अज्ञेय जी ने घूमने के उद्द्येश्य के बारे में चर्चा की है। उन्होंने कहा है कि अगर इस पुस्तक को एक विवरणिका की तरह से सोचकर किसी ने पढ़ने के लिए उठाया है तो उसे निराशा ही हाथ लगेगी। यह पुस्तक रहने-घूमने के उत्तम स्थानों और खर्चे का अंदाजा लगाने के लिए किसी ने पढ़ने की कोशिश की तो उसे भी निराश होना पड़ेगा। लेखक की यात्रा का उद्द्येश्य धार्मिक तीर्थयात्रा न होकर मनुष्य के अनुभवों की वृद्धि था, ज्ञानार्जन था। लेखक बहुत से कवियों, विचारकों और दार्शनिकों से मिला और वहाँ पर उसने उसने संसार और इस लोक से पर की बातों पर चर्चा की। मनुष्य के अस्तित्व के मूलभूत सवालों पर चर्चा की और अंजान लोगों से मिलकर बातें करने का आनंद लिया। लेखक ने यूरोप के दर्शनीय स्थानों की भी यात्रा की। जब मनुष्य उन दो जगह घूमता है जिनकी समानताओं की पहले चर्चा हो चुकी होती है तो स्वाभाविक है कि लेखक के मन में भी इन तथाकथित समानताओं के बारे में कुछ विचार तो आयेंगे ही। स्विट्ज़रलैंड और कश्मीर की तुलना को व्यर्थ बताते हुये अज्ञेय जी ने कहा है कि दोनों ही प्रदेशों का अपना सौंदर्य है और उनको यथा अवस्था में रखते हुये उनका अवलोकन किया जाये, न कि यह सोचते हुये कि यदि यह पैमाना यहाँ होता तो यह भी उस जगह के जैसे लगता।

यूरोप में पहुँचकर जो जीवनशैली लेखक ने देखी उससे वह गहराई तक प्रभावित हुआ। पुस्तक में एक जगह पर लेखक ने भारतीय, यूरोपीय और चीनी जीवनशैली की तुलना करते हुये उनके दर्शनशास्त्र के मूल में जाने की कोशिश की है। यूरोप में व्यक्ति की निजी स्वंत्रता पर बहुत जोर दिया जाता है लेकिन उसका रूप पूरे यूरोप में एक जैसा हो ऐसा नहीं है। फ्रांस में हर एक आदमी किसी दूसरे के जीवन में दखल नहीं देता है लेकिन लेखक को इसका कारण एक दूसरे की परवाह न होना लगा।वहीं स्वीडन आदि देशों में निजी स्वतंत्रता दूसरे व्यक्ति की सोच और कार्यों का सम्मान होना लगा। यूरोप में जीवन की इकाई व्यक्ति होता है और भारत में यही इकाई समाज होता है, समाज से इतर व्यक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है। कई जगह लेखक यूरोपीय जीवनयापन पद्धति से संतुष्ट दिखा तो कई जगह उसने इनको उनके दुखों का कारण भी बताया है। लेखक ने दार्शनिक कार्ल यैस्पर्स से अपनी मुलाकात का जिक्र किया है जिसमें यैस्पर्स पूछ बैठते हैं कि भारतीय दार्शनिकों में अपनी मौलिक विचारधारा का अभाव क्यों है। यूरोप के कई देशों में घूमने के बाद लगा कि बाहरी समानता के आधार पर यूरोप को एक महाद्वीप कह देना ठीक है लेकिन उनमें अंतर को वहाँ जाकर, वहाँ के लोगों से बातें करके ही जाना जा सकता है। उदाहरण के लिये लेखक ने ग्रीष्मकालीन अवकाश में लोगों की कार्य के प्रति सोच को दिखाया है।

पूरी पुस्तक को पढ़ने के बाद लेखक के इस ख्याल को साफ़ अनुभव किया जा सकता है कि जो समाज पुराने आदर्शों, जीवन शैली और स्थापत्य कला को जीवित रखता है वह अवश्य ही अनुकरणीय है। इटली के शहर फिरेंजे (फ्लोरेंस) और असीसी में घूमते हुये लेखक ने अनुभव किया कि वहाँ के भवनों में अभी भी पुरानी स्थापत्य कला जीवित है और ऐसा लगता है कि भवन निर्माण की नयी शैली से लोग परिचित ही नहीं हैं। उत्तरी यूरोप के शहरों में जब लेखक को नयी स्थापत्य कला ही दिखी तो उसने यह कहकर उसे ठुकरा दिया कि इस में कुछ भी गर्व करने लायक नहीं है। लेखक ने भारतीय पुरातत्वविदों के बारे में भी कहा है कि पुरानी शैली के नाम पर कुछ सौ साल पहले के ही निर्माण हमें दिख पाते हैं। हजारों साल पहले हम निर्माण कैसे करते थे यह अब किसी को याद नहीं रह गया है और जैसे इतिहास की अनवरत धारा में से एक भाग कहीं गायब सा हो गया है।

पुस्तक में लेखक ने यूरोप के धर्म के बारे में भी चर्चा की है। यूरोप के कुछ प्रसिद्द संतों की कर्मस्थली की यात्रा भी की है और उनके रहन-सहन, उनकी शिक्षाओं को जानने की कोशिश की है। यह भी जानने का प्रयास किया है कि उस समय की सामाजिक अवस्था और धार्मिक विचारधारा में ऐसा क्या था जिसने इन संतों के उत्थान में अपना योगदान दिया है। लेखक ने इस बात को रेखांकित किया है कि पहले कला और धर्म समान विचारधारा से चलते थे। पंद्रहवीं शताब्दी के आसपास पुनरुत्थान (रेनेसां) के समय कला और धर्म अलग हो गया। कलाकार सिर्फ दस्तकार रह गया। उसके हुनर से दिखने में सुन्दर अनेक वस्तुयें बनीं लेकिन उनमें वैचारिक शक्ति का अभाव था। लेखक ने पुस्तक में अपनी पूर्वी जर्मनी की यात्रा का भी जिक्र किया है जहाँ की अधिनायकवादी शासन व्यवस्था में साँस लेने में भी घुटन महसूस होती थी। जिस यूरोप का वर्णन अज्ञेय जी ने किया है वह पचास के दशक का है और अब तक वहाँ काफी बदलाव हो चुके हैं लेकिन यहाँ माना जा सकता है कि जिन मूलभूत विचारधाराओं की बात लेखक ने की है, उन्हें अभी भी कुछ बदलाव के साथ देखा जा सकता है।


'An uncertain glory - India and its contradictions' is a book which analyses the decision-making process in India after economic reforms and the impact of those decisions. It also analyses the attention given to under-privileged population by media and discussion forums. According to the author, in the real democracy, opinion-forming bodies discuss the whole population, not just a sub-section. The authors, Amartya Sen – a distinguished economist and Nobel laureate – and Jean Drèze, an economist living in India for more than 30 years now, have argued for a more active role of governments. They also argue for using a greater part of the revenues, generated by the high rate of growth of the Indian economy in last two decades, for welfare expenditure. While advocating that, the authors have given the example of 'Asian economic giants' who did not have very good social indicators before their economic boom but caught up in an impressive way. The authors focus mostly on China and Bangladesh for most of the comparative statistics but other countries have also been mentioned.

'An uncertain glory - India and its contradictions' by Jean Drèze and Amartya Sen
India's performance in most of the social indicators - such as those related to health, education, and poverty - has not been up to the expectation as was expected after seeing the experience of many other economies which 'opened up' in the later half of the twentieth century. Still, a large part of the country is not able to get the elementary education and many of the villages are situated too far from a school, a PHC or a PDS center (fair price shop). The authors bring out the neglect in the schemes with social benefits and even if schemes were initiated, they were implemented in a very inefficient manner.

One thing that stands out throughout the book is the advocacy of government as the provider of the amenities such as education, public health and curative health care (in contrast to public health care which is preventive in nature). The authors also advocate for a proactive role of government and ask private players to act as supplements, not as primary players. To support this public policy position, they give the example of many countries of Asia which started growing in last few decades but have succeeded in providing these amenities quite satisfactorily. The authors also state that most of the Europe and the US attained the high ranking in these parameters because of clear government interventions. While one may agree with the authors in many arguments given the 'public goods' nature of these amenities, the experience of India has not been good as far as implementation of government welfare schemes is concerned. Because of the rampant corruption, leakage, and bureaucratic inefficiency, schemes have not benefitted the intended public as might have been expected from them. With no clear solution to this malaise, any new scheme is bound to succeed only partially, if it succeeds at all. 

The authors focus on the public discourse in India and the neglect therein of under-privileged groups. According to the authors, the word ‘aam aadmi’ - meaning common man - has become synonymous with a section of the middle class which is a small fraction of the entire population but is very much represented in the media. Any attempt to curtail subsidies given to this group are met with wide protests and governments back down easily. According to the authors, socially and economically deprived sections of society are yet to be vociferous in their demands and when that happens, then only accountability can be ensured in our democracy. The authors also speak against too much focus given to the absolute rate of growth of the economy. While growth is good for an economy as it generates avenues of the employment, brings many people out of poverty and generates revenues which can be spent on public goods, it should not be seen as an end in itself, but as means to achieve greater social equality. 

Before reading this book, I read the book "India's Tryst with Destiny" by Bhagwati and Panagariya and ideological differences between these two books is quite apparent. Bhagwati and Panagariya advocate a free-market based libertarian approach with a greater role of private players given the failure of governments at various levels to provide the basic amenities, whereas Sen and Dreze argue for a government led modern liberal approach given the public goods nature of basic amenities. Which approach will work cannot be said until we try one and see the results. Both these approaches have been successful in few countries. It may not be possible to try both approaches and see which one works because of the non-reversible nature of such policy decisions. This book is a passionate analysis of what economic achievements India is lacking despite being entitled to them because of the consistently high rate of growth. 


सृजन की छटपटाहट में
जब माथा तपने लगा था
विचारों की आँधी में वर्तमान दूर कहीं घायल पड़ा हुआ था
एक लफ्ज़ भी कहीं मिल जाये तो साँस चल पड़ती थी
तब मुझको राहत देने के लिए
तुम दवा-दुआ नहीं लाये थे
तुमने मेरे माथे पर भीगा हुआ कपड़ा भी नहीं रखा था
तुम मेरे सिरहाने रख गए थे एक किताब।

क्या तुम बताओगे इस शहर के सन्नाटे में
रुक-रुककर आती चीखों का मतलब
क्या सुनाई नहीं पड़ती तुम्हें शब्दों के तड़पने
और मानवता के सिसकने की आवाज़
क्या कुछ चील फिर फाड़कर बैठ गए हैं
कुछ पन्ने किताबों के लेकर ऊँचे पेड़ पर
क्या? फिर कहीं जली है क्या कोई किताब?

तुमने भी देखा था क्या
कि धीरे-धीरे शब्द जुड़ने लग गए थे
जुड़कर सीढ़ियों का रूप ले लिया उन्होंने
जिनपर चढ़कर बोलने लगीं
ताज़ी हवा से पहली बार रूबरू
सदियों से दबाई हुई अनेक आवाज़ें,
मैंने तुमसे इंक़लाब माँगा था
और तुम दे कर गए हो मुझे एक किताब।


वोल्गा से गंगा राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखा हुआ एक कहानी संग्रह है जिसमें कहानियों का विषय इतिहास की घटनाओं पर रखा गया है। इस पुस्तक में लेखक ने आर्य आक्रमण सिद्धांत को पूरी तरह से मानते हुये उसके चारों ओर कहानियों को लिखा है। उस समय शायद यह सिद्धांत इतना विवादित न रहा हो। हालांकि पुस्तक के अंत में भदन्त आनंद कौसल्यायन ने इस पुस्तक की आलोचनाओं के बारे में लिखा है कि किस तरह से सांकृत्यायन को नग्नवादी, ब्राह्मण विरोधी कहकर इस पुस्तक के उद्द्येश्य पर सवाल खड़े किये गए थे। कुछ इसी तरह की भावना इस पुस्तक के दूसरे संस्करण की भूमिका में सांकृत्यायन जी ने व्यक्त किये हैं। आनंद कौसल्यायन ने सफाई में ज्यादा कुछ न लिखते हुये सिर्फ इतना लिखा है कि यदि किसी को आलोचना करनी ही थी तो कम से कम राहुल सांकृत्यायन के जितना अध्ययन तो किया होता। सांकृत्यायन को उनके ज्ञान के कारण साहित्यिक उद्धरणों में महापण्डित के नाम से भी जाना जाता है। आज के समय भाषा के अलावा और अन्य वैज्ञानिक पद्धतियों से आर्य आक्रमण सिद्धांत के मूल में जाने की कोशिश की गयी है। किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की बजाय यह सिद्धांत और विवादित हो गया है।

राहुल सांकृत्यायन द्वारा रचित 'वोल्गा से गंगा'
इस पुस्तक की पहली कहानी वोल्गा तट की है। वहाँ पर आज से 8000 साल पहले किसी जनजाति के पारवारिक ढाँचे, खान-पान, रहन-सहन के बारे में उल्लेख किया गया है। कहना न होगा कि उस समय की कहानियों में प्रामाणिक बातों की अपेक्षा कल्पनाशीलता की भरमार है लेकिन उसके लिए लेखक को दोष नहीं दिया जा सकता। वस्तुतः भारत के इतिहास की प्रामाणिकता बुद्ध और महावीर के समय के बाद बहुत बढ़ गयी थी जिसके दो कारण थे। पहला, बौद्ध और जैन धर्म के ग्रंथों में देवताओं की अत्यधिक प्रशंसा की जगह उस समय के वास्तविक सामाजिक स्थितियों का चित्रण किया गया है। दूसरा किसी एक ग्रन्थ में कही गयी बातों को किसी दूसरे ग्रन्थ से तुलना करके उसकी सच्चाई जानी जा सकती है। सिकंदर के आक्रमण के बाद भारत के राजाओं और शहरों का ज़िक्र यवनी साहित्य में भी मिल सकता है।

अन्य कहानियों में वैदिक भारत, उत्तर-वैदिक भारत, बुद्ध के समय के ऊपर कहानियाँ लिखी गयी हैं। इस पुस्तक में जातिवाद के कारणों में जाने की कोशिश की गयी है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार पहले आर्य जातियों में कार्य का विभाजन नहीं था। हर एक मनुष्य हर एक कार्य कर सकता था। जब आर्य जातियाँ भारतीय उपमहाद्वीप में आयीं तो उन्होंने व्यापार प्रधान समुदायों को देखा जहाँ एक मुखिया के पास अत्यधिक शक्ति केंद्रित रहती थी। आर्यों में सत्ता लोभी लोगों ने इस व्यवस्था को अपना लिया था। धीरे धीरे यह व्यवस्था अपनी जड़ मजबूत करती गयी और इसको बदलना लगभग असम्भव हो गया। आर्यों और गैर-आर्यों के बीच के युद्धों को लेखक ने अपने शब्दों में व्यक्त किया है जिसके कुछ कुछ उल्लेख महाग्रंथों में मिलते हैं। मध्यकाल तक पिछड़ी जातियों में उच्च जातियों के प्रति इतना क्षोभ आ गया था कि उन्होंने विदेशी शासन को भी अच्छा माना है।

पुस्तक की आखिरी कहानियों में लेखक ने साम्यवाद को भारत की बुराइयों के हल के रूप में प्रस्तुत किया है। उस समय सोवियत संघ की कहानियों को सुनकर एक बार लग सकता है कि सामन्तवादी व्यवस्था का अन्त हो गया था और शासन का एकमात्र उद्द्येश्य लोगों का कल्याण था। जातिवाद और आय में घोर असमानता जैसी समस्याओं का हल साम्यवाद कहा गया है। इतने वर्ष बीत जाने के बाद पीछे मुड़कर देखा जाये तो सोवियत के साम्यवाद को पूरी तरह सफल नहीं कहा जा सकता। निरंकुशता किसी भी तरह की हो उसे सराहनीय नहीं कहा जा सकता है। यह भी हो सकता है कि सोवियत संघ में साम्यवाद को अच्छे से लागू न किया गया हो। लेकिन इसके माध्यम से सांकृत्यायन जी ने दबे कुचले वर्ग की समस्याओं को एक आवाज दी है।

पुस्तक में बीस कहानियाँ हैं और उनके बीच में कुछ सौ वर्षों का अंतराल दिया गया है। इन कहानियों के मध्य परिवर्तन विश्वसनीय बन रहता है। 8000 वर्षों के समय में लेखक ने पूरे इतिहास का एक निचोड़ प्रस्तुत कर दिया है। कहानियों की शैली में पर्याप्त विविधता दिखती है। विवरण, वार्तालाप, आत्मकथा, प्रपंच आदि के माध्यम से लेखक ने लोगों की सोच को व्यक्त किया है और समाज में आते हुये बदलाव पर लोगों की प्रतिक्रियाओं को दिखाया है। पुस्तक के अंत में भदन्त आनंद कौसल्यायन ने कहानियों के स्रोतों के बारे में लिखा है।


Spiti River
Spiti River

We went close to the Spiti River. Spiti River originates near Kunzum Pass and flows in the southeast direction before it meets Sutlej River. The dark color water flows over the pebbles peacefully. This tranquility is a characteristic of the Spiti valley and its deep relationship with Buddhism. As there is not much rainfall in the Spiti Valley, the river gets most of its water from the Himalayan glaciers and many streams join it. Pin river is one of the most significant ones to join it. We had read somewhere that Pin Valley National Park also provides beautiful views but we could not go there. Pin Valley starts near the Dhankar Gompa in Spiti Valley. Spiti River occupies only a small portion of the bottom of the valley. The similar pebbles near the course of the river suggest that either the water level of the river increases as some point of the year or the river has changed its course. Normally in India, September is one of the months when rivers carry a huge amount of water because of the monsoons. The same cannot be said about Spiti River.

Unlike Kye Gompa, Tangyurd Gompa, and Dhankar Gompa which are situated at cliffs, Tabo monastery is at the bottom of the valley. Tabo monastery was built in 996 AD and that makes it the oldest in India. A few years back it celebrated its thousandth anniversary which was attended by the Dalai Lama. Inside the monastery, we were allowed only to visit the main temple. There was a big buddha statue and the temple was naturally lit. We were told that there were old wall-paintings in Tabo monastery, of which we could only see glimpses in the temples. There were stupas built inside the monastery. Like Dhankar monastery, Tabo monastery also belongs to Gelugpa sect. Due to its very old wall-paintings and manuscripts, it is also called the Ajanta of Himalayas.

Tibetan Buddhism is the religion of this part of the India and also of the Ladakh, Sikkim, Tibet and parts of Nepal. The sixth century onwards, the rulers of Tibet showed interest in Buddhism for various reasons including their marriage to Buddhist princesses. Then a tantric Padmasambhava from India arrived in Tibet and preached Buddhism in Tibet. Later on, folk elements were assimilated in Tibetan Buddhism. Tibetan Buddhism is different from the Buddhism practiced in other parts of the world like Sri Lanka and South-East Asia. Buddhism spread in these areas much earlier and is based on the early interpretation of Pali Canons. Tibetan Buddhism was inspired from Indian Buddhism which in turn borrows few elements from Hinduism like multi-armed statues of deities. Tibetan Buddhism believes in the reincarnation of Dalai Lama.

Keeping up the spirit of trying new things in the trip, we tried Thukpa in Tabo. Thukpa is a noodle soup with its origin in Tibet. Apart from the noodle, it contained tomato, capsicum, and few other ingredients. In Tabo, there are only a few places to eat. Someone told us to go to a home where they provide some food items. It was a small house. The Dhaba was operated by the family only and not many people were dining there. We did not find too many tourists in Tabo. We might have been there in the off-season or Tabo is still not that popular destination. Few houses in Tabo had apple gardens. Tabo was the last destination of our trip. The road from Kaza to Tabo goes to Nako also which is very close to India-China border and then continues to Shimla as part of the Hindustan Tibet Road. It was time to return to Manali.

When I look back and remember the days spent in Spiti Valley, it brings a joy and satisfaction. I do not know how to summarize the trip in a paragraph and I would not dare to. Probably my remembering-self has remembered too many things. I do not know what to say about my experiencing-self because whatever bliss it achieved was left there in the Spiti Valley. Those high barren mountains; those long and narrow roads and paths on pebbles; those peaceful and crystal clear streams; those villagers and their hospitality; those Gompas and learned lamas; those high-altitude lakes and reflection of mountains in them; those deep valleys with layer after layer of its sides telling the history of tectonic activities; those strong winds making their mark on the mountains; everything is etched in my memory like all of this happened only a few days back. When one comes to the Himalayas, a part of oneself is forever indebted to nature. And in that moment of gratitude, I promised to return to the Himalayas, again and again.
The entrance of Tabo Monastery
The entrance of Tabo Monastery
Tabo Monastery
Tabo Monastery
Stupas in Tabo Monastery
Stupas in Tabo Monastery