सृजन की छटपटाहट में
जब माथा तपने लगा था
विचारों की आँधी में वर्तमान दूर कहीं घायल पड़ा हुआ था
एक लफ्ज़ भी कहीं मिल जाये तो साँस चल पड़ती थी
तब मुझको राहत देने के लिए
तुम दवा-दुआ नहीं लाये थे
तुमने मेरे माथे पर भीगा हुआ कपड़ा भी नहीं रखा था
तुम मेरे सिरहाने रख गए थे एक किताब।

क्या तुम बताओगे इस शहर के सन्नाटे में
रुक-रुककर आती चीखों का मतलब
क्या सुनाई नहीं पड़ती तुम्हें शब्दों के तड़पने
और मानवता के सिसकने की आवाज़
क्या कुछ चील फिर फाड़कर बैठ गए हैं
कुछ पन्ने किताबों के लेकर ऊँचे पेड़ पर
क्या? फिर कहीं जली है क्या कोई किताब?

तुमने भी देखा था क्या
कि धीरे-धीरे शब्द जुड़ने लग गए थे
जुड़कर सीढ़ियों का रूप ले लिया उन्होंने
जिनपर चढ़कर बोलने लगीं
ताज़ी हवा से पहली बार रूबरू
सदियों से दबाई हुई अनेक आवाज़ें,
मैंने तुमसे इंक़लाब माँगा था
और तुम दे कर गए हो मुझे एक किताब।


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