तुम्हें साहित्य लिखना है न
तो तुम सबसे पहले मौन लिखो।

इतना मौन
कि जहाँ तुम सुन सको काल-चक्र की धड़कनें
और गिन सको साँसें
महसूस कर सको
संसार को अपने आप में,
जहाँ छू सको देश और काल की धुरियों को,
और विचरण करो
विचारों के निर्वात में,
वो निर्वात
जो आँधियों को अपनी तरफ खींचता है,
जहाँ जान सको
संसार में अपनी ठीक-ठीक स्थिति,
जहाँ तुम शून्य में गिरो
और तुम्हारे गिरने की कोई आवाज न हो,
तुम्हारे गिरने पर काल का अट्टहास हो
जिसे तुम्हें छोड़कर कोई भी न सुन सके,
उतने मौन में
जितने में होने और न होने की सीमाओं का लोप हो जाये
और तुम बौखला उठो,
और यह सोचो
कि आसपास घटित होने वाली कौन-सी घटना
पक्का-पक्का यकीन दिला सकती है
कि तुम हो,
मौन इतना हो
कि तुम्हें कुछ सुनाई न दे
अंतरिक्ष की रिक्तता की तरह
जहाँ आवाजें नहीं होती हैं,
लेकिन होता है प्रकाश
जिसे आँख मूँदकर भी पाया जा सके,
सन्नाटे के शोर में अनुभव करो
कि धरती का घूमना रुक गया है,
आसमान नाम की कोई वस्तु वैसे भी नहीं है,
दुनिया तुमको देख रही है,
सड़क घाटी से ऊपर आ चुकी है,
शरीर में पांच तत्व होते हैं,
Orion समंदर से नहाकर निकल रहा है,
यादें मष्तिष्क की कल्पना हैं,
खिड़की से लाल रौशनी तुम्हारे पास आ रही है,
काफिला रेगिस्तान में पानी से बहुत दूर है।


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