अगर भारतीय राजनीति में कोई ऐसा व्यक्ति हुआ है जिसके स्वभाव, भाषण शैली के लोग दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कायल रहे हैं तो एक ही नाम याद आता है - अटल बिहारी वाजपेयी। भारतीय राजनीति के वट वृक्ष के नाम से जाने जाने वाले अटलजी ने अपना पूरा जीवन देश की सेवा में समर्पित कर दिया था। एक राजनैतिक दल को छोटी सी पार्टी से द्विध्रुवीय परिदृश्य में एक मुख्य धुरी के रूप में स्थापित किया और जब समय आया तो उन्होंने देश का नेतृत्व भी किया। नैसर्गिक प्रतिभा के धनी अटलजी की कवितायें और उनके भाषण बहुत जोशीले हुआ करते थे। हालाँकि राजनैतिक जीवन की व्यस्तता में उनका कविता लेखन और कविता पाठ दोनों ही कम हो गया था लेकिन जब भी अवसर मिला उन्होंने सस्वर कविता पाठ किया। ऐसी ही उनकी एक कविता थी, 'एक नहीं दो नहीं करो बीसों समझौते, पर स्वतंत्र भारत का मस्तक नहीं झुकेगा', जिसका सस्वर पाठ अविस्मरणीय रहेगा। 

किसी भी परिस्थिति से इतनी आसानी से हार मान लेना उनका स्वभाव नहीं था। उनके जीवन की ऐसी ही एक घटना याद आती है। जब दिल्ली में नया बाँस में नयी म्यूनिसीपल कॉर्पोरेशन बनी थी और उसके उपचुनाव हुए थे तो उसमें अटल जी और आडवाणी जी ने बहुत मेहनत की थी। यह अजमेरी गेट के भाजपा कार्यालय के पास में स्थित था। और इतना काम करने के बाद जब चुनाव के परिणाम आए तो उसमें उनकी पार्टी म्यूनिसीपालिटी का चुनाव भी हार गयी। तो वो ऐसा परेशान हुए, ऐसा दुखी हुए कि उन्होंने कहा कि ये ठीक नहीं हुआ भाई, चलो अब तो हम ग़लत कर आए, चलो कोई पिक्चर देख के आते हैं। पिक्चर देखने का फ़ैसला हुआ तो पास होने के कारण पहाड़गंज में इंपीरीयल थियेटर में बिना पिक्चर का नाम देखे अंदर चले गये। और जब पिक्चर शुरू हुई तो पता चला कि पिक्चर का नाम 'फिर सुबह होगी' है। 'फ्योदोर डॉस्टोव्स्की' के प्रसिद्ध उपन्यास 'क्राइम आंड पनिशमेंट' पर आधारित यह फिल्म अटल जी के जीवन में एक विशेष स्थान रखती है। और बहुत साल बाद सुबह हुई, जब अटल जी का परिश्रम और उनका विश्वास रंग लाया और उन्होने प्रधानमंत्री पद की कुर्सी संभाली। आडवाणी जी ने ये किस्सा तब सुनाया था, जब 1998 में जब सरकार ने शपथ ले ली थी।

संसद में जोशीले और चुटीले अंदाज में उनके भाषण हमेशा याद किए जाएँगे। उनकी वाक्पटुता देखने के लिए सद्स्य संसद भवन में अपना नाश्ता खाना छोड़ के संसद कक्ष में चले जाते थे। उनके कुछ किस्से जो हमेशा याद रहेंगे, उनका जिक्र करता हूँ। पाकिस्तान से दोस्ती के सन्दर्भ में एक बार जब उनसे पूछा गया तो उन्होने कहा, "पडोसी कहते हैं कि एक हाथ से ताली नहीं बज सकती, हम कहते हैं कि चुटकी तो बज सकती है।" एक बार किसी चुनावी रैली में जब उनको फूलों का हार पहनाया गया तो उन्होंने कहा कि, " मैं यहाँ 'हार' नहीं, जीत लेने आया हूँ।" एक बार चर्चा के समय इंदिरा जी ने अटल जी के बारे में कहा कि वो हिटलर की तरह भाषण देते हैं और हाथ लहरा-लहरा कर अपनी बात रखते हैं। हाजिर जवाब अटल जी ने तुरंत कहा, "इंदिरा जी हाथ हिलाकर तो सभी भाषण देते हैं , क्या कभी आपने किसी को पैर हिलाकर भाषण देते हुए सुना है?" ऐसे ही एक बार सदन में चर्चा के समय रामविलास पासवान ने कहा, "ये भाजपा राम राम की बहुत बातें करती है, पर उनमें कोई राम नहीं है, मेरा तो नाम ही राम है।" अटल जी ने तुरंत चुटकी ली, "रामविलास पासवान जी, हराम में भी राम आता है।" यूरिया घोटाले पर बोलते हुए अटल जी ने सरकारी संस्थाओं की भूमिकाओं पर ऊँगली उठाते हुए कहा था, "अगर पहरा देने वाला कुत्ता नहीं भौंकता है, तो यह मान लेना चाहिए कि वह कुत्ता भी चोरी में शामिल है।"

अटल जी का प्रधानमंत्री बनना भी कम रोचक घटना नहीं है। बात भारतीय जनता पार्टी के मुम्बई महाधिवेशन (11-13 नवम्बर, 1995) की है। यह वो समय था जब अडवाणी अयोध्या आंदोलन के फलस्वरूप अपने लोकप्रियता के चरम पर थे। अडवाणी ने अध्यक्षीय अभिभाषण देते हुए कहा, "हम लोग अगला चुनाव श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी के नेतृत्व में लड़ेंगे और वे हमारी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार होंगे। पिछले कई सालों से आम जनता कहती आ रही है, 'अगली बारी, अटल बिहारी।' मुझे पूरा भरोसा है कि अगली सरकार अटल जी के नेतृत्व में भाजपा की ही बनेगी।" उसके बाद मंच पर क्या हुआ, इसके लिए कंचन गुप्ता का 'द पायनियर' के लिए लिखा गया कॉलम उद्धृत करना उचित रहेगा -
"एक क्षण के वहाँ स्तब्ध मौन था। उसके बाद पूरा मंच तालियों कि गड़गड़ाहट से गूँज उठा। यह घोषणा अडवाणी के भाषण के अंत में हुई थी। यह सोचा समझा निर्णय नहीं था बल्कि एक भावनात्मक निर्णय था। उन्होंने बाद में मुझे बताया कि यह एक ऐतिहासिक क्षण था और जिसे घोषित करने के लिए वो कई वर्षों से प्रतीक्षा कर रहे थे..... इसके पहले कि अडवाणी, जिनका भावनाओं में गला रुंध आया था , मंच में अपने स्थान पे पहुँच पाते, वाजपेयी उठे, माइक हाथ में लिया और अपने जाने पहचाने अंदाज में लम्बे अंतराल लेते हुए कहा, "बी जे पी चुनाव जीतेगी, हम सरकार बनाएंगे और अडवाणी जी प्रधानमंत्री बनेंगे।" अडवाणी ने कहा, "घोषणा हो चुकी है।" वाजपेयी ने हँसते हुए कहा, "तो फिर मैं भी घोषणा करता हूँ कि प्रधान मंत्री..... "  अडवाणी बीच में ही बोल उठे ,"अटलजी ही बनेंगे।" वाजपेयी ने कहा, "ये तो लखनवी अंदाज में पहले आप पहले आप हो रहा है।" एक पल के लिए दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा, दो पुराने सहकर्मी और नजदीकी दोस्त, जिन्होंने जन संघ को उसके बनने के बाद से और फिर बी जे पी को पाला पोसा, उनकी आँखों में आँसू आ गए थे। 1996 की ग्रीष्म ऋतु में अडवाणी की घोषणा सच साबित हुई। बी जे पी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। वाजपेयी को प्रधान मंत्री पद कि शपथ दिलाई गई.… इसके बाद सब इतिहास है। "
बाद में अटलजी ने अडवाणी से कहा भी, "क्या घोषणा कर दी आपने? कम से कम मुझसे तो बात करते।" इस पर अडवाणी ने उनसे कहा, "क्या आप मानते अगर हमने आपसे पूछा होता?" 

अटल बिहारी वाजपेयी
कविता पाठ करते हुए 

जब भी अटलजी के जीवन कि चर्चा की जायेगी तो उसमें पाकिस्तान के साथ की गयी उनकी वार्ता की कोशिशों का ज़िक्र ज़रूर आयेगा। उन्होंने पहली बार दिल्ली-लाहौर बस सेवा के साथ दोस्ती का सन्देश दिया। लेकिन उसके बाद छिड़े कारगिल युद्ध ने सारी कोशिशों पर पानी फेर दिया। अटलजी को यह बात थोडा अखर गयी थी। उन्होंने नवाज़ शरीफ को फ़ोन करके कहा भी था, "मिस्टर प्राइम मिनिस्टर, ये क्या हो रहा है ?" नवाज़ शरीफ ने ऐसी किसी भी घटना की जानकारी होने से मना कर दिया। उसके बाद जो हुआ उससे अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत की साख और बढ़ गयी। भारत की नियंत्रण रेखा पार न करने के फैसले को सराहा गया। अटलजी ने एक बार फिर 2001 में कोशिश की थी जब उन्होंने पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ को वार्ता के लिए आगरा बुलाया था, जिसे आगरा शिखर सम्मलेन के नाम से जाना गया। कुछ कारणों से ये कोशिश भी परवान न चढ़ सकी। अटलजी की एक खास बात थी। वो गम्भीर परिस्थितियों में भी चुटीले संवादों के लिए जाने जाते थे। आगरा शिखर सम्मलेन की विफलता के बाद उन्होंने अडवाणी से कहा था ,"क्या करें। अतिथि भी अपने कर्मों से ही मिलता है।  हमारे कर्म ही ऐसे थे जो हमें ऐसे अतिथि मिले।"

आज अटलजी का स्वस्थ उतना अच्छा नहीं है। वो सक्रिय राजनीति में नहीं हैं। भारत की राजनैतिक क्षेत्र में उनकी कमी खलती है। उनकी कवितायेँ, उनके जोशीले भाषण आज मीडिया में सुनाई नहीं पड़ते, अख़बारों में नहीं छपते। लेकिन भारतीय राजनीति का ज़िक्र उनके बिना सदैव अधूरा रहेगा। 


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