कभी-कभी बोलियाँ लगती हैं उसकी बोली की सरे-बाजार,
और भी दूर हो जाता है अपनी बुलन्दियों से वो कभी-कभी।

कभी-कभी राह रुक जाती है चलते-चलते,
और यूँ ही चलता चला जाता है वो कभी-कभी ।

कभी-कभी रास्ता और वो पाला बदल लेते है,
और वो रास्ता होता है, राह मुसाफिर हो जाती है कभी-कभी।

कभी-कभी हासिल-ए-जिंदगी भूल जाता है वो,
और बेचैनियों के हवाले खुद को पाता है कभी-कभी।

कभी-कभी वह सिमटकर रंगमंच हो जाता है,
और बड़े नाट्यकार लड़ने लगते हैं उसके अंदर कभी-कभी।


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