दो नदियाँ जहाँ मिलती हैं
दूर तक फैली घाटियों से आकर
सर्पीली धाराओं में बदल जाती हैं
और मिलती हैं एक दूसरे से
जैसे दो आकाशगंगायें खिंची आ रही हों
एक दूसरे की तरफ गुरुत्वाकर्षण से
लेकिन बहुत धीरे-धीरे चलते-चलते,
आकार लेती हैं संगम के आसपास कुछ ऐसे
कि जिसके आगे
सारे स्केच निरस्त हो जाते हैं
असहाय खड़ा देखता रहता हूँ कैनवास की तरफ
रंगों में सूखी हुई एक कूँची लिये हुये
जो नदी में भीग जायेगी
तभी चित्र बना पायेगी
और आवाज़ होती है कल-कल की
जैसे किसी नव-सन्यासी के हाथ में आकर
एक सारंगी धन्य हो गयी हो
और अपनी तान से मोह लेने की जिद पर अड़ गयी हो।

सामने एक मठ की जर्जर दीवारें हैं
जहाँ कुछ मठाधीशों ने बैठकर
ब्रह्माण्ड की परिकल्पना पर चिंतन किया होगा
और संगम के मानी तलाशे होंगे
जिसे बाद में
ग्रामवासियों में बाँट दिया गया होगा
मठ की दीवारें
अब नूतनता का भार उठा सकने में
अब उतना समर्थ नहीं रह गयी हैं शायद
और कहीं दूर से
जीवनदर्शन को फिर से परिभाषित करने के संकल्प
प्रतिध्वनित हो रहे होंगे,
नीचे अर्ध चंद्राकार इस गाँव में
चित्र बनाने के लिये बहुत तत्व मौजूद हैं
मैं प्रयासरत हूँ।

जिस पगडण्डी में बैठकर
आसमान को स्केचबोर्ड पर टांग कर
प्रकृति की रंगों वाली थाली से कूँची में लेकर
मैं रंग भर रहा हूँ
उसके पीछे कुछ दूर जाकर एक झील है
जिसमें सूर्यास्त के अलग-अलग रंग दिखते हैं,
एक, उस सूरज का जो चला गया है
अपने पीछे हल्की छाया छोड़कर
जिसमें उदास शांत झील का पानी
साँझ के चाँद को डुबो लेता है,
दूसरा, उस सूरज का जो अभी अस्त नहीं हुआ है
और जिसकी गर्माहट में पानी ने
तलहटी को किरणों को सौंप दिया है
झील की गहराई पुलकित होकर
सूरज को देखने किनारे पर आ खड़ी होती है,
झील को घेरे खड़े हैं
घास के कुछ छोटे-बड़े गट्ठर
जो शायद झील की प्रशंसा सुनकर
यहाँ आ गये होंगे।

नीचे एक राह है
जो नदी का पीछा करते करते चली जायेगी
संकरी होती हुये
जिस पर चलते हुये हम
इतिहास के रंगों में हम सराबोर हो जायेंगे
लेकिन हम कहीं पहुंचेंगे नहीं
राहें कहीं पहुँचती नहीं हैं
पहुँचते हम मनुष्य हैं
राहें चलती चली जाती हैं
मनुष्य के अंदर से लेकर
ब्रह्माण्ड के अनदेखे, अकल्पित कोनों तक;
और कच्ची मिटटी की बनी दीवारों से
हज़ार साल पहले के रंग
मैं अपने चित्र में रंगने के लिये ले आया हूँ
मरुस्थलीय कृत्रिम खेती की तरह नहीं
खालिस प्राकृतिक, जिजीविषा से बनाये गए रंग
जिसने अपने आपको सहेज कर रखा है
विपरीत परिस्थितियों में रहने के बाद भी।

स्पीति,
कुछ महीने पहले मैं तुमसे मिला था,
या शायद कुछ वर्ष हो गये हैं,
तबसे एक अदद चित्र के प्रयास में
कैनवास में कौन-कौन सी आड़ी-तिरछी रेखायें नहीं खींची गयी हैं
कौन-कौन से रंगों के मिश्रण नहीं आजमाये गये हैं
कौन-कौन से चित्रकार के नुस्खे नहीं पढ़े गये हैं
लेकिन मैं तुम्हारा चित्र नहीं बना सका,
और मेरे लिये यह
वास्तविकता से साक्षात्कार की बात थी,
क्योंकि अपनी रंगों की दुनिया में डूबा हुआ
मैं अपनी तरह का एक अदना चित्रकार था।


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