ऊपर तुम
रात में चाँद को अपने सिर पर ओढ़े हुये
और झरनों के उदगम को
इतिहास की उठापटक को
सीने में दबाये हुये
बर्फ़ की मोटी चादर में
धरती के रहस्य छिपाये हुये,
ऊपर तुम
जहाँ बादल आकर सुस्ताते हैं
जहाँ अभी सूरज को जाकर
तैय्यार होना है कल के लिये।

नीचे हम
खाने के बर्तन खनखनाते हुये
वॉलीबॉल के खेल में ख़ुद को उलझाते हुये
दूर प्रदेशों की यादों में पहचान पाते हुये,
लेकर अपनी मानवता का भार
हम, तुम पर विजय प्राप्त करने की मंशा लिये हुये।

(धानद्रास, रूपिन घाटी में अज्ञेय की कविता 'नन्दा देवी' पढ़ते हुये)


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