तुमने कह दिया है
और यह बड़ी बात है।
जिस दौर में
सांसें चलती रहें
बस यही जीवन का पर्याय हो जाये
जहाँ हम अपने आसपास की मुश्किलों को देखकर
आंखें मूँद लें
और मान लें
कि कुछ बदलाव लाना हमारी जिम्मेदारी से बाहर है
जहाँ शोषण के खिलाफ
कुछ भी बोलना बस खानापूरी रह जाये
जहाँ कोई कुछ सोचता न हो
और मान लेता हो
कि अच्छा दौर उसके बिना कुछ किये
आखिरकार आ ही जायेगा
जिस दौर में कोई अन्याय के विरुद्ध लड़ता न हो
किसी की जिंदगी प्रभावित न होती हो
जिस दौर में अख़बारों की सुर्खियाँ
आवारा भीड़ के कारनामों से भरी रहती हैं
लेकिन उन पर अपनी सहूलियत के मुताबिक़
चुप रहा जाये
जहाँ व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मायने
किसी स्वप्नलोक समाज की परिकल्पना के आगे धूमिल हो जायेंगे,
उस दौर में तुमने व्यवस्था के विरुद्ध कुछ कह दिया है,
और यह बड़ी बात है।


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