मैं सुबह जब घर से निकलता हूँ
तो मैं बहुत बड़ा दार्शनिक होता हूँ,
मेरे पास
संसार की हर एक समस्या के लिये
अचूक नुस्ख़े होते हैं,
मैं मानता हूँ
कि दुनिया मेरी है
और मेरे लिये ही बनी है,
मैं ये भी मानता हूँ
कि दर्शनशास्त्रियों की थ्योरीज़ में है कोई ताक़त
और इनमें से ही कोई थ्योरी
संसार में यूटोपिया लाने का माद्दा रखती है
जिसके लिये तर्क किया जाना ज़रूरी है,
यह मंशा होती है
कि सत्य निकालकर लाया जाये
और उजाले के लिये खड़ा किया जाये
ताकि मिटाई न जा सके सभ्यता की प्रगति
और खोई न जा सके
उपलब्धियाँ मनुष्य प्रजाति की,
मैं यह जानता हूँ
कि भविष्य की राह पर चला जा सकता है
और पाया जा सकता है मोक्ष
जिस रूप में मैंने उसे देखा है,
उठा सकता हूँ
संसार का भार अपने तर्कों पर
और देख सकता हूँ संसार के पार,
देखो, मैं सुबह बहुत आशावादी होता हूँ।

शाम को जब घर लौटता हूँ
तब दर्शन सारा भूल चुका होता हूँ
और यथार्थवादी होता हूँ
(वो भी शायद अपने आप में एक तरह का दर्शन है)
दुनिया देखने के लिये सभी थ्योरीज़ के चश्मे हटाने ज़रूरी हैं
(शेक्सपीयर ने कहा था
कि स्वर्ग और पृथ्वी पर उतने से ज़्यादा चीज़ें हैं
जितने की कल्पना अभी तुम्हारे दर्शनों में की गयी हैं)
और दुनिया जैसी है
उसको वैसी ही देखने का प्रयास करता हूँ
और दुनिया कैसी है
ये जानने का प्रयास अपने अनुभव से ही कीजिये।


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