१.
सूरज की किरणों ने जैसे खींच दिए हों वीणा के तार नभ में
उजले बादलों ने किया उस पर आघात
हवायें कांप रहीं हैं
दिशायें सुर लहरियाँ लेकर दौड़ रही हैं
पंछी कर रहे हैं कलरव गान
और झनझना उठे हैं तार।

२.
पूरब में खो रहा है पुराना भविष्य
पश्चिम में उदय हो रहा है नया इतिहास
पौ फूटती है
समय घुल रहा है आकाश में
जरा कुछ यादगार पलों की आकृतियाँ
आकाश से ढूँढ़कर लाओ तो सही।

३.
जो व्याप्त है, अनन्त है, वो ब्रह्म है
जो स्थिर है, शून्य है, वो आत्म है
किन्तु
'तत् त्वम् असि'*
शून्य ही अनन्त है
अनन्त ही शून्य है
और सूर्योदय के बाद ये लाल किरणें
निकल पड़ी हैं शून्य से अनन्त की यात्रा पर
आत्म से संचालित और ब्रह्म में घुल जाने के लिये।

४.
समय घुल रहा है समय में
समय चक्रीय है
जिसमें समय देखता है स्वयं को
मैं दे रहा हूँ ढील मन के पंखों को
टूट रही हैं वर्जनायें
सुदूर क्षितिज में आशा का उत्सव चला है
मैं दे रहा हूँ तिलांजलि बेमानी शब्दों को
एक नया शून्य, एक नया अनन्त परिभाषित हो रहा है
मैं महसूस कर रहा हूँ।

* 'तत् त्वम् असि' - (That art thouछान्दोग्योपनिषद् 6.8.7|


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