फागुन के किसी एक दिन
खेत में खड़ी अनगिनत
गेहूँ की बालियों में से
गेहूँ की एक बाली
अपनी सृजन क्षमता को जान बैठी
उसने जाना कि वह एक सर्जक है
सैकड़ों नए पौधों की
सैकड़ों नयी पीढ़ियों की
बस फिर क्या था
गेहूँ की उस बाली ने
सूखकर पकने से
साफ़ इंकार कर दिया
खेत में वो अकेली बाली
अभी तक हरी खड़ी थी।

सबकी समझ से बाहर
यह एक नयी समस्या थी
गाँव के कुछ समझदार लोगों को बुलाया गया
खेत के खेत
एक साथ पकने देख के आदी
उनकी समझ में भी नहीं आया
कि यह अकेली बाली
विद्रोह पर क्यों उतारू है
खाद मिटटी पानी हवा
कमी किस चीज में हुई आखिर
इस डर से
कि कहीं अन्य बालियाँ भी
इसी रास्ते पर न चल उठें
उस बाली को बाकी बालियों के साथ
काटने का आदेश दे दिया गया।

हंसिया चलती रही
गेहूँ की वह बाली चिल्लाती रही -
मैं सर्जक हूँ
मैं सृजन का कारक हूँ
मैं सकल विश्व की रचना का
एक क्षुद्र मापक हूँ
मैं ब्रह्मा हूँ
एक छोटी भावी सृष्टि का
मैं अधिनायक हूँ
मैं जीव मात्र में जीवन का संचालक हूँ
मैं जीवन का संचायक हूँ;
अंत में वह बाली भी
कट कर धरती पर आ गिरी
और झोंक दी गई
किन्हीं जरूरतों में
चुपचाप खप जाने के लिए।


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