मेज के एक कोने में पड़े हुये
कोरे कागज के कुछ पर्चे
और एक पुरानी कलम
मैंने आज देखा
कि बहुत समय से
मेरी बाट जोहते हैं,

मैं किसी अद्वितीय विचार के
मन में आने की
प्रतीक्षा की अपेक्षा
आज किसी साधारण दिन
कलम और कागज का अवश्यंभावी निमंत्रण
स्वीकार करता हूँ,

पहले मैं एक खाका खींचना शुरू करता हूँ
एक पर्चे पर मैंने उतारा है
दरीचे से चाँद को देखते हुए
प्रियतमा का अक्स
उसके रूप को कागज पर उतारने की
अनगिनत असफल कोशिशें करता हूँ,

दूसरे पर्चे पर लिखता हूँ
गाँव की नदी के पानी को छूने की
आम के बगीचों में
दुपहरी बिताने को लालायित
शहर में खोये हुए
एक अनजान आदमी की व्याकुलता,

तीसरे पर्चे पर बनाता हूँ
खाली जमीन पर उग आये
कुछ जंगली नीले फूलों को
जो हवा चलने पर मुदित हो उठते हैं
जो कल इमारत बनने पर
मटियामेट हो जायेंगे
सोचता हूँ कि
चीजें सुन्दर कितनी भी क्यों न हों
अनुपयोगी हो तो अवांछित ही होती हैं,

मैं सोचने लगता हूँ कि
इन सभी पर्चों को मिलाकर
रचना को अंतिम स्वरुप कैसे दूँ
तभी हड़बड़ी में
स्याही की बोतल
बिखरे हुए पर्चों पर फैल जाती है
सारे खाके स्याह धब्बों के पीछे
धुंधले धुंधले से नज़र आते हैं
मैं दोबारा लिखने की अपेक्षा
पलायन कर जाता हूँ,

मैं जानता हूँ कि
ये कागज़, कलम और स्याही
सिर्फ कागज़, कलम और स्याही नहीं हैं
ये कागज़ ज़िन्दगी है,
ये कलम मेरे विचार हैं
और स्याही है ये परिस्थितियाँ।


One Comment