सूर्योदय और सूर्यास्त, भोर और साँझ 

प्रकृति की दो प्रक्रियाएँ हमेशा से ही आकर्षित करती रही हैं। वो हैं - सूर्योदय और सूर्यास्त। भोर की वेला का आकर्षण होता है सूर्योदय और वैसे ही साँझ वेला का मुख्य आकर्षण सूर्यास्त होता है। मुझे अच्छी तरह से याद है कि बचपन में स्कूल की दीवारों पर लिखी हुई सूक्तियों में एक यह भी हुआ करती थी कि "सूर्य न तो अस्त होता है और न उदय, हम ही जागकर सो जाते हैं।" अब बाल मन ने कहावत पढ़ी और अनदेखा कर दिया, हर दिन। उस समय इस कहावत के खगोलीय और दार्शनिक महत्व के बारे में ज्यादा पता न था। और अब हालत ये है कि सूर्योदय और सूर्यास्त को देखते ही मेरे अंदर का दार्शनिक जाग उठता है। हालाँकि दिनचर्या ऐसी है कि इनको देखना कम ही हो पाता है। और ऐसा भी नहीं है कि सूर्योदय को देखकर सबके मन में सिर्फ दार्शनिक विचार ही आते हैं। लेखक जरॉड किंट्ज़ ने तो सूर्य के चाल-चलन की ही शिकायत कर दी। कारण भी ये कि भोर में सूर्य रेंगते हुए खिड़कियों पर चढ़ आता हैं और वहां से झांकता है। लेकिन घबराइये नहीं। सूर्य के चरित्र-हनन का मेरा कोई इरादा नहीं है। 

उखीमठ, उत्तराखंड में गढ़वाल मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउस की एक भोर आज तक नहीं भूलती है। वैसे तो हिमालय में सूर्योदय के उत्तम दृश्य देखने के लिए कुछ जगहें ही उपयुक्त कही जा सकती हैं और वो इसलिए क्यूंकि ज्यादातर पहाड़ी बस्तियां पर्वतों से घिरी होती हैं। जब तक सूर्य पहाड़ों के ऊपर आता है, तब तक दिन काफी चढ़ चुका होता है और सूर्य अपना नवजातपन खो चुका होता है। मुझे याद है कि एक बार हृषिकेश में सूर्योदय देखने के लिए हमने रात्रि-जागरण किया था लेकिन सुबह सूर्य दिखने तक भोर का नामोनिशान गायब हो चुका था। खैर उखीमठ ने हमें निराश नहीं किया। वहां से हिमाच्छादित पहाड़ों की छटा बस देखते ही बनती थी। सामने गुप्तकाशी और बीच में घाटी में बह रही मन्दाकिनी नदी की कर्णप्रिय आवाज और फिर बादलों से अठखेलियाँ करता हुआ सूरज। जनवरी के महीने में सूर्य की गुनगुनी किरणें किसी वरदान से कम तो नहीं लग रही थीं। और सूर्य की लालिमा से बादल और बर्फ से ढके पहाड़ भी लाल लग रहे थे। 

हृषिकेश में सूर्योदय देखने का सौभाग्य हमें प्राप्त नहीं हुआ, लेकिन सूर्यास्त जरूर देखा यहाँ पर। त्रिवेणी घाट से हमने सूर्य को नीचे मैदानों की तरफ जाते देखा। उस जगह से गंगा नदी भी एक मोड़ लेकर आँखों से ओझल हुई जा रही थी और सूर्य भी अस्त हो रहा था। ऐसा लग रहा था कि उस जगह तक प्रकृति की सत्ता है और उसके बाद मनुष्य की। मसूरी की साँझ भी कम शानदार नहीं कही जा सकती। पहाड़ों से रहित एक साँझ में हमने पूरा सूर्यास्त देखा। सूर्य को धीरे धीरे लाल होते देखा और फिर पूरा क्षितिज लाल था, पहाड़ों का बस धुंधला सा खाका देखा जा सकता था। कुछ देर बाद सूर्य जब और अस्ताचल की ओर बढ़ चला तब आसमान में एक रेखा साफ़ देखी जा सकती थी जिसके नीचे अंधकार था और जिसके ऊपर लाल रौशनी जगमगा रही थी। जब सूर्य दिखना बंद हो गया तब लाल आकाश के नीचे देहरादून शहर में जलते हुए प्रकाश बिम्ब साँझ की शोभा बढ़ा रहे थे। 

कभी कभी सोचता हूँ कि मनुष्य को सूर्योदय और सूर्यास्त क्यों अच्छा लगता है। सूर्योदय को अच्छा लगने के पीछे यह कारण हो सकता है कि मनुष्य की इस धारणा की पुष्टि होती है कि अंधकार नित्य नहीं रहेगा। हमारी संस्कृति में अंधकार को बुराई और प्रकाश को अच्छाई का प्रतीक माना गया है। प्रतिदिन सूर्योदय उस बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। और सहज ही समझा जा सकता है कि पुराने समय में लोग सूर्योदय की इतनी बेसब्री से प्रतीक्षा क्यों करते होंगे। और रही बात सूर्यास्त की तो उसको भी अच्छाई-बुराई से जोड़ते हुए यह कहा जा सकता है कि लोगों को पता है कि यह जो अँधेरा सूर्यास्त ला रहा है वो क्षणिक है, कल फिर सूर्योदय होगा और अंधकार पराजित होगा। इसलिए वो उत्साह से भोर का इंतज़ार करते हैं। 

कभी यह नहीं सोचा था कि सूर्योदय और सूर्यास्त में ज्यादा कौन अच्छा लगता है। मुझसे यह प्रश्न हिंदी साहित्य जगत के नवांकुरों में से एक ने पूछा था। मैंने थोड़ा सोचा इस बारे में, लेकिन बुद्धिजीवियों को संतुष्ट कर पाने वाला जवाब नहीं मिला। मैंने बताया कि सूर्यास्त ज्यादा अच्छा लगता है क्योंकि वो आँखों को ज्यादा सुखदायी होता है। तब उस नवांकुर ने बताया , "किसी चीज की सुंदरता का एहसास तब ज्यादा होता है जब वह हमसे दूर जा रही हो, बजाय इसके कि जब वह चीज हमारे पास आई हो और काफी दिन तक साथ रहे। और जब हम किसी चीज को जाते हुए देखते हैं तो हम उसे देखने के लिए रुकते हैं। उससे आत्मीयता का एहसास होता है। उगते हुए सूरज की वैसे तो कुछ लोग पूजा भी करते हैं लेकिन उसे उगते हुए देखने के लिए कोई रुकता नहीं है जैसे कि लोग अस्त होते हुए सूरज को देखने के लिए रुकते हैं।" सचमुच इस प्रश्न का इससे खूबसूरत दार्शनिक जवाब संभव नहीं था।

मसूरी की एक साँझ
मसूरी की एक साँझ
(तस्वीर धर्मेन्द्र कुमार  के सौजन्य से )


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