तुम्हें याद है
एक अलसाई साँझ को
अमेज़न की रसीद के पीछे
तुमने अपनी घुमावदार लिखावट में
मेरा नाम लिखा था।

यूँ तो इन आड़ी-तिरछी रेखाओं के
और कलम के घुमाव के कोई मानी नहीं थे
ठीक वैसे ही जैसे काजल के दो आखिरी घेरे
या तुम्हारे अनमने भाव से किये गए अभिवादन,
मैंने मानी तलाशने की कोशिश भी नहीं की
कभी गैर-आदतन हो गई कुछ बातों के
मानी होते भी हैं कि नहीं
यह कैसे कहा जा सकता है,
पर गुजरी हुई उस शाम की इबादत के लिए
मैंने अभी तक उसे संभाल कर रखा है
नतीजतन हुआ यह है
कि वह कागज़ की रसीद
शायद खरीदे गए सामान से भी ज्यादा कीमती हो गई है
और लोगों ने
उस नाम के चारों ओर
मेरे और तुम्हारे मुख्य किरदार वाली
कितनी ही कहानियाँ बना दी हैं।

(गुलज़ार की एक नज़्म को समर्पित)


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