चहारदीवारी के बाहर कुछ पेड़ खड़े हैं
उनके बाहर हैं कुछ खाली कुर्सियाँ
बाट जोहती हुई
आदत से मजबूर किसी इंसान की,
उसके बाहर दूर तक
फैले हैं धान के खेत
ओढ़ ली है हरियाली चादर
यादों की नमी से कुछ फसलें उपजती हैं,
उसके पार हैं कुछ पहाड़ियाँ
जहाँ से पत्थर गिरते हैं
पर गिरते भी नहीं हैं
अटक जाते हैं खयाल बनकर
सरकते रहते हैं जिन्दगी के लम्हे बनकर,
उसके पार हैं कुछ मन्दिर
पहाड़ी की दुर्गम चोटी पर
जहाँ झंडियाँ हवा में फड़फड़ाती हैं
जहाँ से निकलते हैं मंत्र पुराने,
उसके पार भी कोई जगह है
जहाँ कोई खाली कुर्सी नहीं है
जहाँ नमी से हरियाली नहीं निकली है
जहाँ जिन्दगी अटकती नहीं है
जहाँ झण्डों का कोई नामोनिशां नहीं है।

वहाँ मैं और तुम बैठे हैं
तुमने परिप्रेक्ष्य की प्रत्यंचा पर
शब्द तान दिए हैं,
वर्तमान की अंगीठी में
हम स्मृतियाँ सेंक रहे हैं,
हवा भयभीत होकर
उलझाने लगी है ज़ुल्फें तुम्हारी,
तुम्हारे माथे की बिन्दी से
निकलते हैं अथाह रंग
झण्डों को रंगते चले जाते हैं
रंग फैलते हैं क्षितिज के कोने तक
देखो सूरज भी आज रंगकर ही जायेगा
और दिखती है
बादलों के कोनों पर एक उजली पट्टी,
मैं थम गया हूँ वक़्त बनकर
और मुझसे निकल रहे हैं छन-छनकर
प्रत्यंचा से छूटे हुए शब्द।


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