इसी ज़मीं पर जीना इसी पर खाक होना
इंसान को कहाँ मयस्सर है आज़ाद होना।

पंख फैलाकर हवा में कहीं बेसुध उड़ जाना
दुश्वार है यहाँ ये इक सपना साकार होना।

तरह तरह के पहरे हैं रूह पर कि दिन में
खुश एक बार होना ग़मज़दा बार बार होना।

ख्वाब में जियो या हक़ीक़त में किसे मालूम
इतनी बड़ी बात नहीं है तेरा होना या ना होना।

लाख गुल हों चमन में तो भी वो रौनक कहाँ
भँवरा ना आए तो क्या फस्ल-ए-बहार होना।

देखकर किसी का दर्द क्यों मुँह फेरता है तू
इतना मुश्किल हो गया क्या ग़म-गुसार होना।

ना अपनी मर्ज़ी से आए और ना ही जाना है
जिंदगी कहने को खुद की कहाँ अधिकार होना।*

दूर के सफ़र में थक कर जब चूर हो जाना
तब तुम इन दरख्तों का शुक्रगुज़ार होना।

सफ़र ही जब मंज़िल हो यायावर की तो कहिए
क्या इन्तहा है क्या आर होना क्या पार होना।


* इस बात पर शायर ज़ौक़ का एक शेर याद आता है :
लाई हयात आए, कज़ा ले चली चले,
अपनी खुशी से आए ना अपनी खुशी चले

मयस्सर - feasible; फस्ल-ए-बहार - spring season; ग़म-गुसार - one who consoles; दरख्त - tree; हयात - life, existence; कज़ा - destiny, death


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