नदिया चले, चले रे धारा

हर बार हिमालय की गोद में आकर कल-कल बहते हुए पानी को देखकर वैसे तो बहुत कुछ सीखने को मिलता है, लेकिन ऐसा कुछ है जो कि मन में बस सा गया है। अगर आपने कानपुर और वाराणसी में गंगा के पानी को देखा होगा तो आपको जरूर हृषिकेश में गंगाजल की याद आई होगी, जहाँ पर आप नदी का तल देख सकते हैं, पानी इतना स्वच्छ है। थोड़ा आगे जाकर आपने दूर से देवप्रयाग में भागीरथी और मन्दाकिनी के संगम को भी देखा होगा, जहाँ एक मटमैली धारा एक हरे रंग की धारा के साथ मिलती है। देहरादून जाते समय पथरीली घाटी भी दिखाई दी होगी, जो वैसे तो पूरे साल सूखी रहती है लेकिन बरसात में रौद्र रूप धारण कर लेती है। कसोल में पार्वती नदी को देखकर बस एक ही चीज मन में आती है कि नदी के उस पार तैरकर जाना संभव भी है क्या। और देवरिया ताल में छोटी सी झील को देखकर महाभारत काल में चले जाना स्वाभाविक है क्योंकि मान्यताओं के अनुसार इसी झील के किनारे यक्ष ने युधिष्ठिर से प्रश्न किये थे।

ये हिमालय से निकलने वाली धाराएं कोई सामान्य धाराएं नहीं हैं और जैसा कि मैंने पहले भी ‘नदी बहती रही’ में कहा है कि मनुष्य के जीवन और नदी के बहाव में अत्यधिक समानताएं हैं। जैसे मनुष्य अपने बाल्यकाल में शरारती स्वाभाव का होता है जिसे संसार के किसी भी दुःख दर्द की परवाह नहीं होती है और जिसका दिन खेलते कूदते हुए ही बीत जाता है उसी प्रकार नदी भी कंकरीली पथरीली भूमि पर बहते हुए उछलती कूदती हुई चली जाती है। जब मनुष्य परिपक्व हो जाता है उसके स्वभाव में एक गंभीरता आ जाती है, उसके निर्णयों में एक सोच समझ झलकती है उसी प्रकार नदी भी जब मैदानी भागों में प्रवेश करती है तो उसकी गति मंद पड़ जाती है मानों उसे जिम्मेदारियों के बोझ तले दबा दिया गया हो। जब मनुष्य वृद्धावस्था में प्रवेश करता है तो उसकी शक्ति क्षीण हो जाती है और ब्रह्मलीन होने के पहले उसका मन कई दिशाओं में भटकता रहता है। ठीक उसी प्रकार नदी भी सागर के पास पहुँचते पहुँचते बहुत धीमी हो जाती है, बीच में कई टापू उभर आते है और कई शाखाओं में बँट जाती है।

मनुष्य का जीवन हमेशा एक रूप में ही थोड़े ही रहा है। कभी तेज तो कभी धीमा। कभी प्रखर तो कभी समझौतावादी। कभी प्रयत्नशील तो कभी भाग्यवादी। कहीं जीत तो कहीं हार। कभी झुकना तो कभी फिर उठना। वैसे ही पानी को भी कई बार रूपांतरण करना पड़ा है। कभी बर्फ बनकर पहाड़ों पर थम गया तो कभी झरना बनकर बार बार पत्थर के विवेक पर चोट की है। कभी खेतों को सींचने के लिए थम गया तो कभी पहाड़ों को हिला देने वाली गति से चल उठा। कभी बाँध बनाकर इसे रोक दिया गया तो कभी भूस्खलन में पूरे पहाड़ आकर इसके कलेजे में धंस गये। कभी भगवान शंकर की जटा में बैठ गया तो कभी आंसू बनकर लोगों की भावनाओं की अभिव्यक्ति का साधन बना। और रैदास ने तो कहा भी है कि ‘तुम चन्दन हम पानी’ जिसमें उन्होंने पानी को सब कुछ आत्मसात करने वाला बता दिया है।

तो जब हरिद्वार में हर की पौड़ी में चण्डी देवी को निहारते हुए गंगा किनारे बैठकर सोचता हूँ कि इस बार इस आत्म मंथन से क्या लेकर जाऊंगा तो मैं सोचता हूँ कि जिंदगी में इतने अनगिनत पड़ाव आते हैं कभी सुख तो कभी दुःख झेलना पड़ता है। संसार में कितनी ही असफल जिंदगियाँ हैं, कितने ही दुर्गम रास्ते हैं और कितने ही अक्षम्य अपराध मनुष्य ने किये हैं जिसके कारण उसे हारकर बैठना पड़ता है। कितनी ही बार मनुष्य अनुत्तरीय प्रश्नों के आगे निरुत्तर रह गया है और बस अपने भाग्य को कोस कर रह गया है। कई बार क्या पाया है सोचने की बजाय क्या खोया ज्यादा सोचने लगता है। तो ऐसे में मैं फिर अविरल धारा की ओर आशा भरी नज़रों से देखता हूँ कि शायद यहाँ कोई जवाब मिल जाये।

और नदी की धारा ने मुझे यहाँ भी निराश नहीं किया। कितनी बार नदी की धारा को बाँध बनाकर मंद किया गया। अलग अलग धारायें निकालकर उसको क्षत-विक्षत किया गया। उसके किनारे मानव बस्तियाँ बसाकर उसको गन्दगी ढोने का एक साधन बना दिया गया। पूजा के नाम पर कितने फूलों पत्तियों को तोड़कर उसमें समाहित कर दिया गया। और तो और वर्षा की अति होने पर उसे हानि के लिए कोसा भी गया। मैंने पूँछा नदी से कि इतनी विपरीत परिस्थितियों के बाद कभी ऐसा नहीं लगता कि जीवन जिया ही क्यों जाये। नदी की एक छोटी सी धारा मेरे पैरों के पास रुकी और कहा कि कुछ भी घटित हो, आशातीत या आशानुरूप, जीवन निर्बाध रूप से चलता रहता है। इतना कहकर वह धारा फिर अपनी राह पर चल पड़ी।


नदिया चले, चले रे धारा । तुझको चलना होगा ।
नदिया चले, चले रे धारा । तुझको चलना होगा । 


आपने उस भजन की ये दो पंक्तियाँ सुनी होंगी कि 'जलाओ दिये पर रहे ध्यान इतना, अंधेरा धरा पर कहीं रह ना जाए।' अब धरा की बात तो छोड़ दीजिए चिराग तले ही अंधेरा होता है। कभी आपने सोचा है कि चिराग तले अंधेरा क्यों होता है? दिया जलने से पहले और उसके बुझने के बाद भी अगर कोई चीज़ स्थाई रहती है तो वो है अंधेरा। तो फिर दिया जलाते ही क्यों हैं? दिया इसलिए जलाया जाता है कि भले ही अंधेरा ताकतवर हो, स्थाई हो लेकिन उस से लड़ना तो होगा ही। और हमेशा लड़ते रहना होगा क्योंकि अंधेरे को कुछ क्षणों के लिए पराजित तो किया जा सकता है लेकिन उसका जड़ से उन्मूलन नहीं किया जा सकता। हम दिया जलाकर अपने इस निश्चय के प्रति प्रतिबद्धता जताते हैं कि हम अंधेरे से लड़ते ही रहेंगे। 

तामसिक और सात्विक प्रवृत्तियों की इस लड़ाई में तामसिक प्रवृत्तियों का पलड़ा भारी है ऐसा कहने वाला मैं अकेला नहीं हूँ। आपने हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की कालजयी रचना 'नाख़ून क्यों बढ़ते हैं' अवश्य पढ़ी होगी। अगर नही पढ़ी है तो पढ़िएगा। इसमें द्विवेदी जी से एक छोटी बच्ची पूंछ बैठती है कि नाख़ून क्यों बढ़ते हैं। द्विवेदी जी इस सवाल पर बहुत सोचते हैं और अंत में इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि नाख़ून पाशविक प्रवृत्तियों का प्रतीक हैं और मनुष्य को हमेशा याद दिलाते हैं कि पहले वो पशु था। मनुष्य नाख़ून को काटकर इस तथ्य को झुठलाने की कोशिश करता है लेकिन नाख़ून दोबारा बढ़ आते हैं। और इस द्वंद में मनुष्य को हमेशा लड़ते रहना होगा। वो कभी भी पाशविक प्रवृत्तियों को हावी नहीं होने दे सकता और न ही कभी यह मानकर बैठ सकता है कि पाशविक प्रवृत्तियाँ समाप्त हो गई हैं।

मैं और उदाहरण देता हूँ। हम हर वर्ष विजयादशमी पर बुराई रूपी रावण पर अच्छाई रूपी राम की जीत का उत्सव मनाते हैं। हम दीपावली पर दिये जलाकर अंधकार पर प्रकाश की जीत की खुशियाँ मनाते हैं। लेकिन हर वर्ष क्यों? हम यह मानकर बैठ क्यों नहीं जाते कि अच्छाई सदा के लिए जीत गई है या प्रकाश हमेशा के लिए अंधकार पर हावी हो गया है। क्योंकि हम यह जानते हैं कि यह जीत, यह उल्लास क्षणिक है। क्योंकि हम यह जानते हैं कि तम ही टिकाऊ है। और इसको झुठलाने के लिए हम बार बार लड़ते रहते हैं। आपने देखा होगा, सुना होगा कि संत महात्मा लोगों को सही राह पर चलने का उपदेश दिया करते हैं। और ऐसा वो सदियों से करते आ रहे हैं। मनुष्य को सही राह पर लाने में हज़ारों वर्ष लग गये और अब भी यह नहीं माना जा सकता कि वह सही राह पर आ गया है क्योंकि उनका उपदेश अब भी जारी है। तो महापुरुष हमेशा प्रयत्नशील रहे हैं कि मनुष्य दुर्व्यसनों को छोड़कर सदाचारी जीवन व्यतीत करे लेकिन तामसिक प्रवृत्तियाँ रह रह के हावी हो जाती हैं। अगर यहाँ पर विज्ञान को ले आया जाए तो यह स्वाभाविक हो जाएगा कि कोई भी वस्तु हमेशा उच्च क्षमता से निम्न क्षमता की ओर ही बहती है और निम्न क्षमता से उच्च क्षमता से जाने के लिए कार्य करना पड़ता है। 

अब सवाल यह उठता है कि तामसिक प्रवृत्तियाँ स्थाई क्यों होती हैं और सात्विक प्रवृत्तियाँ क्षणभन्गुर क्यों। इसका जवाब है प्रयत्न। कभी भी यथास्थिति को बदलने के लिए प्रयत्न करना पड़ता है और प्रकृति के हर तत्व का गुण होता है यथास्थिति बनाए रखना अर्थात प्रयत्न ना करना। अंधेरे को चीरने के लिए लौ को प्रयत्न करना ही पड़ता है। उर्जा भी चाहिए होती है। अगर आप डार्विनवाद को मानते हैं तो आप भी मानेंगे कि अगर मनुष्य में जिजीविषा ना होती तो मनुष्य भी इतिहास में कहीं अदृश्य हो गया होता या आज भी बंदर होता लेकिन मनुष्य ने विकास के लिए प्रयत्न किया। और जब यही प्रयत्न बंद हो जाता है तो मनुष्य तामसिक गुणों का शिकार हो जाता है क्योंकि उसके लिए किसी प्रयत्न की आवश्यकता नहीं पड़ती। 

लेकिन प्रयत्न किया ही क्यों जाए? जवाब है आनंद की अनुभूति। सोच के देखिए कोलम्बस को नयी दुनिया खोज कर कितना आनंद आया होगा या चाँद पर पहला कदम रखते हुए नील आर्मस्ट्रॉंग को कितनी खुशी हुई होगी। न्यूटन ने सेब गिरते हुए देखकर गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की ही खोज कर दी। चाहते तो वो भी मनुष्य के पूर्वज बंदरों की भाँति सेब खाकर बगीचे में आराम फरमाते रहते। विश्वास कीजिएगा तामसिक प्रवृत्तियों मे क्षणिक आनंद आ सकता है पर सात्विक तरीके से पाया हुआ कुछ भी अत्यधिक आनंददायी होता है। मैं यह मानने के लिए तैयार हूँ कि उसे पाना थोड़ा मुश्किल हो सकता है। 

और जब बात जलने की होती है तो मुझे अपने एक शिक्षक की बात याद आ जाती है जो कि उन्होंने हम लोगों से लगभग एक दशक पहले कही थी कि अंतिम विजय ही विजय होती है। मैं उनकी पंक्तियों को ही उद्धृत कर देता हूँ, "एक बात हमेशा याद रखना कि जलते दोनों हैं। जलते दोनों हैं मगर एक जल कर बुझता है और एक बुझकर जलता है। लेकिन दुनिया उसे ही याद रखती है जो बुझकर जलता है।"


सूर्योदय और सूर्यास्त, भोर और साँझ 

प्रकृति की दो प्रक्रियाएँ हमेशा से ही आकर्षित करती रही हैं। वो हैं - सूर्योदय और सूर्यास्त। भोर की वेला का आकर्षण होता है सूर्योदय और वैसे ही साँझ वेला का मुख्य आकर्षण सूर्यास्त होता है। मुझे अच्छी तरह से याद है कि बचपन में स्कूल की दीवारों पर लिखी हुई सूक्तियों में एक यह भी हुआ करती थी कि "सूर्य न तो अस्त होता है और न उदय, हम ही जागकर सो जाते हैं।" अब बाल मन ने कहावत पढ़ी और अनदेखा कर दिया, हर दिन। उस समय इस कहावत के खगोलीय और दार्शनिक महत्व के बारे में ज्यादा पता न था। और अब हालत ये है कि सूर्योदय और सूर्यास्त को देखते ही मेरे अंदर का दार्शनिक जाग उठता है। हालाँकि दिनचर्या ऐसी है कि इनको देखना कम ही हो पाता है। और ऐसा भी नहीं है कि सूर्योदय को देखकर सबके मन में सिर्फ दार्शनिक विचार ही आते हैं। लेखक जरॉड किंट्ज़ ने तो सूर्य के चाल-चलन की ही शिकायत कर दी। कारण भी ये कि भोर में सूर्य रेंगते हुए खिड़कियों पर चढ़ आता हैं और वहां से झांकता है। लेकिन घबराइये नहीं। सूर्य के चरित्र-हनन का मेरा कोई इरादा नहीं है। 

उखीमठ, उत्तराखंड में गढ़वाल मंडल विकास निगम के गेस्ट हाउस की एक भोर आज तक नहीं भूलती है। वैसे तो हिमालय में सूर्योदय के उत्तम दृश्य देखने के लिए कुछ जगहें ही उपयुक्त कही जा सकती हैं और वो इसलिए क्यूंकि ज्यादातर पहाड़ी बस्तियां पर्वतों से घिरी होती हैं। जब तक सूर्य पहाड़ों के ऊपर आता है, तब तक दिन काफी चढ़ चुका होता है और सूर्य अपना नवजातपन खो चुका होता है। मुझे याद है कि एक बार हृषिकेश में सूर्योदय देखने के लिए हमने रात्रि-जागरण किया था लेकिन सुबह सूर्य दिखने तक भोर का नामोनिशान गायब हो चुका था। खैर उखीमठ ने हमें निराश नहीं किया। वहां से हिमाच्छादित पहाड़ों की छटा बस देखते ही बनती थी। सामने गुप्तकाशी और बीच में घाटी में बह रही मन्दाकिनी नदी की कर्णप्रिय आवाज और फिर बादलों से अठखेलियाँ करता हुआ सूरज। जनवरी के महीने में सूर्य की गुनगुनी किरणें किसी वरदान से कम तो नहीं लग रही थीं। और सूर्य की लालिमा से बादल और बर्फ से ढके पहाड़ भी लाल लग रहे थे। 

हृषिकेश में सूर्योदय देखने का सौभाग्य हमें प्राप्त नहीं हुआ, लेकिन सूर्यास्त जरूर देखा यहाँ पर। त्रिवेणी घाट से हमने सूर्य को नीचे मैदानों की तरफ जाते देखा। उस जगह से गंगा नदी भी एक मोड़ लेकर आँखों से ओझल हुई जा रही थी और सूर्य भी अस्त हो रहा था। ऐसा लग रहा था कि उस जगह तक प्रकृति की सत्ता है और उसके बाद मनुष्य की। मसूरी की साँझ भी कम शानदार नहीं कही जा सकती। पहाड़ों से रहित एक साँझ में हमने पूरा सूर्यास्त देखा। सूर्य को धीरे धीरे लाल होते देखा और फिर पूरा क्षितिज लाल था, पहाड़ों का बस धुंधला सा खाका देखा जा सकता था। कुछ देर बाद सूर्य जब और अस्ताचल की ओर बढ़ चला तब आसमान में एक रेखा साफ़ देखी जा सकती थी जिसके नीचे अंधकार था और जिसके ऊपर लाल रौशनी जगमगा रही थी। जब सूर्य दिखना बंद हो गया तब लाल आकाश के नीचे देहरादून शहर में जलते हुए प्रकाश बिम्ब साँझ की शोभा बढ़ा रहे थे। 

कभी कभी सोचता हूँ कि मनुष्य को सूर्योदय और सूर्यास्त क्यों अच्छा लगता है। सूर्योदय को अच्छा लगने के पीछे यह कारण हो सकता है कि मनुष्य की इस धारणा की पुष्टि होती है कि अंधकार नित्य नहीं रहेगा। हमारी संस्कृति में अंधकार को बुराई और प्रकाश को अच्छाई का प्रतीक माना गया है। प्रतिदिन सूर्योदय उस बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। और सहज ही समझा जा सकता है कि पुराने समय में लोग सूर्योदय की इतनी बेसब्री से प्रतीक्षा क्यों करते होंगे। और रही बात सूर्यास्त की तो उसको भी अच्छाई-बुराई से जोड़ते हुए यह कहा जा सकता है कि लोगों को पता है कि यह जो अँधेरा सूर्यास्त ला रहा है वो क्षणिक है, कल फिर सूर्योदय होगा और अंधकार पराजित होगा। इसलिए वो उत्साह से भोर का इंतज़ार करते हैं। 

कभी यह नहीं सोचा था कि सूर्योदय और सूर्यास्त में ज्यादा कौन अच्छा लगता है। मुझसे यह प्रश्न हिंदी साहित्य जगत के नवांकुरों में से एक ने पूछा था। मैंने थोड़ा सोचा इस बारे में, लेकिन बुद्धिजीवियों को संतुष्ट कर पाने वाला जवाब नहीं मिला। मैंने बताया कि सूर्यास्त ज्यादा अच्छा लगता है क्योंकि वो आँखों को ज्यादा सुखदायी होता है। तब उस नवांकुर ने बताया , "किसी चीज की सुंदरता का एहसास तब ज्यादा होता है जब वह हमसे दूर जा रही हो, बजाय इसके कि जब वह चीज हमारे पास आई हो और काफी दिन तक साथ रहे। और जब हम किसी चीज को जाते हुए देखते हैं तो हम उसे देखने के लिए रुकते हैं। उससे आत्मीयता का एहसास होता है। उगते हुए सूरज की वैसे तो कुछ लोग पूजा भी करते हैं लेकिन उसे उगते हुए देखने के लिए कोई रुकता नहीं है जैसे कि लोग अस्त होते हुए सूरज को देखने के लिए रुकते हैं।" सचमुच इस प्रश्न का इससे खूबसूरत दार्शनिक जवाब संभव नहीं था।

मसूरी की एक साँझ
मसूरी की एक साँझ
(तस्वीर धर्मेन्द्र कुमार  के सौजन्य से )


यूँ तो हम बचपन से सुनते आये हैं कि हिमालय एक दुर्गम जगह है जहाँ पर रहना तो छोड़ दीजिये, ऊंचाई पर पहुँच पाना भी मुश्किल है। आये दिन भूस्खलन और पहाड़ी रास्तों पर होने वाली घटनाएं हम सुनते ही रहते हैं, जो कि हिमालय की कठिनाइयों को बयाँ करती हैं। इसी कारण से ये हिमालय पर्वत श्रृंखला भारत के लिए सदियों से एक प्राकृतिक सीमा का काम करती रही है। पहाड़ी रास्तों पर पत्थरों के गिरने का डर, नीचे गहरी खाईं में गिरने का डर, उफनाती बलखाती नदी में समा जाने का डर, अत्यधिक शीतल हवाओं का डर, बर्फ की एक मोटी परत, जो हफ़्तों घर से बाहर निकलने से रोक दे उसका डर आदि कितने सारे डर हिमालय के साथ जोड़ दिए जाते हैं। जितनी ऊंचाई बढती जाये डर उतना ही बढ़ता जाये। लेकिन आज हम इन डरों की बात नहीं करेंगे। 

आज हम इन सबसे इतर एक दूसरे ही डर की बात करेंगे। हिमालय की वादियों में खो जाने का डर। एक बार पहाड़ों में जाने और फिर वहीं के हो जाने का डर। सर्पीली पगडंडियों पर बस चलते चले जाने का डर। आँख बंद करके पहाड़ी के शिखर पर पहुँच जाने का डर। विहंगम दृश्य के आगे सांसें रोक लेने का डर। नदी के साथ घुलमिल जाने का डर। चीड़ देवदार के जंगलों को अपना आश्रय बना लेने का डर। हर बार इन पहाड़ों के सान्निध्य में आकर ऐसा लगता है कि कोई चीज तो ऐसी है इन पहाड़ों में जो कि यहाँ आने पर मजबूर करती है और एक विशेष आनंद से भर देती है। यहाँ पर किसी पहाड़ी की फुनगी पर बने मंदिर में किसी योगी को धूनी रमाये देख लीजियेगा तो आश्चर्य न कीजियेगा। यहाँ की हवाओं में कुछ बात है ही ऐसी जो कि सब कुछ छोड़कर बस अपनी धुन में लग जाने के लिए आमंत्रित करती है। जो इस आमंत्रण का प्रतिरोध न कर पाए वो आज खुद में मगन यहाँ प्रकृति के पास रह रहे हैं।

दूर किसी पहाड़ी की चोटी को चूमते हुए बादलों को देखकर मन में बस एक ही ख्याल आता है कि किस तरह इन बादलों के बीच पहुंचा जाये। यूँ तो पहाड़ों के बीच में कभी कभी कुछ बादल हमेशा आपको मिल जायेंगे जो कि ऐसे लगते हैं जैसे लम्बी यात्रा के बाद कुशलक्षेम पूछने के लिए उतर आये हों और कभी कभी ये राह भटके हुए बादल चेहरे के पास से ऐसे गुजरते हैं मानो ये हमसे भटके हुए सफ़र का रास्ता पूछ रहे हों। लेकिन भटके हुए इस बादल से भी मुझे बहुत सहानुभूति होती है। हर सफ़र की मंजिल थोड़े ही होती है। यकीन न मानियेगा तो ओस की उन बूंदों से पूछ लीजियेगा जो पूरी रात सितारों को बस निहारते हुए ही बिता देती हैं। 

मन कहता है कि घाटी में बहती नदी के उतार चढ़ाव से तालमेल बिठाया जाये, धारा के साथ बहा जाये। जाने कितने पहाड़ी गाँवों की कहानियां लिए ये कलकल करती नदी बहती जाती है। मन तो कहता है कि घाटी में नीचे उतारकर मैं नदी के किनारे बैठकर उसकी कहानियां सुनूँ, अपनी सुनाऊँ और उसके साथ गुनगुनाऊँ। ठंडी ठंडी हवायें, जो एक अलग ही ताजगी का अहसास कराती हैं, पत्तियों के बीच से सरसराहट करते हुए निकलती हैं और पहाड़ों की ढाल पर पेड़ों के बीच जीवन्तता का एक मात्र प्रतीक होती हैं। हवा धीरे धीरे मंद पड़ जाती है और दूर दूर जाते उसकी आवाज़ कहीं खो सी जाती है, लेकिन उसकी तरोताजगी आज भी चेहरे पे महसूस की जा सकती है और मन के किसी कोने में उसकी प्रतिध्वनि आज भी सुनी जा सकती है।
  
आप मुझे अतिशयोक्ति अलंकार का मनचाहा प्रयोग करने के लिए दोष दे सकते हैं लेकिन ऐसे माहौल में आकर अगर मन बहक जाये तो उसकी भी कोई खता नहीं मानी जाएगी। मुझे नहीं मालूम कि इन नीली पहाड़ियों में, एक दूसरे के कान में फुसफुसाते हुए पेड़ों में, अनवरत बहती चली जाने वाली नदियों में, भीड़ से अलग छोटे छोटे कुटीरों में, ठंडी हवाओं में, छोटे छोटे सीढ़ीनुमा खेतों में, नीले सफ़ेद जंगली फूलों में ऐसा क्या है जो मैं इनकी तरफ ऐसा लगाव अनुभव करता हूँ लेकिन ये डर जरुर लगता है कहीं मैं और हिमालय एक दूसरे को अपना न लें। और ये डर भी ऊंचाई के साथ बढ़ता ही जाता है। हिमालय में जितना ऊंचाई पर जाता हूँ हिमालय में ही रम जाने का उतना ही डर लगता है।

मन तो कहता है कि बस यहीं रह जाया जाये। लेकिन यथार्थ फिर से धरातल पर खींच लाता है। मन और यथार्थ के बीच संघर्ष ऐसे ही चलता रहता है और जीत हर बार यथार्थ की ही होती है, लेकिन मुझे लगता है कि एक न एक दिन मन की जीत अवश्य होगी। मेरा मन उस डर के सामने सीना तानकर खड़ा होना नहीं चाहता है बल्कि समर्पण करना चाहता है। हिमालय का वह डर भी सामान्य नहीं है। संसार को खो देने और स्वयं को पा लेने का डर।

बरोट में उहल नदी
बरोट में उहल नदी 


नदी तो चिरकाल से बह रही थी। न जाने कितनी पीढ़ियों को जीवन दिया है और न जाने आगे कितनी पीढ़ियाँ लाभान्वित होँगी। जब कभी नदी के पास जाकर कुछ देर बैठता हूँ तो ऐसा लगता है कि जैसे इसके पास बहुत सी कहानियाँ हों सुनाने के लिए, लेकिन सुने तो कौन? नदी को तो अकेले ही ऐसे बहना था। जैसे कई बार अपना भी मन बहुत सारी बातें करने का करता है, लेकिन कहें तो किससे कहें? इस मामले में हम और नदी एक दूसरे के साथी थे। नदी के किनारे इसके साथ साथ एकांत में कुछ दूर चलने पर ऐसा लगता था कि जैसे हम एक दूसरे के साथ सुख-दुख बाँट रहे हों। ऐसी कितनी ही यादें थी जो कि मैंने आज तक संजो कर रखी हुई हैं। इस नदी ने समय के साथ बहुत सारे बदलाव देखे हैं। और इस नदी की कहानी इसके किनारे बसे एक छोटे से गाँव के बारे में बताये बिना अधूरी रहेगी।

हाईवे की भागदौड़ भरी जिन्दगी से बहुत दूर यह एक ऐसी जगह थी जहाँ प्रवेश करते समय उबड़-खाबड़, ऊँची-नीची ज़मीन देखकर एक पल के लिए विश्वास ही नहीं होगा कि ये जगह उत्तर भारत के विशाल मैदानी भागों में स्थित है। अगल-बगल ऊसर क्षेत्र हैं, जहाँ वन विभाग के अथक प्रयासों के बाद भी कोई पेड़ सात-आठ फीट से ज्यादा नहीं बढ़ पाया और एक-दो इंच से ज्यादा चौड़ा नहीं हो पाया। लेकिन ये जगह भी स्थानीय झाड़ियों से भरी हुई थी जिनके लाल-पीले फूल काफी आकर्षित करते हैं। कुछ और ऊँची-नीची सडकों पर चलने के बाद पेड़ों के बीच में बसे हुए कुछ घर नजर आते हैं। ये घर उसी छोटे से गाँव का भाग हैं- एक ऐसा गाँव जो आज भी जीवन की तथाकथित मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है। दो तरफ से खेत इस गाँव को घेरे हुए हैं और ये खेत इस गाँव की दिनचर्या का अभिन्न अंग हैं। और इसी गाँव में कुछ दशक पहले मेरा जन्म हुआ था।

Gomti River

नदी के साथ मेरा पहला परिचय कब हुआ ये तो अच्छी तरह नहीं पता लेकिन इतना जरुर है कि बचपन में मेरा नदी के आसपास फटकना भी मना था। कुछ बड़े होने पर नदी के आसपास जाने लगा लेकिन नदी को स्पर्श कर पाने के लिए अभी और इंतज़ार करना था। और तब दूर से ही अथाह पानी को बहते हुए देखकर आश्चर्य होता था कि इतना पानी आता कहाँ से है और निरुद्येश्य बहते हुए कहाँ जायेगा। पर शायद उसे  निरुद्येश्य कहना मेरा बचकानापन था। बड़े होने पर पता चला था कि नदी तो जीवनदायिनी थी और लोगों का इस नदी के साथ अटूट सम्बन्ध है। गाँव के छप्पर बनाने से लेकर शादी-विवाह की रीतियाँ निभाने में नदी की महती भूमिका थी। किसी की भी शादी के पहले महिलाओं का समूह लोक संगीत गाते हुए नदी के किनारे जाता था, मानो नये वर-वधू के सुखमय जीवन के लिए नदी का आशीर्वाद लेना इतना जरुरी था। जब पहली बार नदी में उतरने का मौका मिला था तब मैं कितनी देर तक उछल-कूद करता रहा था। पहले दिन ही कितनी डुबकियाँ लगायी थी। मैं खूब तेज दौड़कर आता था और किनारे की खड़ी खाईं के ऊपर से नदी में कूदता था। कभी थकान का अनुभव हुआ हो ऐसा याद नहीं है। नदी की लहरें भी हमारे साथ खेलती थीं। आखिर कुछ देर के लिए ही सही लेकिन हम लोग की टोली नदी का एकांकीपन तो दूर कर ही देती थी। हमारा कभी भी नदी से निकलने का मन शायद ही करता था लेकिन अपने से बड़ों की ज़िद के आगे हमें झुकना पड़ता और नदी फिर अपने रास्ते बह चलती।

आज भी मुझे वो दृश्य अच्छी तरह से याद है जब दादी माँ ने हाथ से नदी की तरफ इशारा करते हुए कहा था, "ये गोमती माता हैं, इन्हें प्रणाम करो।" और मैंने दोनों हाथ जोड़कर गोमती नदी को प्रणाम किया था। जैसे जैसे हम लोग बड़े होते गये, नदी के साथ हमारा परिचय बढ़ता गया। अब तो हर दूसरे तीसरे दिन घर से इज़ाज़त मिल जाती थी नदी में नहाने के लिये। गाँव में एक ऊँचे स्थान पर एक मंदिर बना हुआ था। इस मंदिर से नदी की तरफ देखने पर सूर्य की किरणें आँखों को बेधने सी लगती। लेकिन चलती हुई नदी में परावर्तित किरणें ऐसे लगती थी जैसे कोई नवजात पालने में झूल रहा हो। नदी को ऐसे मंथर गति से बहते हुए देखकर एक क्षण के लिए ये भूल हो सकती है कि ये हमेशा से ऐसे ही बहती आई है। पर नदी हमेशा से ऐसे ही थोड़े रही है। कई बार नदी को गुस्सा भी आया है। आखिर नदी का स्वाभाव मनुष्य से बहुत अधिक अलग थोड़े ही है। इस क्रोध में नदी ने गाँव के निचले इलाकों में जीवन को बाधित भी किया है लेकिन ऐसा बहुत दिन तक न रहता और नदी अपने शान्तस्वरूप में जल्दी ही आ जाती थी।

नदी और मेरे जीवन में समानता यहीं समाप्त नहीं होती। नदी के स्रोत से समुद्र तक के सफ़र में और मानव जीवन में एक रुचिकर समानता दिखाई देती है। नदी अपने स्रोत से निकलने के बाद पहाड़ों के बीच ऐसे वेग से निकलती है और इसकी लहरें ऐसे हिलोरें लेती हैं जैसे कोई छोटा शरारती बच्चा दौड़-भाग कर रहा हो। मासूमियत से भरपूर इस दौर में भविष्य की चिंता नहीं होती। उसके बाद जब नदी मैदानी क्षेत्रों में प्रवेश करती है तो उसके प्रवाह में कुछ कमी आ जाती है, जैसे बच्चों में बड़े होने पर कुछ गंभीरता आ जाती है। बचपन की तरह उछल-कूद अब नहीं होती। थोडा और सफ़र तय करने के बाद नदी की धारा और भी मंद पद जाती है, जैसे किसी वयस्क को जिम्मेदारियों के बोझ तले लाद दिया गया हो। और समुद्र से मिलने से पहले तो प्रवाह इतना मंद हो जाता है, कि उसकी धारा कई छोटे छोटे भागों में बँट जाती है, जैसे वृद्धावस्था में कोई मनुष्य अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा हो। और यह लड़ाई लड़ते लड़ते आखिरकार अस्तित्व समाप्त हो ही जाता है।

धीरे धीरे समय बीतता गया और मुझे आगे पढने के लिए शहर आना पड़ा। और इस नए जीवन में व्यस्तता में कुछ इतना बढ़ गयी कि नदी के साथ मेरी मुलाकात ख़त्म सी हो गयी। मिलना तो दूर अब नदी को याद किये गए भी कई दिन बीत जाते थे। जब कभी अचानक से नदी की याद आती थी मैं ख्यालों में खो जाता था कि नदी में अब भी पानी वैसे ही बहता होगा। लेकिन यह भी सोचता था कि नदी मेरे बिना कितना अकेला महसूस कर रही होगी। शहर की तेज रफ़्तार जिंदगी से दूर जाकर नदी के किनारे बैठकर लहरों को निहारने का मन करता था। एक साल के बाद जब गर्मी की छुट्टियाँ हुई तो मैं गाँव गया। शाम को वहाँ पहुँचते ही मैं नदी के पास पहुँच गया। लेकिन वहाँ जाकर दूसरा ही दृश्य देखने को मिलता है। नदी का जल-स्तर कम हो गया था और बीच-बीच में रेत के टीले बन गये थे। तब याद आया कि कुछ दिन पहले अख़बार में पढ़ा था कि नदी का पानी रोक कर लखनऊ में जलापूर्ति होती है। नदी में कम होती जल की मात्रा और बढ़ती जनसँख्या के साथ लोगों की बढ़ती जरूरतें नदी के लिए गले का फांस बन गई थी। मुझसे नदी की ये हालत देखी नहीं जा रही थी। हृदय विदीर्ण हो गया था। मैं वहां से चला आया। कुछ दिन और गाँव में रहने के बाद मैं वापस शहर आ गया।

उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए मुझे और दूर जाना पड़ा। नयी जगह और नए दोस्तों में मन कुछ ऐसा रम गया था कि और कुछ याद ही नहीं रहा। देर रात तक जगे रहना और सुबह देर से उठना अब आदत सी हो गई थी। इस दौरान दोस्तों के साथ बहुत सी नयी जगहों पर घूमने गया। इस सामाजिक जिंदगी का भी अपना ही मजा था। कॉलेज में ये साल कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। पढाई पूरी होने के बाद जब नौकरी लग गयी तो व्यस्तता अचानक से ही कुछ इतनी अधिक हो गई कि कुछ और करने के लिए समय ही नही मिलता था। घर से ऑफिस और ऑफिस से घर बस इतना सा जीवन रह गया था। घर में कुछ देर समय मिलने पर बुद्धू बक्से (कंप्यूटर) के आगे बैठ जाता था और उसी में समय बीत जाता था। सब कुछ इतना नीरस सा हो जायेगा ये नहीं सोचा था। चार-पाँच साल तक जिंदगी ऐसे ही चलती रही। बहुत दिन से इस माहौल से थोड़े समय के लिए निकलने का मन था और आखिरकार मैंने घर जाने के लिए छुट्टी ली।

छुट्टी मिलने पर कुछ दिन के लिए गाँव गया। इस बार बहुत दिन के बाद गाँव आना हुआ था। जब नदी को देखने को गया तो देखा कि जो पहले रेत के टीले कहीं कहीं पर थे वो अब बड़े होकर नदी के एक किनारे से लेकर नदी के बीच तक फैल गए थे। नदी दूसरे आधे हिस्से में सिमट कर रह गई गई थी। नदी के बीचों-बीच जहाँ पहले जहाँ पहले सीने तक पानी हुआ करता था वहाँ आज बिलकुल पानी नहीं था, सिर्फ बालू था। वहाँ  से कुछ दूर नदी सकुची-सिमटी सी बह रही थी। नदी का दम घुट रहा था। लोगों की उम्मीदों का बोझ उससे और नहीं सहा जा रह था। जैसे मेरे जीवन में नयेपन का अभाव था वैसे ही नदी भी बस चुपचाप जी रही थी। उस पल ऐसा लगा जैसे कि मेरे जीवन और नदी, दोनों का प्रवाह थम सा गया है।