बालकनी का एक कोना है
जिसमें गिरते हैं अमलतास के फूल
और हवा से इकट्ठे हो जाते हैं
दूसरे कोने में,
खिड़की के कोने से
एक नयी इमारत दिखती है
जिसके कोने में मशीनें लगी हैं
हड़बड़ी में
चार कोनों से स्थान को घेर लेने में;

बादलों का एक कोना
उमड़ते-घुमड़ते हुये
अचानक ठिठकता है
पीछे मुड़कर देखता है
सड़क के कोने में
एक वर्ग मीटर के चटाई पर बैठी
गुटखा बेंचती हुई एक महिला को
और बरसता नहीं है;

समुद्र तट का एक कोना
जिसमें सीपियाँ भर-भर कर पड़ी हैं
हाँ, तुम कहोगे तो तुम्हारे लिये कुछ रंग-बिरंगी ले आऊंगा
जिन्हें तुम सजाकर रख देना
ड्राइंग-रूम के किसी कोने में;

एक सफ़र है
जिसके कोने में दो शख्स चलते हैं
लेकिन बीच में मिलने तक
वो कुछ और हो चुके होते हैं
एक दूसरे से बचने के लिये कोना खोजते हैं,
सफ़र कहीं कोनों में खोकर समाप्त हो जाता है;

नींद के कोने में
एक सपना उगना अभी शुरू हुआ है
सपने के कोने में
तुम्हारी आवाज़ धीरे-धीरे तेज होती जाती है
मैं सहसा जाग पड़ता हूँ
आँख के कोने से देखता हूँ
नहीं, ऐसा तो कुछ दिखता नहीं है
अँधेरे के कोनों में;

मैं सभी कोनों को
किसी कोने में छिपा नहीं सकता हूँ
मन के कोने से बस देख सकता हूँ
जीवन के किसी कोने में पहुँचकर
सभी कोनों को
ब्रह्म के किसी कोने में सौंप देना होगा।


मैंने कहीं पढ़ा था
कि किसी कविता को पढ़ते हुये
विचारों की एक ही श्रंखला से
दो व्यक्तियों का गुजरना
और भावनाओं की लहरों में
अपने समझबूझ की नाव पर बैठकर
एक ही तरह से हिचकोले खाना,
किसी आत्मीय को
शब्दों के माध्यम से ढूँढ़ लेने जैसा है
और मैंने सोचा था
कि शब्दों का यह जोड़
जिसके मतलब अनगिनत, अनिर्धारित होते हैं
उसमें किसी एक ही कल्पना के
दो मन में एक साथ आ जाने की सम्भावना
न के बराबर होती है,
उस स्थिति में
हमें एक कविता की कुछ पंक्तियों के
मानी मिले हैं एक जैसे,
असंख्य किताबों की असंख्य कविताओं में
एक वो कविता है
जो कहीं दूर से
धीरे-धीरे
हमारी आत्माओं में घुलने लगी है।


तुमने कह दिया है
और यह बड़ी बात है।
जिस दौर में
सांसें चलती रहें
बस यही जीवन का पर्याय हो जाये
जहाँ हम अपने आसपास की मुश्किलों को देखकर
आंखें मूँद लें
और मान लें
कि कुछ बदलाव लाना हमारी जिम्मेदारी से बाहर है
जहाँ शोषण के खिलाफ
कुछ भी बोलना बस खानापूरी रह जाये
जहाँ कोई कुछ सोचता न हो
और मान लेता हो
कि अच्छा दौर उसके बिना कुछ किये
आखिरकार आ ही जायेगा
जिस दौर में कोई अन्याय के विरुद्ध लड़ता न हो
किसी की जिंदगी प्रभावित न होती हो
जिस दौर में अख़बारों की सुर्खियाँ
आवारा भीड़ के कारनामों से भरी रहती हैं
लेकिन उन पर अपनी सहूलियत के मुताबिक़
चुप रहा जाये
जहाँ व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मायने
किसी स्वप्नलोक समाज की परिकल्पना के आगे धूमिल हो जायेंगे,
उस दौर में तुमने व्यवस्था के विरुद्ध कुछ कह दिया है,
और यह बड़ी बात है।


धरती के किसी कोने में
कृत्रिम सुंदरताओं से बहुत दूर
बादलों से रहित साफ़ आसमान की सजावट में
तारों की एक दूधिया उजली पट्टी है
जिसके आकर्षण में
आकाश में और कुछ देखना नहीं होगा,
जो क्षितिज के
एक कोने से दूसरे कोने तक सरपट चली जाती है
जिसमें दिखते हैं रंग संसार के,
तारों की आकृतियाँ
और उन आकृतियों के नाम निकालने की चुनौती,
इन्हीं तारों के काफिले से भटका
एक तारा हमारा सूरज भी है
जो आकाशगंगा के किसी और कोने से
इन्हीं अनगिनत तारों की पट्टी के
किसी कोने में मौज़ूद
अपनी पहचान के लिये तरसता होगा,
इस उजली पट्टी के चार कोनों पर
चार तारों को गाड़कर
हमारा ग्रह उसमें तस्वीर देखने की कोशिश में लगा है,
और अंतरिक्ष के ललाट की शोभा बढाती
एक आकाशगंगा है
सुंदरता की कोई भी परिकल्पना
जिसके बिना अधूरी होगी।


उजालों की दुनिया से कोसों दूर
नुकीले पहाड़ों से टँगी एक घाटी में
अँधेरी रात के पर्दे में
छोटे-छोटे, लाखों-करोड़ों हमसफ़र मौज़ूद हैं
जहाँ से प्रकाश हम तक पहुँचने में
सदियाँ लगा देता है
(कुछ उससे भी दूर हैं)
जिन्हें देखा है
परियों वाले नाट्यमंचन में
मंच के पीछे पर्दे में
कई कोनों वाली
कार्डबोर्ड की चमकती आकृतियों में,
ऐसे तारों को देखना
सच्चाई के आमने-सामने खड़े होने जैसा है,
वो विशाल तारे भी हैं
जो आसानी से
सैकड़ों ये सौर-मण्डल लील जायें,
ऐसे तारों से बनी हजारों आकाशगंगायें हैं,
जहाँ सुपरनोवा जैसी घटनायें
चलती रहती हैं कई-कई उम्र तक,
अब आकाशगंगाओं के समूह भी पहचान लिये गये हैं
इन समूहों के समूह भी विचरते रहते हैं
दूर-दूर तक परिभाषाओं को खींचते हुये,
यह विराट का चित्र है
जिसमें एक मनुष्य नाम की संरचना को
कहीं खोजा नहीं जा सकता है,
कभी-कभी
अपने अस्तित्व का सही-सही आँकलन करना
जरुरी हो जाता है
तब चकाचौंध से दूर
रात के आकाश को एकटक निहारने
किसी निर्जन जगह जाना होता है।