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Oct 28, 2017

तीर्थयात्रा

एक रेगिस्तान है
मेरी आँखों के आगे फैला हुआ
जहाँ रेत ही रेत दिखती है हर तरफ
और दूरियाँ तय होती नज़र नहीं आ रही हैं
परिवर्तन की अनुपस्थिति के कारण
मीलों फैली रेत जिसपर चलता चला जाता हूँ
एकरसता में रस खोजने,
जहाँ रेतीली आँधियाँ चलती हैं
और कुछ देर के लिये एकरसता से
ध्यान भंग कर देती हैं
ऐसा ही एक रेगिस्तान
मेरे मन के अंदर भी है
जहाँ से कोई रास्ता सुलझता नहीं है
और जो दिखता है
वह बहुत दूर एक जैसा ही दिखता चला जाता है
और इस रेगिस्तान से ध्यान हटाने के लिये
मैं रेतीली आँधियाँ खोजता रहता हूँ।

एक पहाड़ है
जिसकी ढलान पर उगे हैं
पतली पत्तियों वाले पेड़
जो खड़े हैं इतनी उंचाई पर
डर को ठेंगा दिखाते हुये
उस पहाड़ के शिखर से
पत्थर गिरते रहते हैं
आम बात है
कभी-कभी ये पेड़
उन पत्थरों को गिरने से रोक लिया करते हैं
मैं दोनों ही पात्र अदा करता हूँ
कभी पत्थरों की तरह गिरता हूँ
(लाक्षणिक रूप से)
कभी पेड़ों की तरह खुद को संभाल लेता हूँ।

एक सड़क है
जो कुछ जगहों पर उबड़-खाबड़ है
लेकिन ज्यादातर जगह सही है
जिसके दोनों तरफ हैं हरे-भरे खेत
आदमी की ऊँचाई से ऊपर तक गन्ने के पौधे,
हरियाली आकर्षक है
लेकिन सड़क को अभी चलना होगा
मंजिल की तरफ
या उससे भी आगे
खेतों की पैदावार सड़क को नहीं मिल सकती
और वैसे ही जीवन है
जहाँ हरियाली का लालच है दोनों तरफ
और पहुँच में भी दिखता है
लेकिन जीवन को
अभी दूर-बहुत दूर जाना है
उबड़-खाबड़ रास्तों पर
अभी और चलना होगा।

एक नदी है
जो आस्था की घाटी से बहते हुये
अथाह सागर की चौखट पर खड़ी हो जायेगी
हिम्मत के साथ
जिसका सानी कोई नहीं होगा,
जिस नदी में किसी पुल के पास
या किसी प्रसिद्ध घाट के किनारे
डूबे हैं श्रद्धा के अंतहीन सिक्के तलहटी में,
जब जन्मी थी हिमालय की गोद में
तब बहुत सम्भावनायें थीं
अब एक लकीर पर
पानी को चलते चले जाना है
एक राह चुनने की अब उतनी सम्भावनायें नहीं हैं
नदी की यही गति है।

एक खेत है
जिसमें धान कुछ दिन पहले रोपा गया है
जिसको सींचने के लिये
नहर से पानी लगाना पड़ता है,
और जाना पड़ता है रात में
टॉर्च लेकर जंगल की तरफ
बांधने के लिए नयी मेड़
जो रखेगी पानी रोककर,
और अगले दिन जोरदार बारिश होती है
मेड़ बह जाती है
एक चौथाई खेत के साथ,
ये भविष्य की चुनौतियाँ
मौसम की मार, तेज फुहार
खेत के कहे में नहीं हैं
खेत चाहे तो बस तैय्यार रह सकता है
मेड़ें मजबूत की जा सकती हैं शायद।

एक रात है
रात अँधेरी है
अंधेरेपन की गूँज हर एक दिशा में व्याप्त है
प्रतिध्वनि में भी अंधेरापन ही सुनाई पड़ता है
ऊपर काले-काले बादलों के धब्बे
चाँद के सामने तैरते रहते हैं
और बादल ऊपर से ही देख लेते होंगे
टूटते हुये तारे
जिसको अपनी नासमझी में
दे देते होंगे कोई नयी कहानी,
अँधेरी सड़क से
हवा उड़ाती है सूखे पत्तों को
और जब पत्तों की आवाज़ रूकती है
तो रात का सूनापन बहुत बढ़ जाता है
दूर क्षितिज में
कहीं कड़कती है बिजली
प्रकाश की एक तलवार
समा जाती है धरती के सीने में
रात की तन्द्रा टूटती है
रात जूझती रहती है
लेकिन रात नींद का त्याग नहीं कर सकती।

एक मंदिर है
पहाड़ की चोटी पर बैठा हुआ
निर्जन है
जहाँ लोग मंदिर देखने नहीं
मंदिर की छत से दुनिया देखने आते हैं,
मंदिर उम्र के उस पड़ाव में है
जहाँ सिर्फ इतिहास पर गर्व किया जा सकता है
(इतिहास गौरवशाली रहा है)
लेकिन वर्तमान में यह प्रांगण
कुछ पुरानी दीवारों का
बस एक समूह बनकर रह गया है
जिसमें बसती हैं वीरानियाँ
और बरामदों में रात के अँधेरे में गूँजती हैं
कहानियाँ एक भव्य इतिहास की,
मंदिर से कुछ दूर एक बस्ती है
जहाँ बन आये हैं छोटे-छोटे नये मंदिर कई
लोगों का आना-जाना लगा रहता है जहाँ
बूढ़ा मंदिर अचरज से भरा नहीं है
हर एक मंदिर को इस दौर से गुजरना ही है।

एक पेड़ है
जिसकी जड़ें गड़ी हैं गहरे तक
और नतीजतन
वह खड़ा है संतुलित नयी धरती पर
कभी मैं उस पेड़ के पास पहुँच जाता
तो पेड़ बड़ा खुश हो जाता
और सुनाता मुझे किस्से
पिछले ज़माने में आयी आँधियों के
जिनसे समाज को मिलते थे रूप
और इतिहास को पन्ने
बूढ़ा पेड़ मुझसे बताता है
उन आँधियों के बारे में भी
जो पेड़ों से टकराकर टूट गयीं
और बड़ी नहीं हो पायीं
एक सम्भावना बनकर बस रह गयीं,
मैं उस पेड़ की जड़ में पानी डाल आता हूँ
और मना आता हूँ कि वो हवा दे और अँधियों को,
और यात्रा है
तो दोबारा तो मिलना होगा ही।

एक समुद्रतट है
जहाँ ईर्ष्या से लहरें
कदमों के निशां मिटा देती हैं
और झगड़ती हैं एक दूसरे से,
बहुत दूर सागर की गहराइयों में
जहाँ प्रकाश पहुँचता नहीं है
वहाँ भी यात्रा के नये कारण खोज लिये गये हैं,
रेत के किनारे दूर कहीं
लहरों को लील लेने के लिये प्रयासरत हैं,
दूर कहीं एक द्वीप
सागर से बाहर निकला है
और डूबते सूरज की रौशनी में चमकता है,
रात में चाँद देखता है ऊपर से
समुद्र में मछुआरों के लैंप
किसी नयी दुनिया में
तारों से नज़र आते हैं,
मुझे एक दिन बैठना है समुद्र के किनारे
दिन से रात और रात से दिन कर देना है।

लेकिन समय एक नहीं है
समय दो हैं
पहले समय में
हम समय को धीमा करके
दूसरा समय देखते हैं
और सापेक्षता के सिद्धान्त के तहत
हमें दूसरा समय बहुत तेज भागता हुआ लगता है
समय हमसे बहुत दूर भागता है
हमारा समय पिछड़ता रहता है
एक दिन हाँफते हुये
पराजय स्वीकार कर लेता है
वह समय अब चलता नहीं है,
समय नहीं चलेगा अब
बस हमारा चलना बाकी रह गया है।

यात्रायें कभी समाप्त नहीं होती हैं
यात्राओं के बस रूप बदलते रहते हैं
यात्रायें बस देश और काल की नहीं होती हैं
रोज़मर्रा की जिंदगी भी एक यात्रा है
जिसमें श्रद्धा से
लगाना होता है गले से एक गंतव्य
और सच्चे यात्री की तरह
भटकने मात्र से घर बैठना शुरू नहीं कर दिया जाता,
सच्चे यात्री
गंतव्य पूँछकर यात्रा शुरू नहीं करते हैं
राह और मंज़िल में भेदभाव नहीं करते हैं
ये देखने नहीं जाते
जो कि देखा जा चुका है
और लेखों में आ गया है
बल्कि वह जो अभी तक आकार ही नहीं ले पाया है।

Oct 24, 2017

दीवारें

दीवारें तोड़नी हैं
इससे पहले कि वह दीवार खड़ी हो जाये
मुझे उठना है
और दीवार से टकराकर
लहूलुहान हो जाना है।

मेरे सामने भागती है एक भीड़
सबने अपने कन्धों पर लाद रखे हैं
लकड़ियों के लट्ठे
जो हैं भुजायें किसी युवा जंगल की
इससे पहले कि यह लकड़ियाँ
गाड़ दी जायें
बना दी जायें चहारदीवारी
और रोक लें मुझको
मुझे पहुँचना है
और रोकना है उस भीड़ को।

एक कांटेदार पेड़ की कुछ शाखायें
काट कर रख दी गयी हैं धूप में
कल पत्तियाँ सूख कर गिर जायेंगी
तब इस डाल को रख दिया जायेगा किसी मेड़ पर
और बाँट दी जायेगी जबरदस्ती ज़मीन फिर से
जलाना चाहता हूँ
उस डाल को किसी चूल्हे में
जहाँ से सिर्फ धुँआ निकले
कोई दीवार न निकले।

नदी के सीने को खोदकर
एक ट्रक निकला है
ढोता है बालू
जो बनवाती हैं दीवारें,
जाओ, जाओ,
बादलों से कहो कि बरस पड़ें
और बहा दे पूरा बालू,
हवाओं से कहो कि चल पड़ें
और सब छितरा दें,
और रास्तों से कहो कि वे उलझ जायें
और घूमता रहे उन्हीं में वो ट्रक
इससे पहले कि वो ट्रक अपनी मंज़िल तक पहुँच जाये
उसे रोकना है।

Oct 20, 2017

अजर, अमर

1.
मैं उस शरीर में बँधी हूँ
जिसके कदमों को चूमती है चाँदनी रेत
और बालों को छूकर निकलती है घाटी की हवा,
जिसके एक तरफ बहती है नदी
और दूसरी तरफ चढ़ता है आसमां,
एक वृत्त में दौड़ता हुआ वह शरीर
और हाँफता हुआ
अपने चारों तरफ़
अपनी सी दुनिया ढूँढ़ता हुआ,
ब्रह्म में भटकी हुयी
मैं उस शरीर की अल्पकालिक यात्री हूँ।

2.
मेरी खोज में न राहें मेरा कहना मानती हैं
और न ही मानता है ये सफर
मेरे उद्देश्य में
न ही कोई नीरसता है
और न ही कोई नीरवता है
हाँ, थोड़ी विवशता है
मेरी राह में
अब न जीतें हैं
अब न हारें हैं
वैसे तो मैं आत्मा हूँ
और तथाकथित रूप से बहुत महत्व की हूँ
लेकिन समय में मैं एक बहुत महत्वहीन अनुचर हूँ।

3.
और फिर एक दिन
शरीरों की इस यात्रा में
करोड़ों वर्षों के बाद
दिन ज्यादा उजले होंगे
रातें कम अंधियारी होती जायेंगी
और तब तक मैं रह गयी
रचयिता की कृति में उलझकर
तब आसमान झुलसता हुआ
मुझसे मेरी जिंदगी माँगने आ खड़ा होगा
तब मैं भागती फिरूँगी
एक नयी खोज पर चर्चा करने के लिये
मगर कहूँगी किससे
कि सूरज धरती को लील गया है।

Oct 16, 2017

आदी

समन्दर से खींचकर
किनारे पर लगा दी गयी नाव को
जैसे जीवन से उठाकर
मृत्यु के दर्शन दे दिये गये हैं,
लकड़ी के पटरे
जिन्हें लहरों की गति नापने की आज़ादी थी
आज रेत की शय्या पर बैठकर दिन जाया करते हैं
और समय ने कई बार देखा है
कि एक-एक करके ये लकड़ियाँ
गायब होती चली जाती हैं,
धूल की परतें
नाव का जीवन धूमिल कर देंगी
कभी-कभी कुछ लहरें नाव तक पहुँच जाती हैं
और ऐसी आवाज़ होती है
जिसे बड़ी तड़प में ही शायद सुना गया है
जीवन का एक टुकड़ा मिलते ही
नाव बिलख उठती है
जिसके आँसुओं को समीर बिखरा ले जाती है।

पर क्यों,
नाव को समन्दर में ही क्यों जाना है,
और कोई तरीका नहीं निकाल सकती क्या ये नाव
समय में विलीन होने का?
जलाने के लिये लकड़ियाँ,
बच्चों के लुकाछिपी खेलने का स्थान,
यात्रियों के लिये चित्र लेने का स्थान
जिसके पार्श्व में सूर्यास्त सावधानी से लगाया गया हो,
कितने सारे कार्य हैं
जिनमें नाव उद्देश्य पा सकती है,
लेकिन खोज पाती नहीं हैं।

और यह मात्र देखकर जाना नहीं जा सकता
कि ये नाव
समन्दर में जाने की आदी क्यों हैं।

Oct 12, 2017

बूँद - 5 / संगीत

मुझे बूँदों का संगीत सुनना था

एक बेहद बेसुरा संगीत
जिसमें फड़फड़ाती हैं भुजायें बूँदों की
धरती की सतह पर
चोट कर आवाज़ निकालने से पहले
और भागती हैं
हवा की क़ैद से
जैसे हवा स्वयं भागती है बांसुरी की क़ैद से।

सुनना था वह संगीत
जिसे बूँदें बादलों से उठाकर
लहरों को सौंप देती हैं
जिसे समुद्र की गहराई में
सुरक्षित रखा जा सके
जिसे लहरें किनारे पर ला पटकती हैं,
जिसे सुनाया ही न गया हो
क्या उसे भी संगीत कहा जा सकता है?
दो खूँटियों से बंधे तांबे के तारों से
कहीं कम संगीत तो नहीं जमा है इन बूँदों में?

छप्पर से टपकती हुयी बूँदों का
दोहराव से रहित
बने नियमों से अलग
गिरना निरंतर जारी है
जैसे उँगलियाँ बरसती है पर सारंगी पर
और खो बैठती हैं सुरों की सारी समझ
मैं अगर बूँदों का संगीत समझने के काबिल भी होता
तो भी क्या मैं समझ पाता?

Oct 8, 2017

बूँद - 4 / उलझा हुआ गीत

छज्जों की कई परतों से,
जो कि एक दूसरे से कई फीट की दूरी पर हैं,
गिरती हैं बूँदें
और खिड़की से निहारती हैं
एक कृत्रिम संसार
और सूँघती हैं उदास करने वाला उच्छ्वास
इन बातों के मशविरे
बादलों की दुनिया में कहीं नहीं हैं।

कारखानों की काली धूल से दबी पत्तियाँ हैं
जहाँ बूँदें आश्रय लेती हैं
कुछ देर के विश्राम के लिये,
कालिख से सन जाती हैं बूँदें
दम घुटता है
धरती पर गिरती हैं
बूँदों का टप-टप बढ़ चला है
या बैठा पेड़ वहाँ बड़बड़ाता है।

पहली बार में एक बूँद गिरी थी
धरती प्यासी थी
बूँद को खुले हाथों ले लिया था धरती ने
हमें वह बूँद खोजनी है
ट्यूब वेल लगाओ, कुँए खोदो
नहीं, हिम्मत नहीं हारनी है
आखिरी बूँद तक उलच देंगे
पहली बूँद खोजते-खोजते।

पसरी थी लम्बी क़तार कारों की सड़क पर
मंज़िल तक पहुँचने के लिये बेताब
कुछ बूँदें गिरती हैं
अफरा तफरी मच जाती है
लोगों के कवच बाहर निकल आते हैं
बाकी भागते हैं शरण के लिये
जैसे दूसरे ग्रह के वासी उतर रहे हैं धरती पर;
बूँदों, तुम्हारा स्वागत हर जगह नहीं होगा।

उच्छ्वास - Exhalation.

Oct 4, 2017

लालटेन

वो लौ बहुत धुँआ छोड़ती है
और शीशे पर पुती कालिख के कारण
पूरी तरह बाहर दिख भी नहीं पाती है
अहाते में एक खूँटी पर टँगी है लालटेन
तेज हवा चल रही है
संघर्षरत लौ भभकती है
लौ के दोनों किनारे
आसमान छूने को लपकते हैं।

बौराया हुआ एक कुत्ता
टीन की छत के नीचे आकर बैठ गया है
भौंकता है न जाने किस पर
लौ की अनिरंतरता पर
या हवा की साँय साँय पर
या भौंकने के सिवा कुछ कर नहीं सकता
तो अब बस भौंकता ही रहता है।

अँधेरे की इस यात्रा में
लौ के साथी चाँद-तारे आज नहीं आयेंगे
ये हवा से कहला भेजा है
सलाह भी दी है
कि लड़ते रहना
लड़ाई का कारण पता चलने तक
अगली लड़ाई में
इस लड़ाई में तुम्हारे योगदान के लिये
तुम्हारे ऊपर कवितायें लिखी जायेंगी।

ठिठुरती हुयी लौ
बढ़ती रही रात के पथ पर
जूझती रही स्वयं से
लड़ाई के औचित्य के सवालों पर
मंदिर के दीये की तरह
लालटेन की लौ की उपासना क्यों नहीं होती?