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Mar 24, 2017

हम्पी - 8 / प्रेम पत्र

इंतज़ार की इन्तहा
कहीं कहीं दिखती है मानिये,
दशकों से नदी किनारे खड़े ये पेड़
या इनसे पहले इसी अवस्था में
यहीं पर खड़े इनके पूर्वज
कब से नदी की धार को
टकटकी लगाए देखते हैं
इन्होंने धूप से बचाकर छाँव भी दी है
हवाओं का खेल भी साथ खेला है
सावन में बादलों के अंधेरे में
साथ घबराये भी होंगे
नदी को पत्तियों के माध्यम से
साल के चक्र भी कई गिनायें होंगे
मगर एक लफ्ज़ भी उसके लिए नहीं बोला;
नदी ने भी नहीं;
एक सच्ची श्रद्धा से
सृष्टि चलती रही।

मगर पतझड़ के मौसम में
एक पीली पत्ती नदी पर गिरी
उसकी छुवन से नदी की सतह पुलकित हो उठी
जहाँ कहते हैं कि नावें घूमने लगती हैं,
उस पत्ती को नदी उलट-पलटकर देखने लगी;
क्या कहते हो?
वह पत्ती नहीं है?
अरे हाँ!
हाँ, प्रेम पत्र।

Mar 10, 2017

हम्पी - 7 / इतिहास के साक्षी

ये जो खण्डहर हैं
जिन्हें हम इतिहास का साक्षी कहते हैं
अगर देखा जाये तो
इन्होंने इतिहास को देखा ही नहीं है
बल्कि उसमें लिप्त रहे हैं
किसी घटना का साक्षी होने के लिये
यह जरूरी है
कि तटस्थता बनी रहे,
इतिहास के महिमामण्डन में
इन पत्थरों का हित भी सम्मिलित है,
विसंगति यह है
कि इतिहास हम इनसे पूछते हैं।

तो इतिहास के निर्माता
हम स्वयं ही हैं
ये धारणायें इन खण्डहरों को हमने दी हैं,
कल कोई नयी विचारधारा हावी होगी
तो इन पत्थरों पर नये अर्थ आरोपित कर दिये जायेंगे।

Mar 8, 2017

हम्पी - 6 / सृष्टि का पहिया

एक दिन
मानव निर्मित कोई धूल
अपने भयानक हाथों से
शाम के सूरज को लील लेगी
ये नदियाँ दूर कहीं
बाँध बनाकर रोक दी जायेंगी
ये महल अट्टालिकायें
ज़मींदोज़ हुए पड़े रहेंगे
ये पूरब ये पश्चिम
जैसे हमें ज्ञात हैं
वैसे नहीं रह जायेंगे
ये ज्ञान ये विज्ञान
ये मानव प्रजाति की उपलब्धियाँ
किंवदंती बनकर रह जायेंगी
एक दिन
सार्थक सारी बातें
निरर्थक साबित कर दी जायेंगी।

तब दूर किसी घने जंगल में
एक वन-मानुष
दो पत्थर रगड़कर
आग पैदा करेगा
और सृष्टि का पहिया
एक बार फिर से घूम उठेगा।

Mar 3, 2017

हम्पी - 5 / लाल रंग

चहारदीवारी के बाहर कुछ पेड़ खड़े हैं
उनके बाहर हैं कुछ खाली कुर्सियाँ
बाट जोहती हुई
आदत से मजबूर किसी इंसान की,
उसके बाहर दूर तक
फैले हैं धान के खेत
ओढ़ ली है हरियाली चादर
यादों की नमी से कुछ फसलें उपजती हैं,
उसके पार हैं कुछ पहाड़ियाँ
जहाँ से पत्थर गिरते हैं
पर गिरते भी नहीं हैं
अटक जाते हैं खयाल बनकर
सरकते रहते हैं जिन्दगी के लम्हे बनकर,
उसके पार हैं कुछ मन्दिर
पहाड़ी की दुर्गम चोटी पर
जहाँ झंडियाँ हवा में फड़फड़ाती हैं
जहाँ से निकलते हैं मंत्र पुराने,
उसके पार भी कोई जगह है
जहाँ कोई खाली कुर्सी नहीं है
जहाँ नमी से हरियाली नहीं निकली है
जहाँ जिन्दगी अटकती नहीं है
जहाँ झण्डों का कोई नामोनिशां नहीं है।

वहाँ मैं और तुम बैठे हैं
तुमने परिप्रेक्ष्य की प्रत्यंचा पर
शब्द तान दिए हैं,
वर्तमान की अंगीठी में
हम स्मृतियाँ सेंक रहे हैं,
हवा भयभीत होकर
उलझाने लगी है ज़ुल्फें तुम्हारी,
तुम्हारे माथे की बिन्दी से
निकलते हैं अथाह रंग
झण्डों को रंगते चले जाते हैं
रंग फैलते हैं क्षितिज के कोने तक
देखो सूरज भी आज रंगकर ही जायेगा
और दिखती है
बादलों के कोनों पर एक उजली पट्टी,
मैं थम गया हूँ वक़्त बनकर
और मुझसे निकल रहे हैं छन-छनकर
प्रत्यंचा से छूटे हुए शब्द।