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Jun 25, 2016

आवारा - 2

तुमने कहा था
मेरी अनास्था पर सवाल करते हुये
कि 'फिलॉसोफी' पढ़ते-पढ़ते
हर बात पर सवाल करते-करते
एक दिन मैं आवारा हो ही जाऊँगा।

मैंने कहा था
कि तुम्हारी 'स्माल टॉक' में
दुनिया बदलने की ताकत नहीं है
तुम्हारी बातों में
विद्रोह की भावना नहीं
समर्पण की सम्भावना है
मुझे तुम्हारी बातें
चटपटी, प्रपंच वाली, मसालेदार
साधारण सी लगती हैं
मैं रहस्य की खोज में
नित नये नये वाद पढ़ रहा था
और अस्तित्व की गुत्थियों में
और ज्यादा उलझता जा रहा था
तुमने हमेशा मेरे 'फिलॉसफिकल' संकट को
सुलझाने की बजाय
दो-चार फ़िल्मी उदाहरणों के साथ
माहौल को हल्का करने की कोशिश की थी
मैं यथार्थ की तलाश में
जंगल, नदी, पहाड़, खण्डहर भटकता रहा था
तुमने अपने लबों से
मेरी आँखें बंद करके
मुझे 'यूटोपिया' दिखा दिया था
मेरे सत्य और असत्य
उद्देश्य और निरुद्द्येश्य
नैतिकता और अनैतिकता में
फ़र्क़ करने के बुखार को
तुमने अपने 'हीलिंग टच' से सही करने का प्रयास किया था
मुझे ये सब पता नहीं क्यों तब
'इंटेलेक्चुअली' बहुत हल्का लगता था।

बहुत साल बाद
अब ज्ञान की अपेक्षाओं तले दबा जा रहा हूँ
नैतिकता अनैतिकता सब बातें बेसिरपैर, बेमानी लगती हैं
विद्रोह की आग जो मैंने खुद लगाई थी
उसी आग में धुआँ हुआ जा रहा हूँ
लोगों को समझना
और खुद को समझाना
मैंने कितना मुश्किल बना लिया है
अनियंत्रित बस बहे जा रहा हूँ
और अगर सच कहूँ तो
अरस्तू, प्लेटो, वॉल्टेयर, कांट, कैमू को पढ़ते हुये
कभी-कभी तुम्हारी 'स्माल टॉक' को बहुत 'मिस' करता हूँ
कभी आकर देखना
तुम्हारी बात सच हो गयी है,
अब सबने मान भी लिया है,
मैं आवारा हो ही गया हूँ।

Jun 24, 2016

Book Review : 'Thinking, Fast and Slow' by Daniel Kahneman

Daniel Kahneman's 'Thinking, Fast and Slow' is a work of authority in the area of psychology. This book is concerned with judgments and decision-making. His research with Amos Tversky was focused on biases, heuristics, and choices. He tried to find out the reason behind the brain's response to familiar illusions. He was awarded the Nobel Prize in economics in 2002. Although he was a psychologist, he got a Nobel Prize in economics because the prize was intended to be given for work in social sciences but was given for 'economic sciences' to please physical scientists. He said that he would have shared the Prize with Amos Tversky had Amos been alive. Indeed, throughout the text, there are innumerable references to Amos and the book seems to be the joint venture of Amos Tversky and Daniel Kahneman. The research of Kahneman opened avenues of multidisciplinary research involving psychologists, psychiatrists, economists, and neuroscientists. Collectively they can be called decision theorists. 

'Thinking Fast and Slow' by Daniel Kahneman
The author talks about two systems of mind - system 1 and system 2. Remember that these systems do not have any physical presence in our brain but it is a lot easier to talk about the different actions performed by brain while talking in terms of these systems. The mind has associative mappings of many things in the world. When something is required from these mappings, system 1 comes into action. This happens when you calculate 2 + 2. System 2 springs into action when something is given to solve which is not on your fingertips or which requires calculations. This happens when you are asked to calculate 17 X 53. System 1 always comes in the picture and because of ready-made responses to many problems that it has, it is prone to illusions and biases. According to Kahneman, system 1 is the hero of this book. System 2 is lazy and it takes an effort to bring it into action. When it is involved, pupils dilate and they can be a good measure of the effort being put in by a person. There have been stories in which customers have used goggles to hide their pupils so as to avoid being seen as interested in a product. As system 2 is lazy, it rarely comes into picture when people are tired and that is why prime time advertisements, which are aired when people are just back from office, are most effective, because what you see is all there is.

Kahneman talks about the 'theory blinding' where an established theory is perceived to be so true that any observed deviations from that theory are considered anomaly and are not given much importance. Consider an example. Let us assume two persons A and B have $5 million each today, but they started with $1 and $9 million respectively. According to rational agent theory, they should be equally happy because they have the same amount of money. A rational person does not give importance to how it got there. At least this is what economics has to teach about a rational person. It can be clearly seen that person A and B will not be equally happy. To explain such anomalies Kahneman describes prospect theory. In fact, differences between economist's rational agents and human beings have been so stark that former was given a name Econ by Richard Thaler. The part 4 of the book is concerned with a comparative study of Econs and humans. Prospect theory contributed much to behavioral economics and nowadays many policies have been launched to protect humans against their own biases, contrary to what is believed by Chicago school economists who think humans to be rational agents who do not commit a mistake. 

The author then talks about two selves - experiencing self and remembering self. Experiencing self is one which lives in a moment. Remembering self is the one which recollects the moments afterward and feels pain or joy. To explain it in a better way, let us say you were told that you are granted your long-held wish but you will completely forget about that wish after getting that. If you still go for that, experiencing-self is dominant and if you say no, remembering-self dominates. Remembering-self suffers from peak-end effect and neglect of duration. We, humans, remember only strong experiences of happiness and sorrow and this memory is tilted towards the end of the experiment period. Also, there is neglect of duration which says that if a person was too happy for one year and in another instance moderately happy for five years, most of the people will choose former instance completely neglecting time integral. 

The presentation of theories of psychology to a not-so-specialized audience in this book is commendable. The book is not laden with psychological and statistical jargons even though there are instances where probability has been used to understand decision making. Fictitious characters system 1 and system 2 have made the book interesting. Kahneman tells many interesting stories regarding biases of humans. At many places he posed questions; answers to which might look like irrational but our decision-making is not strictly rational. Many conclusions seem obvious but they violate the rational agent model. This book is highly recommended if you want insights into the decision-making process of the mind. 

Jun 22, 2016

आदमी और लाइटहाउस

जैसे तेज हवा में झूमते फलदार वृक्षों के बीच
सैकड़ों वर्षों से संचित अनुभवों में डूबा हुआ
ज़मीन से बहुत तरह से जुड़ा हुआ एक वटवृक्ष,
जैसे कारण की तलाश में
स्थापित विचारधारा को नकारता चलता हुआ
समाज से अलग-थलग पड़ गया एक दार्शनिक,
जैसे बगीचे से तोड़ लाया गया
किसी व्यक्ति विशेष की शोभा बढ़ा देने के लिये
खुश हो या दुःखी हो, इसमें भ्रमित एक अकेला फूल,
और जैसे किसी निर्जन समुद्र-तट पर
छोटी-बड़ी लहरों से घिरा हुआ
जल और थल दोनों को देख चुका एक लाइटहाउस।

जैसे इश्क़ में चोट खाये आशिक़ की आँखों में
उम्मीद की तरह बस गया
तारों के बीच अकेला दाग़दार चौदहवीं का चाँद,
जैसे कभी कहानियों में पढ़े
लेकिन गमलों में कभी न देखे हुये
नीले फूलों को जंगल में तलाशता हुआ एक घुमक्कड़,
जैसे पहाड़ के दबाव भरे जीवन को छोड़कर
आसपास की चीजों का कौतूहल जागृत करती हुई
सोते से निकलती हुई एक अकेली धार,
और जैसे सैलानियों की भीड़ में
उनके आकर्षण का केंद्र बना हुआ
चट्टान पर खड़ा हुआ एक लाइटहाउस।

जैसे एक पन्ने के आखिर तक पहुँचकर
अंतिम वाक्य के अर्थ को पूरा करने के लिये
पन्ना पलटने को बेताब
मगर कहानी में नये मोड़ से अंजान एक पाठक,
जैसे शीशे की सतह पर
अपने शरीर से दुगुना वजन लेकर चढ़ती हुई
बार-बार गिरती हुई मगर फिर प्रयास करती हुई
अपनी क्षमता से अंजान, झुण्ड से खो गयी एक चींटी,
जैसे सूनेपन के शाप से परास्त
चमकदार गाड़ियों को देखता हुआ
मगर हाईवे की भागमभाग से अंजान उसमें मिलता हुआ एक गलियारा,
और जैसे राह भटके जहाजों को
घने अंधेरी रात में राह दिखाता हुआ
लेकिन समुद्र की गहराई से, लहरों के पार की रोमांचक दुनिया से अंजान
एक लाइटहाउस।

Jun 21, 2016

बूँद - 3

मुहार खुलने की बस देर थी
एक महीन बौछार अंदर चली आयी
(मुझे बूँदों के समूह का स्वागत करना चाहिये था)
और आयी तो अकेले नहीं आयी
अपने साथ ले आयी ठण्डी नम हवा
तड़ित आघात की गड़गड़ाहट
बारिश से भीगी किसी डाली का सलाम
और किसी के गेसुओं की मोहक खुशबू
अचानक हुये इस परिचय से
मैं चौंक सा गया था
एक सिहरन सी हुयी
मैंने झट से दरवाजा बंद कर लिया था|

सोचता हूँ यूँ दरवाजे की ओट में
कि मेरे मन ने भी तो कितनी दीवारें खड़ी कर ली हैं
सहूलियत, अहमियत, असलियत की दीवारें
(हाँ कोई पुराना दर्द उभर रहा है)
यदि आदमी सूखे लट्ठे हों तो
नियति लकड़हारा बनकर उनमें मेल करा सकती तो है
यदि आदमी दो दूरस्थ तारें हों तो
जिजीविषा गुरुत्वाकर्षण बन उन्हें जोड़ सकती तो है
पर वो आदमी है, जीवित है
पूर्वाग्रह की दीवारें भी तो इतने साल से बनायी हैं
(कोई कलम के माध्यम से मेरे मन में झाँकने की कोशिश कर रहा है)
वो देखो अमलतास के फूलों का एक गुच्छा
परछाईं बनकर खिड़की में मुझसे मिलने आया है|

बौछार अभी भी हो रही थी
दरवाजे के नीचे गिरती बूँदों से पता लग रहा था
दरवाजा फिर से खोल दूँ तो?
मन की दीवारें सब तोड़ दूँ तो?

Jun 20, 2016

सपने और हक़ीक़त

तारे गिनते हुये वो नन्हीं आँखें
जिन्हें बता दिया गया है
कि आसमान से आती हैं परियाँ
और सच कर देती हैं सपने
जिनमें ये बात पैठ कर गई है
कि सुपरहीरो ख़त्म कर सकते हैं
दुनिया की तमाम बुराइयाँ
जिनमें सपने हैं पक्षियों की तरह खुलकर उड़ने के
पतंग की तरह बंधकर नहीं
मैंने उनको बताये बिना चुरा लिया
वो सपना उसकी आँखों से।

धान के खेत में बैठकर
हल्के काले बादलों को देखकर
हवा की दिशा का अंदाज़ लगाते हुये
घाघ की कहावतों से मौसम का मतलब निकालते हुये
एक किसान ने इस साल
अपनी बेटी के हाथ पीले करने का सपना देखा
जिससे किसी ज्योतिषी ने बता दिया था
कि खेत की पूजा करवा लो, दान-दक्षिणा दो
इस साल फसल अच्छी होगी
मैंने वो सपना बो दिया था
भविष्य की उपजाऊ मिटटी में।

रिश्तेदारों से मुँह चुराते हुये
एक बाप ने कभी नहीं सोचा था
कि उसकी परवरिश में कोई कसर हो सकती है
जिसकी बेटी ने प्यार कर लिया था
और उसे अंजाम तक पहुँचाने का फैसला कर लिया था
उसने उन वर्षों से समेटे सपनों को
घर से बाहर निकाल दिया था
और दरवाज़ा हमेशा के लिए बंद कर लिया था
मैं उन सारे सपनों को बीन लाया था।

मैंने इन चुराये हुये,
बोए हुये,
बीने हुये सपनों को
अपनी डायरी में नोट कर लिया था
कभी किसी कहानी में, किसी कविता में टांक दूँगा
ताकि कोई बनावट की तपिश में तपते हुये कल आये
तो उसे दो पल की ठंडक मिले
लोग पूंछेंगे कि ऐसे असल सपने कहाँ मिलते हैं
मैं कहूँगा,
कि असल सपने तो बस
उपन्यासों, कविताओं, लोरियों में मिलते हैं
हक़ीक़त मिलती है तो बस अख़बारों में, उपदेशों में;
या शायद वहाँ भी नहीं।

Jun 17, 2016

पुस्तक समीक्षा : दुष्यंत कुमार द्वारा रचित 'साये में धूप'

दुष्यंत कुमार का ग़ज़ल संग्रह 'साये में धूप' उस दौर की रचना है जब देश कुछ दशक पहले ही आज़ाद हुआ था, लेकिन राजनीति के प्रति निराशा समाज में और फिर साहित्य में साफ़ झलकने लगी थी। कुछ ऐसी ही भावना अज्ञेय जी के डायरी अंशों के संकलन 'कवि-मन' में भी देखने को मिली थी लेकिन अज्ञेय जी वहाँ अधिक मुखर थे। हिन्दी के साहित्यकारों द्वारा स्वाधीनता संघर्ष में किए गये योगदान – कुछ ने उत्तेजक लेख और कवितयें लिखी थीं और कुछ साहित्यकार तो स्वयं जेल भी गये थे – को देखते हुए उनकी भारतीय सरकार से आशायें भी बहुत थी लेकिन सरकार के काम करने के तरीके और जनता के सरोकारों से कोई मतलब ना दिखाती हुई सरकारों का चित्र हमें ‘70 के दशक के साहित्य में दिखता है। ये भावना आगे आने वाले दशकों में बलवती ही हुई है और शायद इसलिए राजनीतिज्ञ इतने अलोकप्रिय हो गये हैं।

'साये में धूप' की गज़लें उसी दौर की उस हताशा का प्रतिनिधित्व करती हैं। कुछ प्रसिद्ध गज़लें जैसे 'हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए', 'कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए' आपने अवश्य ही सुनी होंगी क्योंकि राजनितिक विश्लेषण करते हुए इन गज़लों के माध्यम से नाकामियों को दर्शाया जाता है। दुष्यंत कुमार की गज़लों में ग़रीबों के प्रति सहानुभूति साफ़ झलकती है। उनकी मज़बूरियों को वो अपनी ग़ज़लों में स्थान देते हैं क्योंकि स्वतंत्रता के बाद सरकार से सबसे ज़्यादा किसी वर्ग को उम्मीद थी तो वो इन्हीं को थी। उदाहरण के लिए देखिए -
'ना हो कमीज़ तो पावों से पेट ढँक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिए।'
'ये सारा ज़िस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा
मैं सज़दे में नही था, आपको धोखा हुआ होगा।'
'चट्टानों पर खड़ा हुआ तो छाप रह गई पावों की
सोचो कितना बोझ उठाकर मैं इन राहों से गुज़रा।'

ऐसा नही है कि 'आम आदमी' की आवाज़ उस समय सिर्फ़ दुष्यंत कुमार जी ने ही उठाई थी। तमाम अन्य साहित्यकारों ने भी इसके लिए आवाज़ उठाई थी, लेकिन ज़्यादातर लोगों ने गद्य में – ज़्यादातर आलोचना या व्यंग – ही किया था। दुष्यंत कुमार इसे ग़ज़लों के रूप में लाकर एक अलग ही आवाज़ दे देते हैं। शाषन व्यवस्था में फैली पंगुता और भ्रष्टाचार को उन्होने इन शेरों के माध्यम से व्यक्त किया है -
'यहाँ तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियाँ,
मुझे मालूम है पानी कहाँ ठहरा हुआ होगा।'
'भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ,
आजकल दिल्ली में है ज़ेरे बहस ये मुद्दआ। '
'इस सड़क पर इस क़दर कीचड़ बिछी है
हर किसी का पाँव घुटने तक सना है।'

दुष्यंत कुमार ने सिर्फ़ जनता की छटपटाहट को ही स्थान दिया हो ऐसा नहीं है। कई ग़ज़लों में आशावादी स्वर रहे हैं। कुछ शेर देखिए -
'एक चिंगारी कहीं से ढूंढ़ लाओ दोस्तों,
इस दीये में तेल से भीगी हुई बाती तो है।'
'कैसे आकाश में सुराख़ नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालों यारों।'

दुष्यंत कुमार की ग़ज़लों के कुछ और रुचिकर अंश यहाँ देखिए -
'मौत ने तो धर दबोचा एक चीते की तरह,
ज़िंदगी ने जब छुआ तब फासला रखकर छुआ।'
'सिर्फ़ हंगामा खड़ा करना मेरा मक़सद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।'
'मूरत सँवारने में बिगड़ती चली गई,
पहले से हो गया है ज़हाँ और भी खराब।'

Jun 10, 2016

Book Review : 'Does The Elephant Dance?' by David M. Malone

'Does The Elephant Dance? Contemporary Indian Foreign Policy' is a study of Indian foreign policy and its evaluation on various parameters. The author of this book, David M. Malone who served as the ambassador of Canada to India, has seen the framing of Indian foreign policy from close quarters and has met with actors involved in decision-making. Malone, while talking about why a book on foreign policy, says that in India there are few books on the subject and much needs to be done. In the starting few chapters, the author tries to present the historical context of India's ties and narrates the incidents of the past which can invoke emotions in the present. The author also delves into the colonial past of the India and the policies shaped by this burden of the past. 

'Does The Elephant Dance?' by David M. Malone
The author divides the Indian foreign policy broadly into three periods where differences in policy decisions can be distinguished from other periods. The first one was under the leadership of prime minister Nehru. This period was marked by the ideological posturing where India supported anti-colonist struggle everywhere in the world tried to be the leader of poor countries recently freed from the clutches of the colonialism. Although India detached itself from the harsh realities of the bipolar world, it continued to focus on domestic issues and consolidation of India as a nation, which was predicted by many as doomed to fail given its inherent diversity and widespread poverty and illiteracy.

Malone characterizes the second phase by the presence of a visible socialist tilt in Indian domestic politics under the leadership of Indira Gandhi and later under her son, Rajiv. Although India continued its lip service towards Non-Aligned Movement (NAM), it signed a security pact with USSR and became a major purchaser of Soviet defense equipment. This may have been necessary given the lavish aid being given to Pakistan by US and China, and India starting to pay the price for its idealism. 

The third and final phase of Indian foreign policy started with the liberalization of the Indian economy in early 90's and has continued till date. During these two decades, India became much confident and it used its economic might in foreign policy decision making. Conversely, foreign policy objectives were largely seen from an economic angle. 

The author also emphasizes that if India has to emerge as a superpower, it has to solve longstanding issues in South Asia and improve relations with its neighbors. No country can be a superpower if its own backyard is messy. The author sees the situation improving in this area with India renewing a cooperation treaty with Bhutan and agreeing to a greater role for UN in Nepal. The defining factor for the regional disturbance in South Asia is the longstanding rivalry between Indian and Pakistan. The author says there has to be a give and take if the problems between these two countries are to be settled and being a bigger country, India has to give more and take less. This position taken by the author seems difficult to realize given political compulsions of two countries. 

The author also discusses India's role in multilateral organizations and concludes that the country has become more assertive riding on its economic power. The role of India in trade negotiations under WTO has been consistently criticized by Western powers and sometimes countries initially supporting India jumped the ship. The main contention is the protectionist policies such as agricultural subsidies. Another area where India has been labeled as a spoiler is climate talks. While environmentalists have been insisting that India should cut emissions, India's point has been that a fast developing country will burn fossils to satisfy its energy needs like the West did in the past. It can be said that in these cases, the author has taken the West's line without thinking much about India's domestic compulsions. 

It must be said that five years can bring a huge change in a matter as fast changing as foreign policy. Although the broad contours of the India foreign policy remain same, there has been many changes including India's proactive role in multilateral organizations like BRICS, IBSA, and G20. Backed by its impressive economic performance, India has cemented its place as a rising world power. The author also says that India should invest more in human resources in the area of foreign policy, who can provide independent and valuable advice when required. 

Jun 6, 2016

मैं न था

(इस ग़ज़ल की प्रेरणा 'ज़फर' की ग़ज़ल 'यार था गुलज़ार था' से ली गई है। ग़ज़ल का मीटर भी वहीं से लिया गया है।)

साहिल था, मौज थी, आराम था, मैं न था
आयी फिर आवाज़ रूह की, जाम था, मैं न था।

सफ़र और हमसफ़र में तमाम दूरियाँ छा गयीं
साथ ही बैठे थे हम, वो वहीं था, मैं न था।

सुना कि फिर मेरी नज़्म पर मचा है कोहराम
इसके पीछे बज़्म की आबो-हवा थी, मैं न था।

फ़ैसला सुनाकर क़ाज़ी ने पूछा शिर्क़ का मक़सद
हँसकर कुछ न कहा, मुज़रिम इश्क़ था, मैं न था।

उड़ गये सभी अज़ाब को ज़मीं पर छोडकर आखिर
ख़ुशनसीब इस जहां में बस परिंदे थे, मैं न था।

इतना आसां क्यों है, एक खूंटे से ही बंध जाना
क़ैद तो बस मेरा जिस्म था दुनिया में, मैं न था।

धूप और छाँव में जीवन के मानी तलाशते मिला
फ़लसफ़े में डूबा आवारा यायावर था, मैं न था।

बज़्म - assembly; शिर्क़ - polytheism; अज़ाब - pain

Jun 3, 2016

बूँद - 2

धीरे-धीरे सरकती हुई
छज्जे पर से नव पथ को ताकती हुई
एक नन्हीं बूँद यूँ ही
अपनी अपार सम्भावनाओं के बारे में सोचने लगी।
बूँद ने सोचा
कि खिड़की तक पहुँचकर
बल्ब की रोशनी में जगमगाकर
कोई दिव्य पुञ्ज सा बनकर
इन्द्रधनुषी रंगों में
अपनी छटा बिखेर देगी
जिसमें दीख जायेगी
छवि जल-थल-नभ की।
ताल-तलैय्या से लेकर
हाहाकार मचाते महानद तक
अनन्त की सीमा लाँघते अपार सिंधु बनने को आतुर
शक्ति-संचिता बूँद ने
रोमांच से बंद कर ली आँखें अपनी
झूम गयी वह मारी विस्मय की।
यूँ सोच लिये क्षण भर में
अनगिनत उद्द्येश्य
उस तथाकथित आत्म-जागृत बूँद ने
यह निश्चय कर लिया
वह कुछ कर जायेगी
जिससे आ सके
सौगात प्राणि-मात्र के जीवन में खुशियों की।

यह सब सोच ही रही थी अभी
कि बूँद
छज्जे से सरकी
और फ़र्श पर आन गिरी
कहीं खो सी गई वह
फ़र्श पर नाचती हुई अनगिनत अन्य बूँदों में
अस्तित्वविहीन;
विराट में विलीन;
नादान बूँद बना रही थी
क्षणमात्र के अस्तित्व के लिये
इतनी सारी योजनायें।