tag:blogger.com,1999:blog-33306356345328788162024-03-14T11:03:19.706+05:30yayawar । यायावरशाश्वत सत्य की खोज में ...Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.comBlogger229125tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-34052089703592402472017-12-31T07:00:00.000+05:302017-12-31T07:00:41.363+05:30मौनतुम्हें साहित्य लिखना है न <br />
तो तुम सबसे पहले मौन लिखो। <br />
<br />
इतना मौन <br />
कि जहाँ तुम सुन सको काल-चक्र की धड़कनें <br />
और गिन सको साँसें <br />
महसूस कर सको <br />
संसार को अपने आप में,<br />
जहाँ छू सको देश और काल की धुरियों को,<br />
और विचरण करो <br />
विचारों के निर्वात में,<br />
वो निर्वात <br />
जो आँधियों को अपनी तरफ खींचता है,<br />
जहाँ जान सको <br />
संसार में अपनी ठीक-ठीक स्थिति,<br />
जहाँ तुम शून्य में गिरो <br />
और तुम्हारे गिरने की कोई आवाज न हो,<br />
तुम्हारे गिरने पर काल का अट्टहास हो <br />
जिसे तुम्हें छोड़कर कोई भी न सुन सके,<br />
उतने मौन में <br />
जितने में होने और न होने की सीमाओं का लोप हो जाये <br />
और तुम बौखला उठो,<br />
और यह सोचो <br />
कि आसपास घटित होने वाली कौन-सी घटना <br />
पक्का-पक्का यकीन दिला सकती है <br />
कि तुम हो,<br />
मौन इतना हो <br />
कि तुम्हें कुछ सुनाई न दे <br />
अंतरिक्ष की रिक्तता की तरह <br />
जहाँ आवाजें नहीं होती हैं, <br />
लेकिन होता है प्रकाश <br />
जिसे आँख मूँदकर भी पाया जा सके,<br />
सन्नाटे के शोर में अनुभव करो <br />
कि धरती का घूमना रुक गया है, <br />
आसमान नाम की कोई वस्तु वैसे भी नहीं है,<br />
दुनिया तुमको देख रही है,<br />
सड़क घाटी से ऊपर आ चुकी है,<br />
शरीर में पांच तत्व होते हैं,<br />
Orion समंदर से नहाकर निकल रहा है,<br />
यादें मष्तिष्क की कल्पना हैं,<br />
खिड़की से लाल रौशनी तुम्हारे पास आ रही है,<br />
काफिला रेगिस्तान में पानी से बहुत दूर है।Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-81858022091087148282017-12-27T07:00:00.000+05:302017-12-27T07:00:28.822+05:30जीवन की दहलीज़ परलहरों का बुलावा जानलेवा था <br />
मेरी अपनी समझ कुछ कच्ची थी <br />
अगर मैं सब कुछ जान लेता <br />
तो भी मैं क्या करता,<br />
दुनिया की परतें अंजान थीं <br />
अंजान का आकर्षण था <br />
दुनिया को अपने से अलग कर पाता <br />
तो शायद लहरों को सही-सही देख पाता,<br />
सारी लहरें किनारे आकर पत्थर से नहीं टकराती <br />
कुछ बीच समन्दर में ही दम तोड़ देती हैं <br />
किनारे पर बैठकर देखता हूँ <br />
सफ़ेद झाग कहीं-कहीं समन्दर में <br />
फैलते हैं बिना किसी पैटर्न के,<br />
लहरें हवा की बात मानकर <br />
किनारे की तरफ़ बढ़ती हैं <br />
पत्थरों से उनकी टक्कर भयावह थी,<br />
लहरों का बुलावा जानलेवा था।<br />
<br />
हवा की गूँज कर्कश थी<br />
(सिर्फ़ मेरे मानने से<br />
हवा कर्कश हो जायेगी?<br />
विशेषण सापेक्ष हो सकते हैं)<br />
तट पर फैले हुये झोपड़ियों के झुण्ड में से <br />
पीले तिरपाल से ढकी हुयी <br />
एक नारियल की दुकान है <br />
और कातर दृष्टि से देखती हुयी <br />
उसकी बूढ़ी मालकिन <br />
खोजती है झोपड़ी में रस्सियों को,<br />
उसमें मृत्यु का, परलोक का कोई भय नहीं था,<br />
भय था मात्र आज का, कल का,<br />
हवा को भी वहाँ नहीं टिकना है <br />
क्षणिक विजय लेकर आगे बढ़ना था,<br />
और उस पुरानी झोपड़ी में <br />
ढेर सारा जीवन भरा था <br />
जीवन की साँस के लिये <br />
हवा का हर एक झोंका ठोकर था,<br />
लहरों का बुलावा जानलेवा था।<br />
<br />
समन्दर की गहराई में भी खिंचाव था<br />
('जिन खोजा तिन पाईयाँ' मुझे सिखाया गया है)<br />
और उतरना समन्दर में <br />
चट्टानों की बनी हुई सीढ़ियों से <br />
और फिर खो देना सीढ़ियों को <br />
सीढ़ियाँ थीं?<br />
नहीं;<br />
उतर जाना आसान था <br />
इसीलिये मान लिया गया था,<br />
और गहराई में खोजना फिर वही जीवन <br />
जिसको त्याग दिया गया था <br />
लेकिन जिससे मन अभी भरा नहीं था <br />
खोजना फिर वही साँसों के कारण <br />
निकलने वाले बुलबुले,<br />
होना क्या था <br />
और हो जाना क्या<br />
यह हमें अभी तक ज्ञात नहीं था,<br />
और हम खोजने निकले थे गहराइयाँ,<br />
खोजने निकले थे वो <br />
जिसे हम अपने ज्ञान से <br />
ज्ञात श्रेणियों में बाँट सकें, <br />
जो नया था उससे अनभिज्ञ ही रहना था,<br />
होना सत्य है,<br />
हो जाना लेप है? सचमुच?<br />
गहराई का सन्नाटा निर्मम था,<br />
लहरों का बुलावा जानलेवा था।<br />
<br />
सूरज बहुत साधारण था,<br />
बादलों से लड़कर शायद परेशान हो गया था <br />
या कोई और गम्भीर वजह थी शायद?<br />
अब, जबकि यह जान लिया गया है <br />
कि सूरज नहीं है संसार के केंद्र में <br />
और है मात्र एक औसत तारा, <br />
रोज़ सुबह आना<br />
और रोज़ शाम को जाना<br />
नहीं है सूरज के नियंत्रण में,<br />
या प्रार्थनायें पृथ्वी पर समृद्धि के लिये <br />
नहीं सुनता है सूरज,<br />
तो सूरज खो देता है <br />
अपने सभी मानी <br />
जो भी इसने बना रखे हैं रोज़ आने-जाने के,<br />
नहीं, उद्दयेश्य की लड़ाइयाँ नहीं लड़ी जाती ऐसे <br />
आरोपित कर दिये गये मानी<br />
नहीं बता सकते हैं सत्य क्या है?<br />
सत्य बदला जा सकता है?<br />
सत्य काल पर निर्भर है?<br />
आज जो सत्य है, कल भी रहेगा?<br />
सवालों के बोझ से दबी हूयी <br />
सूरज की किरणें थकी-हारी थीं,<br />
लहरों का बुलावा जानलेवा था।<br />
<br />
रेत की पकड़ ढीली थी<br />
समन्दर पूरे उफान पर था <br />
हवा ज़ोर-शोर से बह रही थी <br />
और बह रहे थे एक-एक करके <br />
रेत के बनाए महल<br />
फिसल रही थी रेत धरती की मुट्ठी से<br />
जैसे फिसलता है समय वर्तमान से,<br />
पराजय?<br />
पराजय नहीं है ये <br />
क्षणिक युद्धविराम है <br />
और क्षण हैं जिसके सदियों जैसे लम्बे,<br />
उस क्षण में सिमटी हैं रेत आज बलहीन<br />
युद्ध के मैदान में युद्ध के बाद की<br />
क्षत -विक्षत अवस्था में,<br />
लेकिन एक दिन <br />
समन्दर में कुचली हुयी रेत उठ खड़ी होगी <br />
टापू समन्दर के बीचों-बीच फिर खड़े होंगे <br />
जय-पराजय फिर से नये परिभाषित होंगे <br />
और समय हँस उठेगा <br />
उस एक क्षणिक विजय पर भी <br />
तब तक देखना है यही,<br />
रेत की अवस्था दयनीय थी,<br />
लहरों का बुलावा जानलेवा था।<br />
<br />
रात की चमक फीकी थी <br />
चाँद की चाल थकी सी थी<br />
चमकीली लहरों को निहारना <br />
जहाँ लहजा भी कुछ अनमना था,<br />
और जबकि यह मालूम था <br />
कि आज गर्व करने लायक जो कुछ भी है <br />
(या घमण्ड करने लायक,<br />
लड़ने के लायक)<br />
सब समन्दर का ही दिया है <br />
मोती, पानी, भोजन, वैभव<br />
और यह भी कहा गया है <br />
कि जीवन की उत्पत्ति भी समन्दर से ही हुयी है;<br />
यह मालूम होने के बाद भी <br />
यह लगता था <br />
कि समन्दर बस क्षय कर सकता है,<br />
आओ, समन्दर फिर से देखते हैं <br />
ये लहरें किसी दूर देश की प्रतिनिधि हैं <br />
जो लाती हैं अक्षुण्ण रहस्य <br />
और विलीन हो जाती हैं;<br />
संदेशवाहक किसी नयी दुनिया के?<br />
हम भी स्थायी नहीं हैं, <br />
संदेशवाहक प्रकृति के?<br />
गर्व करने लायक हर एक बात <br />
याद करके ढीली छोड़ दी गयी <br />
रात बहुत निष्ठुर थी,<br />
लहरों का बुलावा जानलेवा था।<br />
<br />
लहरों का बुलावा जानलेवा था<br />
समन्दर के पार की दुनिया बहुत चमकीली थी <br />
(चकाचौंध से खींचने वाली चमक)<br />
तूफ़ानों के किससे बहुत भयावह थे <br />
तलहटी में दूबे हुये जहाज़ <br />
दुस्साहस के उदाहरण थे,<br />
जीवन रेत पर बैठा हुआ था<br />
पानी में पैर भिगोये हुये <br />
क्या देख सकता था?<br />
रंग-बिरंगी सीपियाँ,<br />
कहीं-कहीं बिखरे थे मोती,<br />
काल के किसी कोने में गिरे होंगे<br />
जीवन का इंतज़ार करते होंगे, <br />
सोच सकने वाली हर एक बात <br />
कही-सुनी जा चुकी होगी <br />
हिदायतें जितनी भी इतिहास दे सकता है <br />
जीवन ने पढ़ ही ली होंगी,<br />
जीवन को मोती खोजने जाना ही पड़ेगा <br />
और देखना होगा <br />
पानी में डूबे पत्थर के क़िलों को <br />
जिनमें चस्पा हैं समय के अट्टहास,<br />
जीवन समय से आगे निकल चुका है <br />
जीवन समय से पिछड़ गया है, <br />
जीवन समय के साथ क़दम-ताल मिला रहा है,<br />
सब कहीं न कहीं सच हैं <br />
(अज्ञानता बहुत आकर्षक थी)<br />
लहरों का बुलावा जानलेवा था।Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-32440999176003723032017-12-23T07:00:00.000+05:302017-12-23T07:00:27.745+05:30हिमालयऊपर तुम<br />
रात में चाँद को अपने सिर पर ओढ़े हुये <br />
और झरनों के उदगम को <br />
इतिहास की उठापटक को <br />
सीने में दबाये हुये<br />
बर्फ़ की मोटी चादर में <br />
धरती के रहस्य छिपाये हुये,<br />
ऊपर तुम <br />
जहाँ बादल आकर सुस्ताते हैं <br />
जहाँ अभी सूरज को जाकर<br />
तैय्यार होना है कल के लिये।<br />
<br />
नीचे हम <br />
खाने के बर्तन खनखनाते हुये <br />
वॉलीबॉल के खेल में ख़ुद को उलझाते हुये <br />
दूर प्रदेशों की यादों में पहचान पाते हुये,<br />
लेकर अपनी मानवता का भार <br />
हम, तुम पर विजय प्राप्त करने की मंशा लिये हुये। <br />
<br />
(धानद्रास, रूपिन घाटी में अज्ञेय की कविता 'नन्दा देवी' पढ़ते हुये)Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-71286591307455132942017-12-19T07:00:00.000+05:302017-12-19T07:00:48.709+05:30बहुत बरस बादमुझे याद है <br />
सबकी आँखों का भाव-विभोर होना,<br />
घुँघरुओं की गूँज <br />
तुम्हारे पैरों का ताल में उठना-बैठना<br />
और थाम लेना कई धड़कनें,<br />
तुम्हें याद है<br />
तुम्हारे पैरों का थककर जवाब दे देना।<br />
<br />
मुझे याद है <br />
तुम्हारी ख़ुशी, जो तुमने ओढ़ी हुई थी<br />
और मिलने का अन्दाज़ <br />
क़ाबू किये हुये जज़्बात,<br />
शाम का मिलना रात से <br />
और रात का जुदा होना सुबह से,<br />
तुम्हें याद है <br />
सावन के वो सारे अकेले दिन।<br />
<br />
मुझे याद है <br />
लौ का उजाला<br />
और ठिठकना रौशनी का <br />
यूँ तुम्हारे चेहरे के ठीक सामने <br />
सम्भलना समय की सीख से <br />
और समाप्त हो जाना अंधेरे के सामने,<br />
तुम्हें याद है <br />
बाती आगे निकालते हुये <br />
गरम तेल में हाथ जला लेना।<br />
<br />
मुझे याद है <br />
शोर का शांत होना,<br />
तुम्हें याद है <br />
जलकर राख हो जाना।Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-35838716114328939132017-12-15T07:00:00.000+05:302017-12-15T07:00:06.664+05:30अनाम लोगों के ख़त"इधर कुछ दिनों से सूरज नहीं निकला है <br />
मैं बेचैन हो गया हूँ <br />
ताज़्ज़ुब इस बात का है <br />
किसी को इस बात से फ़र्क़ नहीं पड़ता है,<br />
सूरज?<br />
अरे नहीं! Satellite से देखा गया है<br />
मौसम विभाग ने बताया है <br />
आसमान साफ़ हो जायेगा कुछ दिनों में <br />
अजीब लोग हैं <br />
सूरज देखने के लिये नहीं उठते हैं,<br />
ख़ैर छोड़ो, तुम अपने शहर का मौसम बताना।"<br />
<br />
"हवा उस दिन भी बहुत तेज थी <br />
हर तरफ़ उड़ रहे थे काग़ज ही काग़ज<br />
और लोगों की भीड़ दौड़ती थी <br />
कागज़ों को पकड़ने के लिये<br />
कभी बादल का आँसू कोई गिर उठता <br />
तो काग़ज नम होकर वहीं बैठ जाता<br />
दफ़्न होने के इंतज़ार में <br />
हवा रगड़ खाती थी शब्दों से <br />
और पूरा माहौल गरम हो उठता था <br />
उबलने लगती थी यथास्थिति,<br />
उस दौर की बातें भी अब विश्वसनीय नहीं हैं <br />
मैं अब कागज़ों के पीछे दौड़ने लायक उम्र में नहीं रहा हूँ <br />
एक खाली पार्क की बेन्च पर बैठकर <br />
कई दशक पहले की बात लिख रहा हूँ <br />
अब मुझे डर है <br />
कि विद्रोह नहीं कर पाउँगा।"<br />
<br />
"ज्यादा कुछ लिखने के लिये नहीं है <br />
इतना जान लो <br />
कि कुछ लिखने के लिये न होते हुये भी <br />
एक खाली पोस्टकार्ड <br />
तुम्हारे पते पर भेज रहा हूँ,<br />
परम्परायें बाँध देती हैं, तुमने कहा था <br />
लो, मैं एक नयी परम्परा खड़ी करता हूँ <br />
बँधना या न बँधना <br />
तुम्हारा फैसला है।<br />
(बाहर बर्फ़ गिरने लगी है <br />
जिस घर में मैंने शरण ली है <br />
वहाँ मेरे पास करने के लिये कुछ नहीं है <br />
सोचा तुम्हारे लिये एक ख़त लिखूँ।)"<br />
<br />
"पहले लकड़ी की शाखायें काटी जाती हैं <br />
हरी होती हैं <br />
फिर सूखकर धीरे-धीरे सख़्त हो जाती हैं <br />
फिर उनमें आग लगाई जाती है <br />
बहुत आँच उठती है <br />
चारों ओर खड़े लोगों के <br />
चेहरे साफ़ देखे जा सकते हैं,<br />
सुबह वहाँ बस राख का एक ढेर था,<br />
जिसे दोपहर तक <br />
किसी एक गड्ढे में फेंक दिया गया था;<br />
मैंने ज़िंदगी को <br />
इसी ढाँचे में रखकर देखा था,<br />
तुम अपने आग वाले पड़ाव के बारे में लिखना।"<br />
<br />
"ख़त लिखने से पहले <br />
बहुत कुछ याद करना चाहता हूँ <br />
और जब इस बारे में सोचता हूँ <br />
तो यह लगता है <br />
कि ‘याद' सिर्फ़ वही होता है <br />
जिस पर हमने बात की थी कभी <br />
या जो बात करने लायक घटनायें थीं,<br />
‘याद' सिर्फ़ उसे ही कहा जा सकता है<br />
जो घटनायें हमने साझा की थी,<br />
ऐसी बहुत सी चीज़ें थीं <br />
जो हमने अलग-अलग जिया था <br />
उसे मैं यादों के रूप में तो नहीं लिख सकता <br />
उसे कुछ और नाम दूँ -<br />
अनुभव, घटना या कल्पना,<br />
या फिर ऐसी यादें ही कह दी जायें <br />
जो दहलीज़ के पार नहीं जा पायीं।"<br />
<br />
"तालाब के किनारे एक बड़े मैदान में <br />
पतंग उड़ाने जाता हूँ<br />
कल शाम को क्षितिज के आसपास <br />
चाँद बैठा था, <br />
मैंने पतंग के कोनों से उसे खुरच दिया था,<br />
और आज<br />
पतंग समेटते समय <br />
चाँद भी उसी में फँसकर चला आया था <br />
उसे मैंने खिड़की पर सजाकर रख दिया है <br />
और उसकी रोशनी में ये ख़त लिखा है <br />
तुम्हारी पतंग क्या लेकर आती है <br />
तुम इस बारे में लिखना।"<br />
<br />
"तुमने ख़त में बहुत कुछ लिखा था <br />
और मैंने वो सब समझा था,<br />
दर्शन, राजनीति, संसार सब<br />
ज़िंदगी से तुम्हारा सामना <br />
लेकिन ऐसा बहुत कुछ था <br />
जो नहीं लिखा गया था <br />
लेकिन मैं तुम्हारी लिखावट से <br />
अन्दाज़ लगा रहा हूँ <br />
अक्षर सही नहीं बैठ रहे हैं <br />
जैसे कोई आपाधापी हो,<br />
अगर कोई बात हो तो अगले ख़त में लिखना।"<br />
<br />
"तुमने लिखा था <br />
कि साहित्य वही अच्छा लगता है <br />
जो जिये जा रहे जीवन से दूर होता है<br />
जिसमें होता है एक खिंचाव <br />
उस काल्पनिक जीवन की तरफ़<br />
जिसको न पा सकने की स्थिति में <br />
खिंचाव बढ़ता ही चला जाता है <br />
और एक दिन इतना दूर हो जाता है <br />
कि उसे हम आदर्श मान लेते हैं;<br />
किसी विचार का पहुँच से दूर होना <br />
आदर्श होने के पहली कसौटी है;<br />
मैंने इस बात पर सोचा है <br />
और यह पाया इसका उल्टा भी सच हो सकता है<br />
कि साहित्य जिये जा रहे जीवन से <br />
दूर भी कर सकता है।<br />
जीवन जैसे जीना है <br />
जीवन जैसे जिया जा रहा है-<br />
दोनों में एक schism है।"<br />
<br />
"बहुत मुमकिन है <br />
कि यह ख़त तुम तक न पहुँचे<br />
लेकिन इसका यह मतलब नहीं <br />
कि ख़त लिखा ही न जाये <br />
हो सकता है कि अभी तक<br />
खतों की पंक्तियाँ <br />
काली स्याही से पोतकर छिपा दी जाती हों <br />
ख़तों को खोलकर पढ़ा जाता हो, <br />
उनको गंतव्य तक भेजने के पहले <br />
यह भी हो सकता है <br />
कि अतिसंवेदनशील मानकर <br />
ख़त को वहीं नष्ट कर दिया जाता हो <br />
फिर भी हम ख़त लिखा करेंगे <br />
(विरोध के लिये ख़ाली ख़त भी)<br />
क्रांति की आग में लकड़ियाँ डालना है <br />
ख़त लिखना होगा।"<br />
<br />
"और तुम ख़त में लिखो <br />
साधारण सी बातें, मैं पढ़ूँगा,<br />
तुम लिखो चढ़ी हुई साँसों के साथ <br />
क़दमताल करती हुयी तेज़ धड़कनें,<br />
बारिश के बाद धुली हुयी सड़कें <br />
शांत हो गए पेड़ <br />
सड़क पर बिछे हुये <br />
पीली रोशनी में चमकते हुये <br />
अमलतास के पीले फूल<br />
लगता है जिन्हें कोई सड़क पर सजाकर छिप गया हो,<br />
तुम लिखो ज़िन्दगी पर कोई उद्दंड नज़्म,<br />
किसी पगडण्डी की कोई खोई मंज़िल,<br />
सभ्यता की दो धारायें फाँदता हुआ कोई जर्जर पुल,<br />
गेहूँ के खेत में खिले हुये सरसों के पीले फूल,<br />
रेसनिक-हैलीडे के लेक्चर,<br />
कच्ची उम्र के कच्चे क़सीदे,<br />
Led Zeppelin IV के सुरों की समीक्षा,<br />
सूर्य-ग्रहण जो ताज़्ज़ुब से देखा गया था कभी,<br />
तुम लिखो पागलपन, आवारागर्दी,<br />
ग़ैर-ज़िम्मेदाराना हरकतें,<br />
यह यक़ीन दिलाया जा सकता है <br />
कि इतिहास के दस्तावेज़ों में <br />
इन ख़तों का कहीं कोई उल्लेख नहीं होगा।"Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-73419093845254405842017-12-11T21:30:00.000+05:302017-12-11T21:30:25.400+05:30औसत चेहरेभीड़ से मैं रोज़ाना गुज़रता हूँ<br />
और भीड़ में एकदम साधारण चेहरे देखता हूँ <br />
और उनमें खोजता हूँ <br />
धरती, आसमान, दौर, दूरी,<br />
सपने, नींद, रतजगे,<br />
भूख, आराम, धूल, धूप<br />
और ये औसत चेहरे हर जगह हैं;<br />
ठेले पर मक्खियाँ हटाता हुआ एक जलेबी बेंचने वाला,<br />
एक हाथ में नोटों की गड्डी सम्भालता हुआ <br />
और दूसरे हाथ से पेट्रोल भरता हुआ,<br />
बस की भीड़ में अपनी जेबें बचाता हुआ,<br />
तीन रुपये की कलम बेंचता हुआ,<br />
पीला हेल्मेट पहनकर इमारतें बनाता हुआ,<br />
फ़ाइलों के ढेर में डूबा हुआ,<br />
ऑफ़िस में सोता हुआ, <br />
समुद्रतट पर ‘रोमैंटिक वाक' खोजता हुआ,<br />
पार्टियों की शान बनकर रहने वाला,<br />
मोटर साइकल आगे वाले पहिये पर रोककर दिखाता हुआ,<br />
टी वी पर समाचार देखकर चिंतित होता हुआ,<br />
भविष्य को देख लेने का भरोसा देता हुआ,<br />
मंच से समस्याओं का निवारण देता हुआ,<br />
हर एक औसत चेहरा <br />
एक तरह से औसत ज़िंदगी जीता है,<br />
औसत चेहरों के समुद्र में <br />
डूबता रहता है<br />
उतराता रहता है <br />
जब तक साँस ज़िन्दा है तब तक,<br />
समर्पण के पहले तक<br />
घसीटती रहती हैं जिंदगियाँ चेतना को <br />
समय के समक्ष <br />
आत्म-समर्पण कर देने के ठीक पहले तक।Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-27181901974740048482017-12-07T07:00:00.000+05:302017-12-07T07:00:34.070+05:30बीते हुये भविष्य के किसी दिनएक सुबह हमें बैठना है <br />
बारिश में नीम के पेड़ के नीचे <br />
और देखना है सूरज को रोककर रखे हुये बादलों को झूमते हुये <br />
घोंसले से झाँकती हुयी एक गौरय्या को,<br />
हमें उठना है और चल देना है <br />
वहाँ जहाँ मिलते हैं धरती और आसमान <br />
जहाँ टाँगा जाता है इंद्रधनुष <br />
जहाँ से उठते हैं पक्षियों के झुण्ड।<br />
<br />
एक दिन हमें बैठना है <br />
किसी पहाड़ की ढलान पर <br />
जहाँ बिछी हैं किसी पेड़ की <br />
सींक जैसी पत्तियाँ,<br />
और पिछली यात्रा के स्थान <br />
खोजने हैं पहाड़ियों में <br />
सोचना है कि कितनी राहें चली जा चुकी हैं <br />
और कितनी बाक़ी हैं, <br />
कितनी धारायें पार की जा चुकी हैं।<br />
<br />
एक साँझ को सीपियाँ बटोरनी हैं <br />
समुद्र के किनारे बैठकर <br />
गिननी हैं लहरें <br />
करना है विदा सूरज को <br />
जैसे हम विदा करते हैं किसी प्रिय को <br />
यह जानते हुये की अलगाव क्षणिक है <br />
हमें मिलना ही है <br />
और याद कर लेनी है <br />
बीते हुये कल की दुनिया।<br />
<br />
एक रात हमें देखना है <br />
गिरते हुये एक पहाड़ी झरने को <br />
जिसका दूधिया रंग चमकता है <br />
रात के उजाले में <br />
जैसे आसमान से उतरती हैं परियाँ,<br />
हमें सुनना है झरने का गिरना <br />
और व्यथित पानी का बेबस चले जाना,<br />
कुरेदना है पानी की यादों को <br />
और फिर छिप जाना है अपने बसेरे में।Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-75435069916882742142017-12-03T07:00:00.000+05:302017-12-03T10:44:25.416+05:30तत् त्वम असि<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">ब्रह्माण्ड के निर्माण में <br />
जितने भी परमाणुओं का प्रयोग हुआ है <br />
उतने में <br />
कुछ और भी उतने ही आसानी से बनाया जा सकता था <br />
उन्हीं परमाणुओं के एक बहुत छोटे से समूह से <br />
बनी हुयी हैं सारी इकाइयाँ <br />
समस्त ब्रह्माण्ड की तुम भी <br />
बस एक छोटी-सी इकाई मात्र हो।<br />
<br />
'Free Will' का अस्तित्व है भी क्या?<br />
ये जाना जा चुका है <br />
कि शरीर की समस्त क्रियायें <br />
रासायनिक प्रक्रियाओं द्वारा नियंत्रित की जाती हैं <br />
यानी जिस समय हमें लगता है <br />
कि हम स्वतंत्र रूप से सोच-विचार कर सकते हैं <br />
उस समय भी कुछ रासायनिक प्रक्रियायें <br />
हमें ठीक वैसा ही सोचने के लिये प्रयासरत होती हैं,<br />
यह असहज करने वाला ख़याल है।<br />
<br />
व्याख्यायें बहुत हैं <br />
जिसने ब्रह्म को जिस तरह से देखा <br />
उसने उसकी उसी तरह से व्याख्या की<br />
ब्रह्म सबकी व्याख्याओं से दूर रहा <br />
व्याख्याओं से सत्य नहीं बदलता <br />
सत्य नाम से परे है <br />
लेकिन नाम दिये बिना <br />
सत्य बताया नहीं जा सकता <br />
क्या इसीलिये सत्य जाना नहीं जा सकता?<br />
सत्य जानने के पहले <br />
स्वयं सत्य की परिभाषा लिखनी पड़ेगी <br />
उसके बाद ही किसी घटना को <br />
'सत्य' के विशेषण से नवाज़ा जा सकेगा।<br />
<br />
बिखरी हुयी हैं galaxies <br />
पसरा हुआ है space<br />
और फैला हुआ है time <br />
जैसा हमें दिखता है संसार आज<br />
वो परिवर्तन है <br />
वरना विज्ञान मानता है <br />
कि समय की शुरुआत में <br />
सब एक था <br />
उससे पहले के समय की कल्पना बेतुकी है।<br />
<br />
विज्ञान यह भी मानता है <br />
कि जीवन का एक ही स्रोत है <br />
सभी जीवों का जीवन एक ही प्रक्रिया का परिणाम है <br />
और उनमें अंतर <br />
विभिन्न अवस्थाओं के परिणाम हैं <br />
(वैसे तो और भी सिद्धांत हैं <br />
लेकिन इसे लगभग मान ही लिया गया है) <br />
और इस तरह से <br />
जीवन की उत्पत्ति <br />
एक अनियंत्रित, अनियमित घटना थी।<br />
<br />
रेल की पटरियों की तरह <br />
जीवन जाता है घने जंगलों में <br />
और फिर से निकल आता है उसी तरह <br />
जंगल के दूसरी तरफ़ से <br />
बिना किसी बदलाव के; <br />
जीवन की कोशिश यही है <br />
कि स्थापित हो जाया जाये <br />
और बदलाव सिर्फ़ बाहरी हों?<br />
<br />
रात के दिये <br />
जानते हैं अंधकार का स्थायित्व, <br />
विशालतम तारों से निकलने वाला प्रकाश भी <br />
अंतरिक्ष के अंधकार पर <br />
विजय प्राप्त नहीं कर सकता <br />
जब तक किसी पिण्ड से टकरा नहीं जाये,<br />
मानी तब तक मानी नहीं हैं <br />
जब तक कोई उनमें ख़ुद को खोज न ले,<br />
स्वतंत्र रचना <br />
स्वतंत्र रचनाकार <br />
क्या मात्र भ्रम हैं?<br />
<br />
सर्द दिन की किसी दोपहर <br />
जब माहौल सुबह-सा होगा <br />
तब सुनहरी धूप के लिये तरसते हुये <br />
यह ख़याल आना चाहिये <br />
कि सूरज निर्बाध गति से <br />
काटता है चक्कर galaxy के केंद्र के चारों ओर,<br />
वैसे ही चमकता है,<br />
वैसे ही चलती हैं सौर आँधियाँ <br />
ब्रह्म के अनुपात के आगे <br />
ये मौसम, ये दिन-रात, सुबह-शाम <br />
सब hyperlocalized घटनायें हैं।<br />
<br />
समय चक्रीय है <br />
रास्ते गोल-गोल घूमते हैं <br />
सबसे बड़ी उपलब्धि यह है <br />
कि जहाँ से शुरुआत हो<br />
वहीं अंत के लिए वापस आ जाना <br />
बिना क्षय के,<br />
और यात्रा के बारे में सोचना;<br />
प्रकृति में सबको <br />
यह उपलब्धि हासिल नहीं है,<br />
समय को भी नहीं, सूरज को भी नहीं।<br />
<br />
एक सादे काग़ज़ पर<br />
बनाते हैं कुछ आड़ी-तिरछी लकीरें <br />
और फिर दे देते हैं उन्हें कुछ मानी <br />
अलग-अलग लोगों के मानी भी <br />
अलग हो सकते हैं;<br />
क्या जीवन भी कुछ ऐसे ही नहीं है?<br />
सबने जीवन को <br />
अपने-अपने मानी दे दिये हैं <br />
क्या सिर्फ़ तुलना करके जाना जा सकता है <br />
कि कौन सा मानी सम्पूर्ण है? <br />
क्या अपने दिये हुये मानी से <br />
संतोष किया जा सकता है?<br />
<br />
मनुष्य और प्रकृति में <br />
तालमेल भी है, प्रतियोगिता भी,<br />
किसको प्राथमिकता है <br />
इस बात पर अभी तक <br />
एकमत नहीं हो पाया गया है <br />
मनुष्य भी तो एक तरह से प्रकृति का भाग है <br />
तो क्या यह कहा जा सकता है <br />
कि जो मनुष्य कर रहा है<br />
वह प्रकृति कर रही है?<br />
<br />
दी हुयी परिभाषा <br />
और स्वयं खोजी गयी परिभाषा में <br />
कौन उत्तम है<br />
यह जानने का मापक क्या हो सकता है?<br />
(हरमन हेस के सिद्धार्थ ने इनमें से दूसरा रास्ता चुना था)<br />
जब तक परिभाषा खोज न ली जाये <br />
क्या तब तक जीवन जीने का इंतज़ार किया जाये?<br />
<br />
जीवन का यूँ तो कोई प्रत्यक्ष मानी नहीं है <br />
और यह बात सालती रही है <br />
मनुष्य जाति को युगों से,<br />
धर्म, दर्शन, विज्ञान, बोली, भाषा, <br />
कविता, त्योहार, बाज़ार, भोग,<br />
ये सब जीवन को तर्कसंगत मानी देने की कोशिशों का ही परिणाम हैं<br />
इतना सब होने के बाद भी <br />
यह नहीं कहा जा सकता <br />
कि जीवन को परिभाषित कर देना <br />
पहले से आसान हो गया है।<br />
<br />
और लगभग तभी से <br />
प्रयास जारी है यह जानने के लिये भी <br />
कि मनुष्य की ब्रह्माण्ड में स्थिति क्या है,<br />
उपनिषद में कहा गया है <br />
'तत्त्वमसि'<br />
अर्थात 'तुम' 'वह' हो <br />
और इसकी व्याख्यायें भी अनेक की गयी हैं :<br />
आत्म ब्रह्म है, ब्रह्म आत्म है;<br />
आत्म को जान लेना ही ब्रह्म को प्राप्त कर लेना है;<br />
आत्म ब्रह्म की एक इकाई मात्र है;<br />
आत्म ब्रह्म की एक अवस्था है;<br />
इत्यादि,<br />
पर उससे पहले यह जानना पड़ेगा <br />
कि 'तत्' क्या है, 'त्वम' क्या है;<br />
'अस्ति' के मायने क्या हैं?<br />
physical presence या consciousness?<br />
<br />
गौतम बुद्ध सिखाते थे स्वयं को त्याग देना<br />
मतलब आत्म की उपस्थिति ही <br />
सांसारिक दुखों का कारण है <br />
इस तरह से <br />
बुद्ध मानते थे <br />
कि 'तत्' को 'त्वम' से जोड़ देने में <br />
उस 'आत्म' के जीवन में <br />
दुखों का प्रवेश हो जायेगा,<br />
'तत्' के समक्ष 'मम' की उपस्थिति कैसी है <br />
इस बात पर अभी विवाद है। </div>Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-46808148987650358142017-11-29T07:00:00.000+05:302017-11-29T07:01:26.863+05:30जितना हैजितना लड़ना है इसलिये <br />
कि कोई कारण लड़ने योग्य है <br />
उतना तो लड़ना है ही <br />
उससे थोड़ा ज़्यादा इसलिये लड़ना है <br />
कि अहम् की संतुष्टि हो।<br />
<br />
जितना जूझना है <br />
ताकि जूझने से मुक्ति मिल जाये <br />
उतना तो जूझना है ही <br />
थोड़ा उसके बाद भी जूझना है <br />
जूझने में मज़ा आ गया है।<br />
<br />
जितना उतरना है नदी में <br />
ख़ुद को भिगोने के लिये <br />
उतना तो उतरना है ही <br />
थोड़ा उसके बाद भी उतरना होगा <br />
गहराई का अंत जानने के लिये।<br />
<br />
जितना देखा गया है <br />
और सहेज लिया गया है <br />
उतना तो चित्र बनाना है ही <br />
जो अभी अदृश्य है <br />
उसकी भी रचना करनी होगी<br />
ताकि भविष्य उसमें से <br />
अपनी राह खोज सके।<br />
<br />
जितना ख़ुद से दूर जाया जा सकता है <br />
उतना चले जाने के बाद भी <br />
ख़ुद से और दूर जाने की <br />
सम्भावना बनी रहेगी,<br />
और दूर कोनों में बैठे हैं <br />
मेरे अलग-अलग रूप,<br />
जो खींचते हैं जीवन को अलग-अलग दिशाओं में <br />
पूरा जीवन जीने के बाद भी <br />
इनमें से किसी रूप के अनुसार <br />
जीवन जीना बचा रहेगा।Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-73817368917595932932017-11-25T07:00:00.000+05:302017-11-25T07:00:04.993+05:30समुद्र तट पर1.<br />
समुद्री लहर का एक टुकड़ा <br />
तट से कुछ दूर नाचता था <br />
एक ऐसी धुन में <br />
जिसे तट पर अकेले बैठकर ही सुना जा सकता था <br />
और गिरता उठता था अपनी ही जगह पर,<br />
<br />
सूरज की एक किरण<br />
कई क्षण पहले चली थी अपने स्रोत से <br />
और अपना ध्येय निश्चित कर लिया था,<br />
अंतरिक्ष के किसी कोने से चलकर <br />
उसे मिलना है किसी से,<br />
<br />
एक क्षण भर के लिये बस <br />
वो लहर और किरण मिले थे <br />
और चमक उठा था <br />
स्पेस और टाइम का वह कोना <br />
अगले क्षण सब कुछ था <br />
लेकिन ऐसा बहुत कुछ था <br />
जो कि नहीं था।<br />
<br />
<br />
2.<br />
गरम लाल सूरज <br />
डूबता है समुद्र में <br />
और करता है संघर्ष जाने के पहले <br />
लेकिन गहरी उच्छ्वास छोड़कर बुझ जाता है,<br />
<br />
संघर्ष के अवशेष में बची हैं चिंगारियाँ,<br />
कुछ चिंगारियाँ तारों के रूप में <br />
आसमान में टँगी हैं <br />
और कुछ चिंगारियाँ तैरती हैं समुद्र में <br />
मछुआरों के लैम्प में।Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-58754485639025279332017-11-21T07:00:00.000+05:302017-12-26T10:01:38.537+05:30हाई होप्स<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया एक मनुष्य<br />
ढोता है अपनी पीठ पर<br />
अपने से कई गुना ज़्यादा बड़ी एक घण्टी <br />
जिसमें समय आता है<br />
तो होती है कोई ध्वनि<br />
और वह मनुष्य<br />
घण्टी को ढोने का कारण जान लेता है।<br />
<br />
समय को ढोते रहना है <br />
समय के साथ क़दम-ताल नहीं मिलाना है <br />
समय हमारी हड्डियाँ तोड़ देगा<br />
लेकिन हम समय को <br />
अपने ऊपर लदा हुआ देख भी नहीं पायेंगे।<br />
<br />
तारीखें बदलती हैं <br />
कैलेंडर बदलते हैं <br />
सदियाँ बदलती हैं <br />
निज़ाम बदलते हैं <br />
हम भी बदल जाते हैं <br />
लेकिन समय की पकड़ ढीली नहीं होती है।<br />
<br />
समय के भार से <br />
हम सीधे खड़े नहीं हो सकते हैं <br />
और देख नहीं सकते हैं रास्ता <br />
चलते रहना है बस चलने के लिये <br />
रुक गये <br />
तो समय का भार और भी बढ़ने लगेगा।<br />
<br />
समय है यहाँ <br />
और समय यहाँ हमेशा रहेगा <br />
समय की नज़रों में <br />
हम आवारा हैं,<br />
समय फिर से चाबी भर देगा <br />
और हम दौड़ने लगेंगे।</div>Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-56352717793366141152017-11-17T07:00:00.000+05:302017-12-03T10:41:44.979+05:30कसीनी1.<br />
आज कसीनी ने अंतिम सिग्नल दिये हैं<br />
और फिर विलीन हो गया है<br />
शनि ग्रह के वातावरण में <br />
पर उससे पहले दे गया है <br />
पृथ्वी ग्रह की एक दुर्लभ तस्वीर <br />
काले पर्दे में तैरता एक नीला गोला <br />
जिसके आसपास कोई नहीं है <br />
इतना अकेला है,<br />
निपट अकेला,<br />
और इसी छोटे से गोले पर <br />
हम अपने बड़े होने के भ्रम में <br />
आसमान सर पर उठा लेते हैं।<br />
<br />
2. <br />
कॉस्मोस के किसी एपिसोड में <br />
देखा था कि कार्ल सेगन<br />
वॉयजर वन से ली गई <br />
धरती की फ़ोटो पर मुग्ध हो गये थे <br />
क्या विज्ञान के लिये भी पागलपन <br />
किसी में हो सकता है?<br />
बाक़ी पागलपन से तो अच्छा ही होगा।<br />
या पागलपन कोई भी अच्छा नहीं होता?<br />
<br />
3.<br />
सदियों से <br />
पृथ्विवासियों ने आकाश में चमकती वस्तुओं को <br />
मानकर रखा है <br />
कि वो धरती पर हो रही घटनाओं का <br />
वहीं से नियंत्रण करती हैं <br />
क्या पता सुदूर, किसी और ग्रह पर <br />
धरती के उपग्रह छोड़ने पर <br />
कुछ और मानी निकलते हों।<br />
<br />
(16 Sept 2017)Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-52885890741686375192017-11-13T07:00:00.000+05:302017-11-13T07:00:11.062+05:30यक्ष प्रश्न - 2<div dir="ltr" style="text-align: left;line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt;font-size: 11pt; margin-top: 0pt;" trbidi="on"><b>यक्ष ऊवाच - </b><br />
धर्मराज!<br />
इन पक्षियों को देखो <br />
इनको देखकर <br />
समझा नहीं जा सकता है<br />
कि इनका अस्तित्व में होना<br />
होना है या हो जाना है <br />
पक्षियों ने भी कोई इशारा नहीं किया है <br />
कि कुछ जाना जा सके;<br />
प्रकृति की आकृतियों को देखो<br />
तो कभी लगता है <br />
कि वे हैं <br />
फिर कभी लगता है <br />
कि नहीं, वे हो गयी हैं,<br />
जहाँ आदमी से कोई कहे <br />
कि जो हो वो रहो <br />
लेकिन आदमी क्या है <br />
क्या आदमी यह जानता है?<br />
होने और हो जाने की परिभाषा क्या है?<br />
दोनों में से महत्वपूर्ण किसे कहा जा सकता है?<br />
<br />
<b>युधिष्ठिर ऊवाच - </b><br />
चलायमान संसार में<br />
स्वयं का सम्पूर्ण ज्ञान हो जाना ही होना है <br />
जहाँ अपने साथ संघर्ष नहीं होता है <br />
और अपनी राह पर निश्चिन्त चलते रहना होता है,<br />
और हो जाना है वह<br />
जहाँ आदमी एक स्वयं से निकलकर <br />
दूसरा स्वयं अपना लेता है <br />
और छिपा देता है भूतकाल को वर्तमान में<br />
और फिर से पा लेता है उत्साह जीने का;<br />
पूर्ण रूप से इनमें से कोई भी अपना लेना <br />
सत्य प्राप्त कर लेने जैसा है <br />
और शायद दोनों राहें <br />
कभी अदृश्य स्थान पर मिलें <br />
और एक हो जायें <br />
और मिटा दें होने और हो जाने के अंतर को,<br />
तब तक दोनों में महत्वपूर्ण कौन है <br />
यह ठीक से कहा नहीं जा सकता है।</div>Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-30729047346947057172017-11-09T07:00:00.000+05:302017-11-09T07:00:10.874+05:30यक्ष प्रश्न - 1<div dir="ltr" style="text-align: left;line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt;font-size: 11pt; margin-top: 0pt;" trbidi="on"><b>यक्ष ऊवाच - </b><br />
धर्मराज!<br />
ये तालाब के किनारे खड़े वृक्षों को देखो <br />
बीज से जन्म लेकर<br />
फलदार बड़े पेड़ बनने तक के पूरे समय को देखो <br />
और एक दिन ये वृक्ष भी सूख जायेंगे,<br />
और ये मछलियाँ <br />
क्षणिक जीवन में कूदते हुये <br />
कुछ समय बाद अदृश्य हो जायेंगी,<br />
ये तालाब का पानी आज यहाँ है <br />
कल कहीं और, किसी और रूप में होगा,<br />
तब इन सबके जीवन की <br />
कभी व्याख्या होगी <br />
और ये पूछा जायेगा <br />
कि इन वृक्षों ने, इन मछलियों ने, इस पानी ने <br />
जीवन भर जो किया <br />
क्या उसको जीवन जी लेना माना जा सकता है?<br />
<br />
<br />
<b>युधिष्ठिर ऊवाच -</b><br />
श्रीमान!<br />
जीवन कम से कम दो कहे जा सकते हैं <br />
(वैसे परिभाषायें कितनी भी गढ़ी जा सकती हैं)<br />
एक वो जो जिया गया है <br />
और एक वो जो जिया सकता है,<br />
जो जिया जा सकता है <br />
जब वो जी लिया जाता है <br />
तो वह पुराना हो जाता है <br />
लेकिन उसके बाद भी <br />
बहुत कुछ जी सकना बचा रहेगा,<br />
दोनों ही जीवन हमारे किये गये कार्यों से अलग<br />
सम्भावनाओं के रूप में<br />
सदैव अस्तित्व में रहेंगे,<br />
अतः <br />
जीवन जीने में<br />
या जीवन जी सकने में <br />
जीवन जी लेना कौन सा है<br />
यह जाना ही नहीं जा सकता है।</div>Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-62583526435549407042017-11-05T07:00:00.000+05:302017-11-05T07:00:12.429+05:30दार्शनिक<div dir="ltr" style="text-align: left;line-height: 1.38; margin-bottom: 0pt;font-size: 11pt; margin-top: 0pt;" trbidi="on">मैं सुबह जब घर से निकलता हूँ<br />
तो मैं बहुत बड़ा दार्शनिक होता हूँ,<br />
मेरे पास<br />
संसार की हर एक समस्या के लिये <br />
अचूक नुस्ख़े होते हैं,<br />
मैं मानता हूँ<br />
कि दुनिया मेरी है <br />
और मेरे लिये ही बनी है,<br />
मैं ये भी मानता हूँ <br />
कि दर्शनशास्त्रियों की थ्योरीज़ में है कोई ताक़त <br />
और इनमें से ही कोई थ्योरी <br />
संसार में यूटोपिया लाने का माद्दा रखती है <br />
जिसके लिये तर्क किया जाना ज़रूरी है,<br />
यह मंशा होती है <br />
कि सत्य निकालकर लाया जाये <br />
और उजाले के लिये खड़ा किया जाये <br />
ताकि मिटाई न जा सके सभ्यता की प्रगति<br />
और खोई न जा सके<br />
उपलब्धियाँ मनुष्य प्रजाति की,<br />
मैं यह जानता हूँ <br />
कि भविष्य की राह पर चला जा सकता है <br />
और पाया जा सकता है मोक्ष <br />
जिस रूप में मैंने उसे देखा है,<br />
उठा सकता हूँ <br />
संसार का भार अपने तर्कों पर <br />
और देख सकता हूँ संसार के पार,<br />
देखो, मैं सुबह बहुत आशावादी होता हूँ।<br />
<br />
शाम को जब घर लौटता हूँ <br />
तब दर्शन सारा भूल चुका होता हूँ <br />
और यथार्थवादी होता हूँ <br />
(वो भी शायद अपने आप में एक तरह का दर्शन है)<br />
दुनिया देखने के लिये सभी थ्योरीज़ के चश्मे हटाने ज़रूरी हैं <br />
(शेक्सपीयर ने कहा था <br />
कि स्वर्ग और पृथ्वी पर उतने से ज़्यादा चीज़ें हैं<br />
जितने की कल्पना अभी तुम्हारे दर्शनों में की गयी हैं)<br />
और दुनिया जैसी है <br />
उसको वैसी ही देखने का प्रयास करता हूँ<br />
और दुनिया कैसी है <br />
ये जानने का प्रयास अपने अनुभव से ही कीजिये।</div>Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-42364757540358510782017-11-01T07:00:00.000+05:302017-11-01T07:00:10.841+05:30नया कवि : पश्चावलोकन<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
कहीं एक सूखा पत्ता था <br />
मैंने उसका शाखा से मिलन कराकर छोड़ दिया।<br />
कहीं बर्फ का पिघला पानी जमा हो गया था <br />
मैंने पत्थर से रास्ता खोदकर उसे नदी से जोड़ दिया।<br />
<br />
कहीं एक चिंगारी ख़त्म होने की कगार पर थी <br />
मैंने ईंधन देकर उसे भड़का दिया।<br />
कहीं वेदना से व्याकुल एक टहनी टूटने वाली थी <br />
मैंने उसकी आँखों में देखकर उसे हड़का दिया।<br />
<br />
कहीं चाँद, तारों और ब्रह्माण्ड की बातें हो रही थीं <br />
मैंने कहा था मैं खाका खींच लूँगा।<br />
कहीं किसी किताब के आखिरी पन्ने पर असहाय खड़ा मिलूँगा <br />
मैं जानता हूँ कि मुट्ठियाँ भींच लूँगा। <br />
<br />
कहीं एक लहर थी जो पत्थर चूर करने के प्रयास में थी <br />
मैंने उसके समर्पण को देखा, और कहा, खूब।<br />
कहीं एक आँधी चल रही थी जिसमें बड़े वृक्ष उखड़ रहे थे <br />
उसने मुझसे अपना जवाब माँगा, मैंने कहा, दूब।<br />
<br />
कहीं एक बारिश थी जिसमें पनपते थे नये-नये बुलबुले <br />
मैंने रात में बल्ब की रौशनी को उसमें घोल दिया।<br />
कहीं हवा थी ठण्ड से ठिठुरी हुयी घर के बाहर खड़ी <br />
मैंने आमंत्रण दिया और खिड़कियों को खोल दिया।<br />
<br />
कहीं एक साँझ थी जो दिन से बिछड़कर थी परेशान <br />
मैंने उसे रात से बचाकर चित्र में क़ैद कर दिया।<br />
कहीं एक सवेरा बैठा था नींद खुलने से सुस्त था <br />
मैंने उसे पूरब की ओर लुढ़काकर रौशनी से लैस कर दिया।<br />
<br />
कहीं समय था जो इतिहास को बदलने का निश्चय कर चुका था <br />
मैं उससे मुखातिब हुआ और पूँछा - क्या यहीं?<br />
कहीं एक मोटी पोथी थी जो इतिहास की धारा में बही थी <br />
मैंने उसे पढ़ा और जवाब पाया - क्यों नहीं?<br />
<br />
कहीं एक शब्द था अपने अर्थ से बिछड़ा हुआ <br />
मैंने उसे परिप्रेक्ष्य देकर उसका संघर्ष कर दिया व्यर्थ।<br />
कहीं एक छन्द था अपने रूपक से अलग-थलग <br />
मैंने उसे एक और मानी देकर कर दिया और भी असमर्थ।<br />
<br />
कहीं दर्द की दरिया मिली कराहते हुये धीरे चलती हुयी <br />
मैंने शब्दों का बाँध बना दिया और कहा रुको।<br />
कहीं हवा में झूमती एक प्रतिभावान शाखा मिली <br />
मैंने जिम्मेदारी का बोझ उस पर लादते हुए कहा झुको।<br />
<br />
मैं नया कवि हूँ, कुछ कहने के प्रयास में हूँ <br />
मुझे जो मिला, मैंने जो देखा, मैंने उन्हें शब्दों में बुना।<br />
दुनिया जैसी हमने देखी है, हम सभी जानते हैं <br />
मैंने एक नयी दुनिया गढ़ने के लिये शब्दों को चुना।<br />
<br />
<i><span id="docs-internal-guid-19ad5229-c4c8-86af-79e8-5713d6ce58c6" style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline;">(अज्ञेय की कविता ‘नया कवि : आत्म-स्वीकार’ को समर्पित</span></i><i><span id="docs-internal-guid-19ad5229-c4c8-86af-79e8-5713d6ce58c6" style="background-color: transparent; color: black; font-family: "arial"; font-size: 11pt; font-variant: normal; font-weight: 400; text-decoration: none; vertical-align: baseline;">।)</span></i> </div>
Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-4319192103781307572017-10-28T07:00:00.000+05:302017-10-28T07:00:03.831+05:30तीर्थयात्रा<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
एक रेगिस्तान है <br />
मेरी आँखों के आगे फैला हुआ <br />
जहाँ रेत ही रेत दिखती है हर तरफ <br />
और दूरियाँ तय होती नज़र नहीं आ रही हैं <br />
परिवर्तन की अनुपस्थिति के कारण <br />
मीलों फैली रेत जिसपर चलता चला जाता हूँ <br />
एकरसता में रस खोजने,<br />
जहाँ रेतीली आँधियाँ चलती हैं <br />
और कुछ देर के लिये एकरसता से <br />
ध्यान भंग कर देती हैं <br />
ऐसा ही एक रेगिस्तान <br />
मेरे मन के अंदर भी है <br />
जहाँ से कोई रास्ता सुलझता नहीं है <br />
और जो दिखता है <br />
वह बहुत दूर एक जैसा ही दिखता चला जाता है <br />
और इस रेगिस्तान से ध्यान हटाने के लिये <br />
मैं रेतीली आँधियाँ खोजता रहता हूँ।<br />
<br />
एक पहाड़ है <br />
जिसकी ढलान पर उगे हैं <br />
पतली पत्तियों वाले पेड़ <br />
जो खड़े हैं इतनी उंचाई पर <br />
डर को ठेंगा दिखाते हुये <br />
उस पहाड़ के शिखर से <br />
पत्थर गिरते रहते हैं <br />
आम बात है <br />
कभी-कभी ये पेड़ <br />
उन पत्थरों को गिरने से रोक लिया करते हैं <br />
मैं दोनों ही पात्र अदा करता हूँ <br />
कभी पत्थरों की तरह गिरता हूँ <br />
(लाक्षणिक रूप से)<br />
कभी पेड़ों की तरह खुद को संभाल लेता हूँ।<br />
<br />
एक सड़क है <br />
जो कुछ जगहों पर उबड़-खाबड़ है <br />
लेकिन ज्यादातर जगह सही है <br />
जिसके दोनों तरफ हैं हरे-भरे खेत <br />
आदमी की ऊँचाई से ऊपर तक गन्ने के पौधे,<br />
हरियाली आकर्षक है<br />
लेकिन सड़क को अभी चलना होगा <br />
मंजिल की तरफ <br />
या उससे भी आगे <br />
खेतों की पैदावार सड़क को नहीं मिल सकती <br />
और वैसे ही जीवन है <br />
जहाँ हरियाली का लालच है दोनों तरफ <br />
और पहुँच में भी दिखता है <br />
लेकिन जीवन को <br />
अभी दूर-बहुत दूर जाना है <br />
उबड़-खाबड़ रास्तों पर <br />
अभी और चलना होगा।<br />
<br />
एक नदी है <br />
जो आस्था की घाटी से बहते हुये <br />
अथाह सागर की चौखट पर खड़ी हो जायेगी <br />
हिम्मत के साथ <br />
जिसका सानी कोई नहीं होगा,<br />
जिस नदी में किसी पुल के पास <br />
या किसी प्रसिद्ध घाट के किनारे <br />
डूबे हैं श्रद्धा के अंतहीन सिक्के तलहटी में,<br />
जब जन्मी थी हिमालय की गोद में <br />
तब बहुत सम्भावनायें थीं <br />
अब एक लकीर पर <br />
पानी को चलते चले जाना है <br />
एक राह चुनने की अब उतनी सम्भावनायें नहीं हैं <br />
नदी की यही गति है।<br />
<br />
एक खेत है <br />
जिसमें धान कुछ दिन पहले रोपा गया है <br />
जिसको सींचने के लिये <br />
नहर से पानी लगाना पड़ता है,<br />
और जाना पड़ता है रात में <br />
टॉर्च लेकर जंगल की तरफ <br />
बांधने के लिए नयी मेड़ <br />
जो रखेगी पानी रोककर,<br />
और अगले दिन जोरदार बारिश होती है <br />
मेड़ बह जाती है <br />
एक चौथाई खेत के साथ,<br />
ये भविष्य की चुनौतियाँ <br />
मौसम की मार, तेज फुहार <br />
खेत के कहे में नहीं हैं <br />
खेत चाहे तो बस तैय्यार रह सकता है <br />
मेड़ें मजबूत की जा सकती हैं शायद।<br />
<br />
एक रात है <br />
रात अँधेरी है <br />
अंधेरेपन की गूँज हर एक दिशा में व्याप्त है <br />
प्रतिध्वनि में भी अंधेरापन ही सुनाई पड़ता है <br />
ऊपर काले-काले बादलों के धब्बे <br />
चाँद के सामने तैरते रहते हैं <br />
और बादल ऊपर से ही देख लेते होंगे <br />
टूटते हुये तारे <br />
जिसको अपनी नासमझी में <br />
दे देते होंगे कोई नयी कहानी,<br />
अँधेरी सड़क से <br />
हवा उड़ाती है सूखे पत्तों को <br />
और जब पत्तों की आवाज़ रूकती है <br />
तो रात का सूनापन बहुत बढ़ जाता है <br />
दूर क्षितिज में <br />
कहीं कड़कती है बिजली <br />
प्रकाश की एक तलवार <br />
समा जाती है धरती के सीने में <br />
रात की तन्द्रा टूटती है <br />
रात जूझती रहती है <br />
लेकिन रात नींद का त्याग नहीं कर सकती।<br />
<br />
एक मंदिर है <br />
पहाड़ की चोटी पर बैठा हुआ <br />
निर्जन है <br />
जहाँ लोग मंदिर देखने नहीं <br />
मंदिर की छत से दुनिया देखने आते हैं,<br />
मंदिर उम्र के उस पड़ाव में है <br />
जहाँ सिर्फ इतिहास पर गर्व किया जा सकता है <br />
(इतिहास गौरवशाली रहा है)<br />
लेकिन वर्तमान में यह प्रांगण <br />
कुछ पुरानी दीवारों का <br />
बस एक समूह बनकर रह गया है <br />
जिसमें बसती हैं वीरानियाँ <br />
और बरामदों में रात के अँधेरे में गूँजती हैं <br />
कहानियाँ एक भव्य इतिहास की,<br />
मंदिर से कुछ दूर एक बस्ती है <br />
जहाँ बन आये हैं छोटे-छोटे नये मंदिर कई <br />
लोगों का आना-जाना लगा रहता है जहाँ <br />
बूढ़ा मंदिर अचरज से भरा नहीं है <br />
हर एक मंदिर को इस दौर से गुजरना ही है।<br />
<br />
एक पेड़ है <br />
जिसकी जड़ें गड़ी हैं गहरे तक <br />
और नतीजतन <br />
वह खड़ा है संतुलित नयी धरती पर <br />
कभी मैं उस पेड़ के पास पहुँच जाता <br />
तो पेड़ बड़ा खुश हो जाता <br />
और सुनाता मुझे किस्से <br />
पिछले ज़माने में आयी आँधियों के <br />
जिनसे समाज को मिलते थे रूप <br />
और इतिहास को पन्ने <br />
बूढ़ा पेड़ मुझसे बताता है <br />
उन आँधियों के बारे में भी<br />
जो पेड़ों से टकराकर टूट गयीं <br />
और बड़ी नहीं हो पायीं<br />
एक सम्भावना बनकर बस रह गयीं,<br />
मैं उस पेड़ की जड़ में पानी डाल आता हूँ <br />
और मना आता हूँ कि वो हवा दे और अँधियों को,<br />
और यात्रा है <br />
तो दोबारा तो मिलना होगा ही।<br />
<br />
एक समुद्रतट है <br />
जहाँ ईर्ष्या से लहरें <br />
कदमों के निशां मिटा देती हैं <br />
और झगड़ती हैं एक दूसरे से,<br />
बहुत दूर सागर की गहराइयों में <br />
जहाँ प्रकाश पहुँचता नहीं है <br />
वहाँ भी यात्रा के नये कारण खोज लिये गये हैं,<br />
रेत के किनारे दूर कहीं <br />
लहरों को लील लेने के लिये प्रयासरत हैं,<br />
दूर कहीं एक द्वीप <br />
सागर से बाहर निकला है <br />
और डूबते सूरज की रौशनी में चमकता है,<br />
रात में चाँद देखता है ऊपर से<br />
समुद्र में मछुआरों के लैंप <br />
किसी नयी दुनिया में <br />
तारों से नज़र आते हैं,<br />
मुझे एक दिन बैठना है समुद्र के किनारे <br />
दिन से रात और रात से दिन कर देना है।<br />
<br />
लेकिन समय एक नहीं है <br />
समय दो हैं <br />
पहले समय में <br />
हम समय को धीमा करके <br />
दूसरा समय देखते हैं <br />
और सापेक्षता के सिद्धान्त के तहत <br />
हमें दूसरा समय बहुत तेज भागता हुआ लगता है <br />
समय हमसे बहुत दूर भागता है <br />
हमारा समय पिछड़ता रहता है <br />
एक दिन हाँफते हुये <br />
पराजय स्वीकार कर लेता है <br />
वह समय अब चलता नहीं है,<br />
समय नहीं चलेगा अब <br />
बस हमारा चलना बाकी रह गया है।<br />
<br />
यात्रायें कभी समाप्त नहीं होती हैं <br />
यात्राओं के बस रूप बदलते रहते हैं <br />
यात्रायें बस देश और काल की नहीं होती हैं <br />
रोज़मर्रा की जिंदगी भी एक यात्रा है <br />
जिसमें श्रद्धा से <br />
लगाना होता है गले से एक गंतव्य <br />
और सच्चे यात्री की तरह <br />
भटकने मात्र से घर बैठना शुरू नहीं कर दिया जाता,<br />
सच्चे यात्री<br />
गंतव्य पूँछकर यात्रा शुरू नहीं करते हैं <br />
राह और मंज़िल में भेदभाव नहीं करते हैं <br />
ये देखने नहीं जाते <br />
जो कि देखा जा चुका है <br />
और लेखों में आ गया है <br />
बल्कि वह जो अभी तक आकार ही नहीं ले पाया है।</div>
Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-35581999519539663542017-10-24T07:00:00.001+05:302017-10-24T07:00:19.495+05:30दीवारेंदीवारें तोड़नी हैं <br />
इससे पहले कि वह दीवार खड़ी हो जाये <br />
मुझे उठना है <br />
और दीवार से टकराकर <br />
लहूलुहान हो जाना है।<br />
<br />
मेरे सामने भागती है एक भीड़ <br />
सबने अपने कन्धों पर लाद रखे हैं <br />
लकड़ियों के लट्ठे <br />
जो हैं भुजायें किसी युवा जंगल की <br />
इससे पहले कि यह लकड़ियाँ <br />
गाड़ दी जायें <br />
बना दी जायें चहारदीवारी <br />
और रोक लें मुझको <br />
मुझे पहुँचना है <br />
और रोकना है उस भीड़ को।<br />
<br />
एक कांटेदार पेड़ की कुछ शाखायें <br />
काट कर रख दी गयी हैं धूप में <br />
कल पत्तियाँ सूख कर गिर जायेंगी <br />
तब इस डाल को रख दिया जायेगा किसी मेड़ पर <br />
और बाँट दी जायेगी जबरदस्ती ज़मीन फिर से <br />
जलाना चाहता हूँ <br />
उस डाल को किसी चूल्हे में <br />
जहाँ से सिर्फ धुँआ निकले <br />
कोई दीवार न निकले।<br />
<br />
नदी के सीने को खोदकर <br />
एक ट्रक निकला है <br />
ढोता है बालू <br />
जो बनवाती हैं दीवारें,<br />
जाओ, जाओ,<br />
बादलों से कहो कि बरस पड़ें <br />
और बहा दे पूरा बालू,<br />
हवाओं से कहो कि चल पड़ें <br />
और सब छितरा दें,<br />
और रास्तों से कहो कि वे उलझ जायें <br />
और घूमता रहे उन्हीं में वो ट्रक <br />
इससे पहले कि वो ट्रक अपनी मंज़िल तक पहुँच जाये <br />
उसे रोकना है।Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-81129306752432801532017-10-20T13:00:00.000+05:302017-10-20T13:00:14.733+05:30अजर, अमर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
1.<br />
मैं उस शरीर में बँधी हूँ <br />
जिसके कदमों को चूमती है चाँदनी रेत <br />
और बालों को छूकर निकलती है घाटी की हवा,<br />
जिसके एक तरफ बहती है नदी <br />
और दूसरी तरफ चढ़ता है आसमां,<br />
एक वृत्त में दौड़ता हुआ वह शरीर<br />
और हाँफता हुआ <br />
अपने चारों तरफ़ <br />
अपनी सी दुनिया ढूँढ़ता हुआ,<br />
ब्रह्म में भटकी हुयी<br />
मैं उस शरीर की अल्पकालिक यात्री हूँ।<br />
<br />
2. <br />
मेरी खोज में न राहें मेरा कहना मानती हैं <br />
और न ही मानता है ये सफर <br />
मेरे उद्देश्य में <br />
न ही कोई नीरसता है <br />
और न ही कोई नीरवता है <br />
हाँ, थोड़ी विवशता है <br />
मेरी राह में <br />
अब न जीतें हैं <br />
अब न हारें हैं <br />
वैसे तो मैं आत्मा हूँ<br />
और तथाकथित रूप से बहुत महत्व की हूँ <br />
लेकिन समय में मैं एक बहुत महत्वहीन अनुचर हूँ।<br />
<br />
3.<br />
और फिर एक दिन <br />
शरीरों की इस यात्रा में <br />
करोड़ों वर्षों के बाद <br />
दिन ज्यादा उजले होंगे <br />
रातें कम अंधियारी होती जायेंगी <br />
और तब तक मैं रह गयी <br />
रचयिता की कृति में उलझकर <br />
तब आसमान झुलसता हुआ <br />
मुझसे मेरी जिंदगी माँगने आ खड़ा होगा <br />
तब मैं भागती फिरूँगी<br />
एक नयी खोज पर चर्चा करने के लिये <br />
मगर कहूँगी किससे <br />
कि सूरज धरती को लील गया है।</div>
Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-83781326361475703492017-10-16T07:00:00.000+05:302017-10-16T07:00:19.012+05:30आदीसमन्दर से खींचकर <br />
किनारे पर लगा दी गयी नाव को <br />
जैसे जीवन से उठाकर <br />
मृत्यु के दर्शन दे दिये गये हैं,<br />
लकड़ी के पटरे <br />
जिन्हें लहरों की गति नापने की आज़ादी थी <br />
आज रेत की शय्या पर बैठकर दिन जाया करते हैं<br />
और समय ने कई बार देखा है <br />
कि एक-एक करके ये लकड़ियाँ <br />
गायब होती चली जाती हैं,<br />
धूल की परतें <br />
नाव का जीवन धूमिल कर देंगी <br />
कभी-कभी कुछ लहरें नाव तक पहुँच जाती हैं <br />
और ऐसी आवाज़ होती है <br />
जिसे बड़ी तड़प में ही शायद सुना गया है <br />
जीवन का एक टुकड़ा मिलते ही <br />
नाव बिलख उठती है <br />
जिसके आँसुओं को समीर बिखरा ले जाती है।<br />
<br />
पर क्यों,<br />
नाव को समन्दर में ही क्यों जाना है,<br />
और कोई तरीका नहीं निकाल सकती क्या ये नाव <br />
समय में विलीन होने का?<br />
जलाने के लिये लकड़ियाँ,<br />
बच्चों के लुकाछिपी खेलने का स्थान,<br />
यात्रियों के लिये चित्र लेने का स्थान <br />
जिसके पार्श्व में सूर्यास्त सावधानी से लगाया गया हो,<br />
कितने सारे कार्य हैं <br />
जिनमें नाव उद्देश्य पा सकती है,<br />
लेकिन खोज पाती नहीं हैं।<br />
<br />
और यह मात्र देखकर जाना नहीं जा सकता<br />
कि ये नाव<br />
समन्दर में जाने की आदी क्यों हैं।Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-10813256784439173142017-10-12T07:00:00.000+05:302017-10-12T07:00:04.586+05:30बूँद - 5 / संगीतमुझे बूँदों का संगीत सुनना था <br />
<br />
एक बेहद बेसुरा संगीत <br />
जिसमें फड़फड़ाती हैं भुजायें बूँदों की <br />
धरती की सतह पर <br />
चोट कर आवाज़ निकालने से पहले <br />
और भागती हैं <br />
हवा की क़ैद से <br />
जैसे हवा स्वयं भागती है बांसुरी की क़ैद से।<br />
<br />
सुनना था वह संगीत <br />
जिसे बूँदें बादलों से उठाकर <br />
लहरों को सौंप देती हैं <br />
जिसे समुद्र की गहराई में <br />
सुरक्षित रखा जा सके <br />
जिसे लहरें किनारे पर ला पटकती हैं,<br />
जिसे सुनाया ही न गया हो <br />
क्या उसे भी संगीत कहा जा सकता है?<br />
दो खूँटियों से बंधे तांबे के तारों से <br />
कहीं कम संगीत तो नहीं जमा है इन बूँदों में?<br />
<br />
छप्पर से टपकती हुयी बूँदों का <br />
दोहराव से रहित <br />
बने नियमों से अलग <br />
गिरना निरंतर जारी है <br />
जैसे उँगलियाँ बरसती है पर सारंगी पर <br />
और खो बैठती हैं सुरों की सारी समझ <br />
मैं अगर बूँदों का संगीत समझने के काबिल भी होता <br />
तो भी क्या मैं समझ पाता?Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-52125184021801688312017-10-08T07:00:00.000+05:302017-10-08T07:00:00.999+05:30बूँद - 4 / उलझा हुआ गीतछज्जों की कई परतों से,<br />
जो कि एक दूसरे से कई फीट की दूरी पर हैं,<br />
गिरती हैं बूँदें <br />
और खिड़की से निहारती हैं <br />
एक कृत्रिम संसार <br />
और सूँघती हैं उदास करने वाला उच्छ्वास <br />
इन बातों के मशविरे <br />
बादलों की दुनिया में कहीं नहीं हैं।<br />
<br />
कारखानों की काली धूल से दबी पत्तियाँ हैं <br />
जहाँ बूँदें आश्रय लेती हैं <br />
कुछ देर के विश्राम के लिये,<br />
कालिख से सन जाती हैं बूँदें <br />
दम घुटता है <br />
धरती पर गिरती हैं <br />
बूँदों का टप-टप बढ़ चला है <br />
या बैठा पेड़ वहाँ बड़बड़ाता है।<br />
<br />
पहली बार में एक बूँद गिरी थी <br />
धरती प्यासी थी <br />
बूँद को खुले हाथों ले लिया था धरती ने <br />
हमें वह बूँद खोजनी है <br />
ट्यूब वेल लगाओ, कुँए खोदो <br />
नहीं, हिम्मत नहीं हारनी है <br />
आखिरी बूँद तक उलच देंगे <br />
पहली बूँद खोजते-खोजते।<br />
<br />
पसरी थी लम्बी क़तार कारों की सड़क पर <br />
मंज़िल तक पहुँचने के लिये बेताब <br />
कुछ बूँदें गिरती हैं <br />
अफरा तफरी मच जाती है <br />
लोगों के कवच बाहर निकल आते हैं <br />
बाकी भागते हैं शरण के लिये <br />
जैसे दूसरे ग्रह के वासी उतर रहे हैं धरती पर;<br />
बूँदों, तुम्हारा स्वागत हर जगह नहीं होगा।<br />
<hr>उच्छ्वास - Exhalation.Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-87773826953881466952017-10-04T07:00:00.000+05:302017-10-04T07:00:09.932+05:30लालटेनवो लौ बहुत धुँआ छोड़ती है <br />
और शीशे पर पुती कालिख के कारण <br />
पूरी तरह बाहर दिख भी नहीं पाती है <br />
अहाते में एक खूँटी पर टँगी है लालटेन <br />
तेज हवा चल रही है <br />
संघर्षरत लौ भभकती है <br />
लौ के दोनों किनारे <br />
आसमान छूने को लपकते हैं।<br />
<br />
बौराया हुआ एक कुत्ता <br />
टीन की छत के नीचे आकर बैठ गया है <br />
भौंकता है न जाने किस पर <br />
लौ की अनिरंतरता पर <br />
या हवा की साँय साँय पर <br />
या भौंकने के सिवा कुछ कर नहीं सकता<br />
तो अब बस भौंकता ही रहता है।<br />
<br />
अँधेरे की इस यात्रा में <br />
लौ के साथी चाँद-तारे आज नहीं आयेंगे <br />
ये हवा से कहला भेजा है <br />
सलाह भी दी है <br />
कि लड़ते रहना <br />
लड़ाई का कारण पता चलने तक <br />
अगली लड़ाई में <br />
इस लड़ाई में तुम्हारे योगदान के लिये <br />
तुम्हारे ऊपर कवितायें लिखी जायेंगी।<br />
<br />
ठिठुरती हुयी लौ <br />
बढ़ती रही रात के पथ पर <br />
जूझती रही स्वयं से <br />
लड़ाई के औचित्य के सवालों पर <br />
मंदिर के दीये की तरह<br />
लालटेन की लौ की उपासना क्यों नहीं होती?Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-38209954843023892762017-09-30T07:00:00.000+05:302017-09-30T07:00:02.377+05:30कोनाबालकनी का एक कोना है <br />
जिसमें गिरते हैं अमलतास के फूल <br />
और हवा से इकट्ठे हो जाते हैं <br />
दूसरे कोने में,<br />
खिड़की के कोने से <br />
एक नयी इमारत दिखती है <br />
जिसके कोने में मशीनें लगी हैं <br />
हड़बड़ी में <br />
चार कोनों से स्थान को घेर लेने में;<br />
<br />
बादलों का एक कोना <br />
उमड़ते-घुमड़ते हुये <br />
अचानक ठिठकता है <br />
पीछे मुड़कर देखता है <br />
सड़क के कोने में <br />
एक वर्ग मीटर के चटाई पर बैठी <br />
गुटखा बेंचती हुई एक महिला को <br />
और बरसता नहीं है;<br />
<br />
समुद्र तट का एक कोना <br />
जिसमें सीपियाँ भर-भर कर पड़ी हैं <br />
हाँ, तुम कहोगे तो तुम्हारे लिये कुछ रंग-बिरंगी ले आऊंगा <br />
जिन्हें तुम सजाकर रख देना <br />
ड्राइंग-रूम के किसी कोने में;<br />
<br />
एक सफ़र है <br />
जिसके कोने में दो शख्स चलते हैं <br />
लेकिन बीच में मिलने तक <br />
वो कुछ और हो चुके होते हैं <br />
एक दूसरे से बचने के लिये कोना खोजते हैं,<br />
सफ़र कहीं कोनों में खोकर समाप्त हो जाता है;<br />
<br />
नींद के कोने में <br />
एक सपना उगना अभी शुरू हुआ है <br />
सपने के कोने में <br />
तुम्हारी आवाज़ धीरे-धीरे तेज होती जाती है <br />
मैं सहसा जाग पड़ता हूँ <br />
आँख के कोने से देखता हूँ <br />
नहीं, ऐसा तो कुछ दिखता नहीं है <br />
अँधेरे के कोनों में;<br />
<br />
मैं सभी कोनों को <br />
किसी कोने में छिपा नहीं सकता हूँ <br />
मन के कोने से बस देख सकता हूँ <br />
जीवन के किसी कोने में पहुँचकर <br />
सभी कोनों को <br />
ब्रह्म के किसी कोने में सौंप देना होगा।Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3330635634532878816.post-62392675703106028482017-09-26T07:00:00.000+05:302017-09-26T07:00:00.175+05:30आत्मीयमैंने कहीं पढ़ा था <br />
कि किसी कविता को पढ़ते हुये <br />
विचारों की एक ही श्रंखला से <br />
दो व्यक्तियों का गुजरना <br />
और भावनाओं की लहरों में <br />
अपने समझबूझ की नाव पर बैठकर <br />
एक ही तरह से हिचकोले खाना, <br />
किसी आत्मीय को <br />
शब्दों के माध्यम से ढूँढ़ लेने जैसा है <br />
और मैंने सोचा था <br />
कि शब्दों का यह जोड़ <br />
जिसके मतलब अनगिनत, अनिर्धारित होते हैं <br />
उसमें किसी एक ही कल्पना के <br />
दो मन में एक साथ आ जाने की सम्भावना <br />
न के बराबर होती है, <br />
उस स्थिति में <br />
हमें एक कविता की कुछ पंक्तियों के <br />
मानी मिले हैं एक जैसे,<br />
असंख्य किताबों की असंख्य कविताओं में <br />
एक वो कविता है <br />
जो कहीं दूर से <br />
धीरे-धीरे <br />
हमारी आत्माओं में घुलने लगी है।Anuraghttp://www.blogger.com/profile/00739671008619934951noreply@blogger.com0