यक्ष ऊवाच -
धर्मराज!
ये तालाब के किनारे खड़े वृक्षों को देखो
बीज से जन्म लेकर
फलदार बड़े पेड़ बनने तक के पूरे समय को देखो
और एक दिन ये वृक्ष भी सूख जायेंगे,
और ये मछलियाँ
क्षणिक जीवन में कूदते हुये
कुछ समय बाद अदृश्य हो जायेंगी,
ये तालाब का पानी आज यहाँ है
कल कहीं और, किसी और रूप में होगा,
तब इन सबके जीवन की
कभी व्याख्या होगी
और ये पूछा जायेगा
कि इन वृक्षों ने, इन मछलियों ने, इस पानी ने
जीवन भर जो किया
क्या उसको जीवन जी लेना माना जा सकता है?


युधिष्ठिर ऊवाच -
श्रीमान!
जीवन कम से कम दो कहे जा सकते हैं
(वैसे परिभाषायें कितनी भी गढ़ी जा सकती हैं)
एक वो जो जिया गया है
और एक वो जो जिया सकता है,
जो जिया जा सकता है
जब वो जी लिया जाता है
तो वह पुराना हो जाता है
लेकिन उसके बाद भी
बहुत कुछ जी सकना बचा रहेगा,
दोनों ही जीवन हमारे किये गये कार्यों से अलग
सम्भावनाओं के रूप में
सदैव अस्तित्व में रहेंगे,
अतः
जीवन जीने में
या जीवन जी सकने में
जीवन जी लेना कौन सा है
यह जाना ही नहीं जा सकता है।


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