जितना लड़ना है इसलिये
कि कोई कारण लड़ने योग्य है
उतना तो लड़ना है ही
उससे थोड़ा ज़्यादा इसलिये लड़ना है
कि अहम् की संतुष्टि हो।

जितना जूझना है
ताकि जूझने से मुक्ति मिल जाये
उतना तो जूझना है ही
थोड़ा उसके बाद भी जूझना है
जूझने में मज़ा आ गया है।

जितना उतरना है नदी में
ख़ुद को भिगोने के लिये
उतना तो उतरना है ही
थोड़ा उसके बाद भी उतरना होगा
गहराई का अंत जानने के लिये।

जितना देखा गया है
और सहेज लिया गया है
उतना तो चित्र बनाना है ही
जो अभी अदृश्य है
उसकी भी रचना करनी होगी
ताकि भविष्य उसमें से
अपनी राह खोज सके।

जितना ख़ुद से दूर जाया जा सकता है
उतना चले जाने के बाद भी
ख़ुद से और दूर जाने की
सम्भावना बनी रहेगी,
और दूर कोनों में बैठे हैं
मेरे अलग-अलग रूप,
जो खींचते हैं जीवन को अलग-अलग दिशाओं में
पूरा जीवन जीने के बाद भी
इनमें से किसी रूप के अनुसार
जीवन जीना बचा रहेगा।


1.
समुद्री लहर का एक टुकड़ा
तट से कुछ दूर नाचता था
एक ऐसी धुन में
जिसे तट पर अकेले बैठकर ही सुना जा सकता था
और गिरता उठता था अपनी ही जगह पर,

सूरज की एक किरण
कई क्षण पहले चली थी अपने स्रोत से
और अपना ध्येय निश्चित कर लिया था,
अंतरिक्ष के किसी कोने से चलकर
उसे मिलना है किसी से,

एक क्षण भर के लिये बस
वो लहर और किरण मिले थे
और चमक उठा था
स्पेस और टाइम का वह कोना
अगले क्षण सब कुछ था
लेकिन ऐसा बहुत कुछ था
जो कि नहीं था।


2.
गरम लाल सूरज
डूबता है समुद्र में
और करता है संघर्ष जाने के पहले
लेकिन गहरी उच्छ्वास छोड़कर बुझ जाता है,

संघर्ष के अवशेष में बची हैं चिंगारियाँ,
कुछ चिंगारियाँ तारों के रूप में
आसमान में टँगी हैं
और कुछ चिंगारियाँ तैरती हैं समुद्र में
मछुआरों के लैम्प में।


हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया एक मनुष्य
ढोता है अपनी पीठ पर
अपने से कई गुना ज़्यादा बड़ी एक घण्टी
जिसमें समय आता है
तो होती है कोई ध्वनि
और वह मनुष्य
घण्टी को ढोने का कारण जान लेता है।

समय को ढोते रहना है
समय के साथ क़दम-ताल नहीं मिलाना है
समय हमारी हड्डियाँ तोड़ देगा
लेकिन हम समय को
अपने ऊपर लदा हुआ देख भी नहीं पायेंगे।

तारीखें बदलती हैं
कैलेंडर बदलते हैं
सदियाँ बदलती हैं
निज़ाम बदलते हैं
हम भी बदल जाते हैं
लेकिन समय की पकड़ ढीली नहीं होती है।

समय के भार से
हम सीधे खड़े नहीं हो सकते हैं
और देख नहीं सकते हैं रास्ता
चलते रहना है बस चलने के लिये
रुक गये
तो समय का भार और भी बढ़ने लगेगा।

समय है यहाँ
और समय यहाँ हमेशा रहेगा
समय की नज़रों में
हम आवारा हैं,
समय फिर से चाबी भर देगा
और हम दौड़ने लगेंगे।


1.
आज कसीनी ने अंतिम सिग्नल दिये हैं
और फिर विलीन हो गया है
शनि ग्रह के वातावरण में
पर उससे पहले दे गया है
पृथ्वी ग्रह की एक दुर्लभ तस्वीर
काले पर्दे में तैरता एक नीला गोला
जिसके आसपास कोई नहीं है
इतना अकेला है,
निपट अकेला,
और इसी छोटे से गोले पर
हम अपने बड़े होने के भ्रम में
आसमान सर पर उठा लेते हैं।

2.
कॉस्मोस के किसी एपिसोड में
देखा था कि कार्ल सेगन
वॉयजर वन से ली गई
धरती की फ़ोटो पर मुग्ध हो गये थे
क्या विज्ञान के लिये भी पागलपन
किसी में हो सकता है?
बाक़ी पागलपन से तो अच्छा ही होगा।
या पागलपन कोई भी अच्छा नहीं होता?

3.
सदियों से
पृथ्विवासियों ने आकाश में चमकती वस्तुओं को
मानकर रखा है
कि वो धरती पर हो रही घटनाओं का
वहीं से नियंत्रण करती हैं
क्या पता सुदूर, किसी और ग्रह पर
धरती के उपग्रह छोड़ने पर
कुछ और मानी निकलते हों।

(16 Sept 2017)


यक्ष ऊवाच -
धर्मराज!
इन पक्षियों को देखो
इनको देखकर
समझा नहीं जा सकता है
कि इनका अस्तित्व में होना
होना है या हो जाना है
पक्षियों ने भी कोई इशारा नहीं किया है
कि कुछ जाना जा सके;
प्रकृति की आकृतियों को देखो
तो कभी लगता है
कि वे हैं
फिर कभी लगता है
कि नहीं, वे हो गयी हैं,
जहाँ आदमी से कोई कहे
कि जो हो वो रहो
लेकिन आदमी क्या है
क्या आदमी यह जानता है?
होने और हो जाने की परिभाषा क्या है?
दोनों में से महत्वपूर्ण किसे कहा जा सकता है?

युधिष्ठिर ऊवाच -
चलायमान संसार में
स्वयं का सम्पूर्ण ज्ञान हो जाना ही होना है
जहाँ अपने साथ संघर्ष नहीं होता है
और अपनी राह पर निश्चिन्त चलते रहना होता है,
और हो जाना है वह
जहाँ आदमी एक स्वयं से निकलकर
दूसरा स्वयं अपना लेता है
और छिपा देता है भूतकाल को वर्तमान में
और फिर से पा लेता है उत्साह जीने का;
पूर्ण रूप से इनमें से कोई भी अपना लेना
सत्य प्राप्त कर लेने जैसा है
और शायद दोनों राहें
कभी अदृश्य स्थान पर मिलें
और एक हो जायें
और मिटा दें होने और हो जाने के अंतर को,
तब तक दोनों में महत्वपूर्ण कौन है
यह ठीक से कहा नहीं जा सकता है।


यक्ष ऊवाच -
धर्मराज!
ये तालाब के किनारे खड़े वृक्षों को देखो
बीज से जन्म लेकर
फलदार बड़े पेड़ बनने तक के पूरे समय को देखो
और एक दिन ये वृक्ष भी सूख जायेंगे,
और ये मछलियाँ
क्षणिक जीवन में कूदते हुये
कुछ समय बाद अदृश्य हो जायेंगी,
ये तालाब का पानी आज यहाँ है
कल कहीं और, किसी और रूप में होगा,
तब इन सबके जीवन की
कभी व्याख्या होगी
और ये पूछा जायेगा
कि इन वृक्षों ने, इन मछलियों ने, इस पानी ने
जीवन भर जो किया
क्या उसको जीवन जी लेना माना जा सकता है?


युधिष्ठिर ऊवाच -
श्रीमान!
जीवन कम से कम दो कहे जा सकते हैं
(वैसे परिभाषायें कितनी भी गढ़ी जा सकती हैं)
एक वो जो जिया गया है
और एक वो जो जिया सकता है,
जो जिया जा सकता है
जब वो जी लिया जाता है
तो वह पुराना हो जाता है
लेकिन उसके बाद भी
बहुत कुछ जी सकना बचा रहेगा,
दोनों ही जीवन हमारे किये गये कार्यों से अलग
सम्भावनाओं के रूप में
सदैव अस्तित्व में रहेंगे,
अतः
जीवन जीने में
या जीवन जी सकने में
जीवन जी लेना कौन सा है
यह जाना ही नहीं जा सकता है।


मैं सुबह जब घर से निकलता हूँ
तो मैं बहुत बड़ा दार्शनिक होता हूँ,
मेरे पास
संसार की हर एक समस्या के लिये
अचूक नुस्ख़े होते हैं,
मैं मानता हूँ
कि दुनिया मेरी है
और मेरे लिये ही बनी है,
मैं ये भी मानता हूँ
कि दर्शनशास्त्रियों की थ्योरीज़ में है कोई ताक़त
और इनमें से ही कोई थ्योरी
संसार में यूटोपिया लाने का माद्दा रखती है
जिसके लिये तर्क किया जाना ज़रूरी है,
यह मंशा होती है
कि सत्य निकालकर लाया जाये
और उजाले के लिये खड़ा किया जाये
ताकि मिटाई न जा सके सभ्यता की प्रगति
और खोई न जा सके
उपलब्धियाँ मनुष्य प्रजाति की,
मैं यह जानता हूँ
कि भविष्य की राह पर चला जा सकता है
और पाया जा सकता है मोक्ष
जिस रूप में मैंने उसे देखा है,
उठा सकता हूँ
संसार का भार अपने तर्कों पर
और देख सकता हूँ संसार के पार,
देखो, मैं सुबह बहुत आशावादी होता हूँ।

शाम को जब घर लौटता हूँ
तब दर्शन सारा भूल चुका होता हूँ
और यथार्थवादी होता हूँ
(वो भी शायद अपने आप में एक तरह का दर्शन है)
दुनिया देखने के लिये सभी थ्योरीज़ के चश्मे हटाने ज़रूरी हैं
(शेक्सपीयर ने कहा था
कि स्वर्ग और पृथ्वी पर उतने से ज़्यादा चीज़ें हैं
जितने की कल्पना अभी तुम्हारे दर्शनों में की गयी हैं)
और दुनिया जैसी है
उसको वैसी ही देखने का प्रयास करता हूँ
और दुनिया कैसी है
ये जानने का प्रयास अपने अनुभव से ही कीजिये।


कहीं एक सूखा पत्ता था
मैंने उसका शाखा से मिलन कराकर छोड़ दिया।
कहीं बर्फ का पिघला पानी जमा हो गया था
मैंने पत्थर से रास्ता खोदकर उसे नदी से जोड़ दिया।

कहीं एक चिंगारी ख़त्म होने की कगार पर थी
मैंने ईंधन देकर उसे भड़का दिया।
कहीं वेदना से व्याकुल एक टहनी टूटने वाली थी
मैंने उसकी आँखों में देखकर उसे हड़का दिया।

कहीं चाँद, तारों और ब्रह्माण्ड की बातें हो रही थीं
मैंने कहा था मैं खाका खींच लूँगा।
कहीं किसी किताब के आखिरी पन्ने पर असहाय खड़ा मिलूँगा
मैं जानता हूँ कि मुट्ठियाँ भींच लूँगा।

कहीं एक लहर थी जो पत्थर चूर करने के प्रयास में थी
मैंने उसके समर्पण को देखा, और कहा, खूब।
कहीं एक आँधी चल रही थी जिसमें बड़े वृक्ष उखड़ रहे थे
उसने मुझसे अपना जवाब माँगा, मैंने कहा, दूब।

कहीं एक बारिश थी जिसमें पनपते थे नये-नये बुलबुले
मैंने रात में बल्ब की रौशनी को उसमें घोल दिया।
कहीं हवा थी ठण्ड से ठिठुरी हुयी घर के बाहर खड़ी
मैंने आमंत्रण दिया और खिड़कियों को खोल दिया।

कहीं एक साँझ थी जो दिन से बिछड़कर थी परेशान
मैंने उसे रात से बचाकर चित्र में क़ैद कर दिया।
कहीं एक सवेरा बैठा था नींद खुलने से सुस्त था
मैंने उसे पूरब की ओर लुढ़काकर रौशनी से लैस कर दिया।

कहीं समय था जो इतिहास को बदलने का निश्चय कर चुका था
मैं उससे मुखातिब हुआ और पूँछा - क्या यहीं?
कहीं एक मोटी पोथी थी जो इतिहास की धारा में बही थी
मैंने उसे पढ़ा और जवाब पाया - क्यों नहीं?

कहीं एक शब्द था अपने अर्थ से बिछड़ा हुआ
मैंने उसे परिप्रेक्ष्य देकर उसका संघर्ष कर दिया व्यर्थ।
कहीं एक छन्द था अपने रूपक से अलग-थलग
मैंने उसे एक और मानी देकर कर दिया और भी असमर्थ।

कहीं दर्द की दरिया मिली कराहते हुये धीरे चलती हुयी
मैंने शब्दों का बाँध बना दिया और कहा रुको।
कहीं हवा में झूमती एक प्रतिभावान शाखा मिली
मैंने जिम्मेदारी का बोझ उस पर लादते हुए कहा झुको।

मैं नया कवि हूँ, कुछ कहने के प्रयास में हूँ
मुझे जो मिला, मैंने जो देखा, मैंने उन्हें शब्दों में बुना।
दुनिया जैसी हमने देखी है, हम सभी जानते हैं
मैंने एक नयी दुनिया गढ़ने के लिये शब्दों को चुना।

(अज्ञेय की कविता ‘नया कवि : आत्म-स्वीकार’ को समर्पित।)