घटनाओं को घटित हुआ मान लेना
साधारण बात होती है
घटनाओं को घटित होते हुये देखना
एक अलग अनुभूति होती है
उस रात
बादलों को ओढ़े हुये
घाटी की सर्द हवा में काँपते हुये तारों को
मैंने देखा था
बीच-बीच में हार मानकर
कुछ तारे टूटकर गिरते भी थे
पहाड़ों पर शामियाने की तरह अटका हुआ आसमान
उनकी बेचारगी पर बहुत हँसता था
हवायें कानाफूसी करती थी,
उस रात यह घटना घटित हुयी थी
जब चाँदनी की एक चादर ने
तारों को अपने आगोश में लेकर
उनका संघर्ष समाप्त किया था।

और यह ज्ञात हो
कि मैंने चाँद को
नुकीले पहाड़ों में फँसकर निकलते हुये
और चाँदनी को धीरे-धीरे फैलते हुये देखा था।


दोबारा नहीं मिल सकेंगे हम
वो कुछ छायाचित्र
जो तुम्हें देखकर अनायास ही बन गये थे
धूमिल हो ही जायेंगे
स्याही से लिखी गयी कुछ पंक्तियों की तरह,
कभी सोचना कि अनायास मिलना
सुंदर होता है न?
बिना किसी के उगाये
जंगल में खिल आये
कुछ जंगली फूलों की तरह
जिन्हें हम खोजते नहीं फिरते
लेकिन दिख जाये तो क्या नहीं करते,
दोबारा नहीं मिल सकेंगे हम
एक ग्लेशियर पर बर्फ के रूप में गिरकर
हमें दो अलग दिशाओं में
दो अलग धाराओं में निकलना होगा
अलग-अलग यात्राओं के लिये
बर्फ पर उकेरी आकृतियों की तरह
ये यादें अन्य यादों के आने पर दब जायेंगी
या जैसे खेत में बोई हुई यादें
कभी घटनाओं के हल चलने पर
कभी दोबारा भी आ सकती हैं
यह हम सोचेंगे
और उन यादों को झरने पर टाँग देंगे
जहाँ से उन्हें मूकदर्शक बनकर
गिरते हुये देखा जा सके
और यह चलचित्र समाप्त होने के बाद
हमें फिर से अपनी-अपनी धारा में बहना होगा।

दोबारा नहीं मिल सकेंगे हम
दोबारा मिलने के लिये
नियति के चक्र फिर से ऐसे ही घूमने होंगे
गृहों की गति, देशकाल का प्रवाह
फिर से ऐसे ही होना पड़ेगा
और हमें फिर से अज्ञात यात्रा के लिये निकलना पड़ेगा।


फिर लगा दी जाती हैं
सदियों से गैर-जाँची, गैर-परखी चली आयी
परम्पराओं की बेड़ियाँ
किन्हीं पैरों में;
वही ढेर सारे नुस्खे
जिनको अपनाकर
आदमी जीवन से सन्तुलन बनाकर रह सकता है
और समय के मंथन में मिले
एक विशेष युग को
उन्हीं बेड़ियों को सौंप देने पर ही
अस्तित्व में रहा जा सकता है,
और यही एक मुद्दे की बात थी
बाकी तो बेड़ियाँ कौन सा मुद्दा छोड़ती हैं
यह सहज अनुभव से जाना जा सकता है।

और इन बेड़ियों से
छूट जाना असम्भव ही है,
बस आदतबाज़ बनकर निकला जा सकता है।


एक आवाज़ थी
जो उसने क्रांति के ग्रंथों से
थोड़ी-थोड़ी इकठ्ठा करके
सम्भालकर रख लिया था कि कभी बोला जा सकेगा
बड़े होकर वह आवाज़ और भी बढ़ी उसमें
वह और भी तड़प उठा
वह आवाज़ निकालने को,
वह क़िताबी ज्ञान को
क्रांति समझ लेता है
और झुलसता है प्रचलित दौर के चलन से
और भागा है फिर से
निर्णय के केंद्र से
ताकि चुनौती देने का मौका न आये,
उसकी आवाज़ अब नहीं आती है,
दूर जाते जाते वह आवाज़
साँझ की लाली में घुलकर कहीं गायब हो गयी थी
हर आवाज़ों पर संगीत नहीं जमाया जाता,
क्षितिज के पार लोग
सुना है उसे याद भी नहीं करते
मृत होने के बाद

बहुत दिन बाद
उनकी आत्मायें मिलीं
और सबकी यही एक शिकायत रही,
कि मेरा दौर क्रांतिकारी नहीं था