बालकनी के नीचे खिला हुआ
अमलतास के फूलों के आखिरी गुच्छा
कभी आखिरी राही के चले जाने के बाद
धुल छँट जाने के बाद
अपने होने या न होने के बारे में सोचता है
कि आखिर कौन सी वजह होगी
जो उसके वज़ूद को सही-सही बयाँ कर सकेगी।
क्या वह सिर्फ पीला रंग है?
क्या वह एक विशेष आकृति में गूँथ दी गई
परतों का बस एक समूह है?
क्या वह झूमती हुई पत्तियों का मात्र एक सहचर है?
क्या वह विभिन्न तत्वों का एक जटिल मिश्रण है?
या इन सब बातों से मिलकर बना कुछ अन्य?

यदि हाँ,
तो क्या अमलतास का यह पीला फूल
बस कुछ एक गुणों वाली वस्तु बनकर रह गया है?
हर एक वस्तु के कुछ तत्व हैं
क्या उन तत्वों को अलग-अलग करके देख सकने से
वज़ूद में झाँका जा सकता है?
क्या थीसेस के जहाज की तरह
इकाई और सम्पूर्णता की यह बहस
मात्र कारणों के बल पर जीती जा सकती है?

यदि नहीं,
तो क्या यह मान लेना चाहिये
कि इकाइयों का महत्व तभी है
जब सम्पूर्ण एक बार दिख जाए?
क्या ऐसा नहीं होता
कि हर एक वस्तु का
अपना एक मर्म होता है
जिससे अलग उस वस्तु और मर्म
दोनों को नहीं देखा जा सकता है
और अलग-अलग दोनों अपनी मूलता खो बैठते हैं?
यह भी हो सकता है
कि किसी वस्तु को
ज्ञात ढांचों में ढालना उचित न हो?

(या शायद सम्भव भी न हो।)


ये निर्मल शीतल जल
ये छोटे पत्थरों के ऊपर छोटी लहरियाँ
घाटी में सूरज को देखने के
बस कुछ चुनिन्दा पहर
और हर चीज के अस्तित्व को
उद्देश्य देती हुई सिमटी हुई धारा,
किनारे पर खड़ा होकर सोचता हूँ
कि मानी एकतरफा क्यों होते हैं।

ये सूरज-चाँद को दिये गए रूपक
कभी कुछ बढ़ा-चढ़ाकर
तो कभी चाशनी में डुबोकर
पेश की गई शब्दों की लड़ियाँ,
ये झील का पानी
जिसमें हवा के संगीत में
अगाध श्रद्धा से नाचती हैं सूरज की किरणें
कभी इस बात से वाकिफ़ होगा
कि रोज की इन बातों के कुछ मानी भी होते हैं
जो कि हमने इन्हें दे दिये हैं।

कभी शायद हवा का एक झोंका
किसी पगौड़ा से उलझाई हुई झंडियों के माध्यम से
ये बोल सकेगा
कि ये जो मानी तुमने दिये हैं
इनसे अलग बहुत से मानी हैं
तुम मुझे सुनो तो सही।
सदियों से मुझ जैसे बहुतों ने
तुम्हें मानी देने की कोशिश की है,
क्या ऐसा नहीं हो सकता
कि तुम मुझे मानी दो, स्पीति?


गन्ने के खेतों के पीछे
पहाड़ी की चोटी पर
लाल रंग का एक गोला
धीरे-धीरे गिर रहा है,
बादलों के किनारे पर
दिखती हैं चमकीली धारियाँ
जहाँ से निकलता है एक अलग तरह का आलस
जो सबमें व्याप्त हुआ जाता है,
पक्षी अँधेरा होने के पहले
अपने पिंजड़े में लौटना चाह रहे हैं,
और जलने लगे हैं दिये यहाँ वहाँ
जो सूरज का थोड़ा हिस्सा रखकर
सुबह तक लड़ते रहेंगे,
और नित्य घटना थी ये
उस दिन भी सूरज अस्त हुआ।

कई सौ साल पहले
इन्हीं पहाड़ियों के पीछे
इसी नदी के किनारे
गाजे-बाजे के साथ
एक बहुत बड़े साम्राज्य का सूरज
अस्त हुआ था,
अंतिमता लिये हुए।


भयानक सन्नाटा पसरा हुआ था
ऐसा सन्नाटा
जिसमें ध्वनि को
किसी कोने में बैठा हुआ देखा जा सकता था,
देखते ही देखते सन्नाटे में खो गये
वर्तमान के हर एक पहलू
फिर क्षितिज के उस पार से अंधकार उठा
उसके पीछे क्षत-विक्षत लोगों की सिसकियाँ
काले पक्षियों का एक गुट चल दिया
उस ओर जहाँ हो रहा था
विधाता की नाकामियों का खुला प्रदर्शन,
उस अंधकार के पीछे से एक आँधी उठी
जिसमें समाहित हो गया था इतिहास
इतिहास, जो ध्वस्त करता गया रास्ते के तथ्य
इतिहास, जो शांत करता गया हर एक आवाज़ को
इतिहास, जो वक़्त से कहीं आगे निकल गया था,
उस आँधी के पीछे सन्नाटे की एक और परत थी,
और आँधी से निकली सहसा
ढोल-नगाड़ों की ध्वनियाँ
जो धीरे-धीरे तेज होती गईं,

दरबान ने दरवाज़ा खोला,
कहा, महाराज
युद्ध में सेनाओं ने
पराजित कर दिया है शत्रु को
जीत का जश्न शुरू किया जाए!


मेरे इख़्तियार में नहीं हैं मेरी ईज़ाद की हुई बातें
थम गया हूँ मैं, बह रही हैं बनकर बयार ये बातें।

कभी वक़्त का रुख मोड़ देने का माद्दा रखती थीं
आज ख़ुद आवारगी में इस क़दर मानूस हैं ये बातें।

हाँ इनमें किसी के भी वाक़ये बयाँ नहीं होते हैं
किसी की ज़िन्दगी का आईना नहीं हैं ये बातें।

मेरे शौक़ में नहीं हैं बज़्मों के कहकहे या क़सीदे
मेरे सुकून के लिए हैं बिछड़ी नज़्में कुछ भूली बातें।

ये नई हवा नहीं है मत सोचो कि ये रुक जायेंगी
वज़ूद में तो कब से थीं, भले पोशीदा रहीं ये बातें।

क़ायम नहीं हो पाई थी जो वाइज़ की निगेहबानी
पाबंदियाँ लगाओ कहो गुनाहगार जो हैं ये बातें।

और कहो कि यह सही नहीं है कि फैलें ये बातें
मैं मुतमईन हूँ कि तुम्हें असहज कर देंगीं ये बातें।