बाग में
एक चटख रंग की पत्ती देखता हूँ
सवेरे की
शीतल सुरभित हवा के साथ
झूमती हुई
सूरज के प्रकाश में चमकती हुई
पक्षियों के कलरव से
तालमेल बनाती हुई
ओस की बूँदों में नहाई हुई
वो अपनी ही दुनिया में जी रही है
वो नयी पत्ती है
बसंत ऋतु मे जन्मी है
अभी बाग के
तौर-तरीकों से अंजान है।

कल जब ये पत्ती बड़ी होगी
तो इसे
ज़िम्मेदारियों का बोध कराया जाएगा
रंग चटख से गाढ़ा पड़ता जाएगा
ये पत्ती
लू के थपेड़े सहना सीखेगी
धूप से हारे
किसी राही को ये पत्ती
विश्राम देगी।

और फिर वर्षा ऋतु में
बादलों की गरज के संग
आँधी तूफान में
इस छोर से उस छोर तक
कूदते फाँदते हुए
बारिश में भीगा करेगी
हालाँकि अब इसे बाग के
चाल चलन की पूरी जानकारी है
लेकिन परवाह थोड़े ही है
पत्ती युवावस्था में है।

और फिर एक समय ऐसा भी आएगा
जब पत्ती का रंग गाढ़े हरे से
पीला पड़ने लगेगा
आसपास की पत्तियाँ
तेज हवा चलने पे
दिल थाम के बैठ जाएँगी
की कहीं ये पत्ती गिर ना जाए
धीरे धीरे
शाखा से पत्ती की पकड़ कमजोर होती जाएगी
पतझड़ के ऐसे ही
किसी सामान्य दिन
पत्ती वृक्ष से गिर जाएगी
ज़मीन पर कुछ दिन पड़े हुए
पत्ती का रंग काला पड़ जाएगा
एक दिन माली आएगा
इस पत्ती को ऐसी ही
अनेक पत्तियों के साथ जला देगा
बाकी पत्तियाँ मूक देखते रह जाएँगी
उस पत्ती के जाने का
बाग पर कुछ असर नही होगा
ऐसा लगेगा
जैसे कभी वो पत्ती वहाँ थी ही नही
और वैसे भी
अगले बसंत मे फिर नयी पत्तियाँ तो आएँगी ही।

बैठा सोचता हूँ
कि मैं भी
किसी गुमनाम बाग की
एक आवारा पत्ती हूँ
हवा चलने पर मचलता हूँ
ओस की बूँदो पर थिरकता हूँ
बारिश मे भीग लेता हूँ
आज हूँ
तो जीवन बहुत सरस लगता है
और जब कल नही रहूँगा
तो भी उस गुमनाम बाग में
जीवन ऐसे ही चलता रहेगा
जैसे बाग में मुझ पत्ती का
अस्तित्व कभी था ही नहीं।
तत्सत।